Wednesday, August 27, 2014

आज का श्लोक, ’विन्दामि’ / ’vindāmi’

आज का श्लोक, ’विन्दामि’ / ’vindāmi’
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’विन्दामि’ / ’vindāmi’ - पाता हूँ,
(उभयपदी ’विद्’ धातु, -तुदादिगण, लट्-लकार, उत्तम पुरुष एकवचन)

अध्याय 11, श्लोक 24,

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
व्यात्ताननं दीप्तिविशालनेत्रम् ।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥
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(नभःस्पृशम् दीप्तम् अनेकवर्णम्
व्यात्ताननम् दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्ट्वा हि त्वाम् प्रव्यथितन्तरात्मा
धृतिम् न विन्दामि शमम् च विष्णो ॥)
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भावार्थ :
हे विष्णु (भगवान् श्रीकृष्ण)! आकाश को स्पर्श कर रहे अनेक वर्णों से युक्त फैले हुए आपके मुखमंडल और आपके देदीप्यमान विशाल नेत्रों को देखते हुए मैं भयभीत और व्यथित मन हूँ । मुझ व्याकुल को न तो धीरज बँध रहा है, और न शान्ति ही अनुभव हो रही है  ...
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’विन्दामि’ / ’vindāmi’ - I may have, may find, 
Chapter 11,  śloka 24,

nabhaḥspṛśaṃ dīptamanekavarṇaṃ
vyāttānanaṃ dīptiviśālanetram |
dṛṣṭvā hi tvāṃ pravyathitāntarātmā 
dhṛtiṃ na vindāmi śamaṃ ca viṣṇo ||
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(nabhaḥspṛśam dīptam anekavarṇam 
vyāttānanam dīptaviśālanetram |
dṛṣṭvā hi tvām pravyathitantarātmā 
dhṛtim na vindāmi śamam ca viṣṇo ||)
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Meaning :
Seeng Your Radiant Grand Face of blazing shades and colors with mouth wide open, and Your large fiery eyes touching the sky, O viṣṇu (bhagavān śrīkṛṣṇa) !  I am frightened at heart. I feel neither comfort or solace, nor peace. 
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