आज का श्लोक, ’विविधाः’ / ’vividhāḥ’
______________________________
’विविधाः’ / ’vividhāḥ’ - अनेक भिन्न-भिन्न प्रकार के,
अध्याय 17, श्लोक 25,
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥
--
(तत् इति अनभिसन्धाय फलम् यज्ञतपःक्रिया ।
दानक्रियाः च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥)
--
भावार्थ :
(श्लोक 23 में वर्णित ’ॐ तत्-सत्’ इस निर्देश में प्रयुक्त होनेवाले) ’तत्’ इस पद का तात्पर्य / भाव है : ’वह सद्वस्तु परब्रह्म परमात्मा’ । इसलिए मोक्ष / परब्रह्म परमात्मा की आकाङ्क्षा रखनेवाले (मुमुक्षुजन) हृदय में इस पद के अर्थ का स्मरण करते हुए, फल की कामना से रहित होकर, अनेक प्रकारों से यज्ञ तथा तप आदि कर्मों एवं दान आदि कर्मों का भी अनुष्ठान करते हैं ।
--
______________________________
’विविधाः’ / ’vividhāḥ’ - अनेक भिन्न-भिन्न प्रकार के,
अध्याय 17, श्लोक 25,
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥
--
(तत् इति अनभिसन्धाय फलम् यज्ञतपःक्रिया ।
दानक्रियाः च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥)
--
भावार्थ :
(श्लोक 23 में वर्णित ’ॐ तत्-सत्’ इस निर्देश में प्रयुक्त होनेवाले) ’तत्’ इस पद का तात्पर्य / भाव है : ’वह सद्वस्तु परब्रह्म परमात्मा’ । इसलिए मोक्ष / परब्रह्म परमात्मा की आकाङ्क्षा रखनेवाले (मुमुक्षुजन) हृदय में इस पद के अर्थ का स्मरण करते हुए, फल की कामना से रहित होकर, अनेक प्रकारों से यज्ञ तथा तप आदि कर्मों एवं दान आदि कर्मों का भी अनुष्ठान करते हैं ।
--
अध्याय 18, श्लोक 14,
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥
--
(अधिष्ठानम् तथा कर्ता करणम् च पृथग्विधम् ।
विविधाः च पृथक् चेष्टाः दैवम् च एव अत्र पञ्चमम् ॥)
--
भावार्थ :
किसी कर्म के संपन्न होने में प्रथमतः तो उसका अधिष्ठान सबसे महत्वपूर्ण होता है, अर्थात् वह साक्षी चेतना, वह तत्व जिसके अन्तर्गत सब कुछ जाना जाता है, इसके बाद होता है ’कर्ता’ अर्थात् अपने कर्ता होने का संकल्प / मान्यता जो मनुष्य में ’मैं’ की भावना से अभिन्नतः जुड़ी होती है । अपने ’कर्ता’ / ’भोक्ता’ होने का संकल्प जो अनायास ही जागृत होता है, और जिसके द्वारा मनुष्य अज्ञानवश अपने-आप को कर्म / कर्म के फल से बाँध लेता है । इसलिए इस ’कर्ता’ का अस्तित्व मूलतः सन्दिग्ध है, किन्तु चूँकि यह एक उपाधि-सत्ता है, इसलिए ’कर्म’ के अन्य 4 पृथक् कारकों की तरह इसका भी यहाँ महत्व है । कर्म के होने में प्रयुक्त होने वाले अनेक साधन (करण) जैसे मन, बुद्धि, विचार, इच्छा, तथा सूक्ष्म और स्थूल इन्द्रियाँ तथा अन्य भौतिक साधन, अनेक प्रकार की भिन्न-भिन्न चेष्टाएँ,आदि । और अन्तिम (पाँचवाँ) कारक है दैव अर्थात् प्रारब्ध, जिसकी किसी कर्म के होने / न होने में या विशिष्ट रूप से होने में अपनी भूमिका होती है ।
--
’विविधाः’ / ’vividhāḥ’ - of different kinds,
Chapter 17, śloka 25,
tadityanabhisandhāya
phalaṃ yajñatapaḥkriyāḥ |
dānakriyāśca vividhāḥ
kriyante mokṣakāṅkṣibhiḥ ||
--
(tat iti anabhisandhāya
phalam yajñatapaḥkriyā |
dānakriyāḥ ca vividhāḥ
kriyante mokṣakāṅkṣibhiḥ ||)
--
Meaning :
(As described in śloka 23 of this Chapter 17, the term ’tat’ in the aphorism (nirdeśa) - ’om̐ tat-sat’, carries the sense of That / Brahman / The Reality), Those who aspire for attaining this Reality Supreme, perform all actions (kriyā / kārya, karma) like sacrifice (yajña), austerity (tapa), and charity (dāna), dedicating the rewards / fruits of all their actions to 'tat', without desiring the fruits of these actions of many, various and different kinds.
--
Chapter 18, śloka 14,
adhiṣṭhānaṃ tathā kartā
karaṇaṃ ca pṛthagvidham |
vividhāśca pṛthakceṣṭā
daivaṃ caivātra pañcamam ||
--
(adhiṣṭhānam tathā kartā
karaṇam ca pṛthagvidham |
vividhāḥ ca pṛthak ceṣṭāḥ
daivam ca eva atra pañcamam ||)
--
Meaning :
The five factors that cause the happening of an action / event are :
1. The ground that is the support (adhiṣṭhāna) that is the consciousness which the prime and prior-most evidence. This may be called 'witness-consciousness' (sākṣī-tatva / cetanā) which is sel-evident truth,
2. The intellect / thought / (saṅkalpa) associated inevitably with the 'I-consciousness' / 'I-thought' which causes the illusion of the independent existence of an individual and then the idea 'I do' / 'I can do'. / 'I can't do', ego / kartā, which pre-supposes the existence of an independent agent that 'one' is. In other word the (false) identification of 'oneself' as the agent. Though this 'oneself' has only a formal and assumed existences, because we think in this way, it acquires the status of a factor,
3. The various instruments (karaṇa) / means such as mind, desire, thought, intellect, skill and physical organs, and the external conditions and things, through which the action is 'done',
4. The different efforts (ceṣṭāḥ) of various kinds,
and,
5. Destiny (daiva) or the fate.
--
No comments:
Post a Comment