शब्द-सन्दर्भ, ’जहाति’ / ’jahāti’
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संस्कृत भाषा में ’हा’ धातु का प्रयोग प्रधानतः ’त्यागने’ / ’छोड़ने’ और गौणतः ’नष्ट करने’ / ’मारने’ के अर्थ में पाया जाता है ।
’हा’ जुहोत्यादि गण में परस्मैपदी धातु का स्थान रखती है ।
इससे व्युत्पन्न कुछ मुख्य शब्द इस प्रकार से हैं :
जहाति - त्यागता है, छोड़ता है, - अध्याय 2, श्लोक 50,
प्रजहाति - त्यागता है, छोड़ता है,
जहि - छोड़ो, नष्ट करो, मिटाओ, दूर करो, मार डालो, - अध्याय 3, श्लोक 43, अध्याय 11, श्लोक 34,
प्रजहि, - छोड़ो, नष्ट करो, मिटाओ, दूर करो, मार डालो, - अध्याय 3, श्लोक 41,
हास्यति - छोड़ देगा, प्रहास्यति,
हास्यसि - तुम छोड़ दोगे, प्रहास्यसि,
जहातु - (वह) छोड़ दे, त्याग दे, उसके द्वारा छोड़ दिया जाना चाहिए, उसने त्याग देना चाहिए,
हीयते - जिसे त्याग दिया जाना चाहिये,
हेयः - तिरस्कृत्य, अस्वीकार्य,
हीनः - से रहित, विना, के बिना,
जहत् - त्यागता हुआ, त्यागते हुए, (शानच् प्रत्यय),
अजहत् - न त्यागता हुआ,
हित्वा - छोड़कर, त्यागकर, - अध्याय 2, श्लोक 33,
विहाय - छोड़कर, त्यागकर, - अध्याय 2, श्लोक 22, अध्याय 2, श्लोक 71 -
हापयति - छुड़ाता है,
जिहासति - छोड़ने की इच्छा रखता है,
--
’विहाय’ / ’vihāya’ - छोड़कर, त्यागकर,
अध्याय 2, श्लोक 22,
--
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
--
(वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरः अपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही ॥)
--
भावार्थ :
जैसे पुराने वस्त्रों को त्यागकर मनुष्य दूसरे (नये) वस्त्रों को धारण कर लेता है, उसी प्रकार देही (देह से संयुक्त चेतन-सत्ता, जीव) भी (क्रमशः अनेक जन्मों से गुजरते हुए) विभिन्न शरीरों को त्यागता और अन्य दूसरे शरीरों को धारण / ग्रहण किया करता है ।
--
अध्याय 2, श्लोक 33, ’हित्वा’ - नाश करते हुए,
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
--
(अथ चेत् त्वम् इमम् धर्मम् संग्रामम् न करिष्यसि ।
ततः स्वधमर्म् कीर्तिम् च हित्वा पापम् अवाप्स्यसि ॥)
--
भावार्थ :
अतः (हे अर्जुन!) यदि तू इस धर्मसम्मत संग्राम को नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति की भी हानि कर पाप का भागी होगा।
--
’जहाति’ / ’jahāti’- छोड़ देता है, से मुक्त हो जाता है,
अध्याय 2, श्लोक 50, ’जहाति’ - छोड़ देता है, से मुक्त हो जाता है,
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
--
(बुद्धियुक्तः जहाति इह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्मात्-योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।)
--
भावार्थ :
समबुद्धि रखनेवाला मनुष्य शुभ तथा अशुभ, दोनों ही प्रकार के कर्मों को इसी लोक में (जीवित रहते हुए ही) भली प्रकार से त्याग देता है (-कर्मसंन्यास), इसलिए (समत्वबुद्धि के माध्यम से योगरत हो जाओ, क्योंकि योग का तात्पर्य है कर्म करने के कौशल में कुशल हो जाना ।
--
अध्याय 2, श्लोक 55, ’प्रजहाति’ - त्याग देता है,
श्रीभगवानुवाच :
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
--
(प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् ।
आत्मनि-एव-आत्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञः तदा उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
हे अर्जुन! जब कोई मनुष्य मन में उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओं को (उनकी निस्सारता जान लेने के बाद) अनायास त्याग देता है तथा (आत्मा को जानकर तथा उसमें ही अवस्थित रहते हुए) आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।
--
अध्याय 2, श्लोक 71 - ’विहाय’ - त्याग कर, त्यागने से,
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
--
(विहाय कामान् यः सर्वान् पुमान् चरति निःस्पृहः ।
निर्ममः निरहङ्कारः सः शान्तिम् अधिगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
और, जो पुरुष कामनाओं को त्यागकर, ममत्व से रहित, अहंकार से रहित, स्पृहा (अर्थात् ईर्ष्या / लालसा) से भी रहित हुआ आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है ।
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अध्याय 3, श्लोक 41, - ’प्रजहि’ - नष्ट कर दो, मिटा दो, समाप्त कर दो,
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥
--
(तस्मात् त्वम् इन्द्रियाणि आदौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानम् प्रजहि हि एनम् ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥)
--
भावार्थ :
अतएव हे भरतर्षभ (अर्जुन)! पहले तुम इन्द्रियों आदि को संयमित रखते हुए ज्ञान तथा विज्ञान का नाश करनेवाले इस पापी (काम-क्रोध) को समाप्त करो, मिटा डालो ।
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अध्याय 3, श्लोक 43, - ’जहि’ - (कामरूपी शत्रु को) मार डालो,
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥
--
(एवम् बुद्धेः परम् बुद्ध्वा संस्तभ्य आत्मानम् आत्मना ।
जहि शत्रुम् महाबाहो कामरूपम् दुरासदम् ॥)
--
भावार्थ :
(जैसा पिछले श्लोक में कहा गया है, ’वह तत्व जो बुद्धि से भी परे है, आत्मतत्व है,’ इसलिए,) हे महाबाहु अर्जुन! बुद्धि से परे के उस तत्व को ठीक से निश्चयपूर्वक जान-समझकर, आत्मा (शुद्ध और सूक्ष्म बुद्धि) को ही आत्मा में दृढता से सुस्थिर रखते हुए, कामनारूपी दुष्ट कुटिल शत्रु को मार डालो ।
--
अध्याय 11, श्लोक 34, - ’जहि’ - मारो, वध करो, यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने जिस सन्दर्भ में अर्जुन को शत्रु को मारने का निर्देश दिया है वह आश्चर्यजनक है । श्रीकृष्ण भलीभाँति जानते हैं कि अर्जुन अपने स्वजनों को कैसे मार सकता है? वह अत्यन्त व्यथित है, वे उससे कहते हैं कि तुम व्यथित मत होओ क्योंकि वे पहले ही से मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं ।
--
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥
--
(द्रोणम् च भीष्मम् च जयद्रथम् च
कर्णम् तथा अन्यान् अपि योधवीरान् ।
मया हतान् त्वम् जहि मा व्यथिष्ठाः
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥)
--
भावार्थ :
द्रोण, भीष्म, जयद्रथ,, कर्ण और दूसरे भी ऐसे महायोद्धा मेरे द्वारा पहले से ही मारे जा चुके हैं, तुम इसलिए (निमित्तमात्र बनते हुए) मार डालो, उनसे भयभीत होकर व्यथित मत होओ । तुम युद्ध में अवश्य ही जीतोगे, और शत्रुओं को परास्त करोगे ।
--
भावार्थ :
--
’विहाय’ / ’vihāya’ -leaving, giving-up, putting aside,
Chapter 2, shloka 22,
vāsāṃsi jīrṇāni yathā vihāya
navāni gṛhṇāti naro:'parāṇi |
tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇā-
nyanyāni saṃyāti navāni dehī ||
--
(vāsāṃsi jīrṇāni yathā vihāya
navāni gṛhṇāti naraḥ aparāṇi |
tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇāni
anyāni saṃyāti navāni dehī ||)
--
Meaning :
As a person puts off old, worn-out cloths and puts on the other new ones, so also the consciousness (self) associated with the physical form (body) discards the old worn-out bodies and takes on newer bodies.
--
Chapter 2, śloka 33,
atha cettvamimaṃ dharmyaṃ
saṃgrāmaṃ na kariṣyasi |
tataḥ svadharmaṃ kīrtiṃ ca
hitvā pāpamavāpsyasi ||
--
(atha cet tvam imam dharmam
saṃgrām na kariṣyasi |
tataḥ svadharmam kīrtim ca
hitvā pāpam avāpsyasi ||)
--
Meaning :
Arjuna !If you say you will not take part in this righteous war, you will lose not only the reputation and status on the worldly level, but also incur sin.
--
’जहाति’ / ’jahāti’ - is freed from, renounces,
Chapter 2, śloka 50,
buddhiyukto jahātīha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmādyogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam ||
--
(buddhiyuktaḥ jahāti iha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmāt-yogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam |)
--
Meaning :
One, who has attained Wisdom, is Wise, renounces the noble and ignoble both kinds of actions (by understanding the fact and refusing to accept the notion ; 'I do' / 'I don't do', - he is aware that actions / incidences, happen on their own.)
--
Chapter 2, śloka 55,
śrībhagavānuvāca :
prajahāti yadā kāmān-
sarvānpārtha manogatān |
ātmanyevātmanā tuṣṭaḥ
sthitaprajñastadocyate ||
--
(prajahāti yadā kāmān
sarvān pārtha manogatān |
ātmani-eva-ātmanā tuṣṭaḥ
sthitaprajñaḥ tadā ucyate ||)
--
Meaning :
O partha (arjuna) ! When one is able to free oneself from all desires of all kinds that mind conjures up, and is content with the Self only, then he is said to be of the steady mind.
--
vihāya kāmānyaḥ sarvān-
pumāṃścarati niḥspṛhaḥ |
nirmamo nirahaṅkāraḥ
sa śāntimadhigacchati ||
--
(vihāya kāmān yaḥ sarvān
pumān carati niḥspṛhaḥ |
nirmamaḥ nirahaṅkāraḥ
saḥ śāntim adhigacchati ||)
--
Meaning :
One who has forsaken all desire, and lives peacefully contented thus, having no attachment nor ego, abides ever in bliss supreme.
--
Chapter 3, śloka 41,
tasmāttvamindriyāṇyādau
niyamya bharatarṣabha |
pāpmānaṃ prajahi hyenaṃ
jñānavijñānanāśanam ||
--
(tasmāt tvam indriyāṇi ādau
niyamya bharatarṣabha |
pāpmānam prajahi hi enam
jñānavijñānanāśanam ||)
--
Meaning :
Therefore O bharatarṣabha (arjuna) ! having controlled / regulated the senses and mind, first of all, destroy this sinful enemy (this desire, this anger)
--
Chapter 3, śloka 43,
evaṃ buddheḥ paraṃ buddhvā
saṃstabhyātmānamātmanā |
jahi śatruṃ mahābāho
kāmarūpaṃ durāsadam ||
--
(evam buddheḥ param buddhvā
saṃstabhya ātmānam ātmanā |
jahi śatrum mahābāho
kāmarūpam durāsadam ||)
--
Meaning :
(as is said in the earlier śloka 42, 'what is beyond intellect, is The Self', ...)
By means of fixing the attention steady in The Self, staying firmly in Self, Know for certain The Self (Intelligence) that is beyond intellect, and in this manner, O arjuna! kill the formidable enemy, the desire,
--
Chapter 11, śloka 34,
--
droṇaṃ ca bhīṣmaṃ ca jayadrathaṃ ca
karṇaṃ tathānyānapi yodhavīrān |
mayā hatāṃstvaṃ jahi mā vyathiṣṭhā
yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān ||
--
(droṇam ca bhīṣmam ca jayadratham ca
karṇam tathā anyān api yodhavīrān |
mayā hatān tvam jahi mā vyathiṣṭhāḥ
yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān ||)
--
Meaning :
droṇa, bhīṣma, jayadratha, and karṇa, and all other such great warriors have been killed by me already. Therefore, don't fear and hesitate, Fight and kill them. You shall conquer these enemies.
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संस्कृत भाषा में ’हा’ धातु का प्रयोग प्रधानतः ’त्यागने’ / ’छोड़ने’ और गौणतः ’नष्ट करने’ / ’मारने’ के अर्थ में पाया जाता है ।
’हा’ जुहोत्यादि गण में परस्मैपदी धातु का स्थान रखती है ।
इससे व्युत्पन्न कुछ मुख्य शब्द इस प्रकार से हैं :
जहाति - त्यागता है, छोड़ता है, - अध्याय 2, श्लोक 50,
प्रजहाति - त्यागता है, छोड़ता है,
जहि - छोड़ो, नष्ट करो, मिटाओ, दूर करो, मार डालो, - अध्याय 3, श्लोक 43, अध्याय 11, श्लोक 34,
प्रजहि, - छोड़ो, नष्ट करो, मिटाओ, दूर करो, मार डालो, - अध्याय 3, श्लोक 41,
हास्यति - छोड़ देगा, प्रहास्यति,
हास्यसि - तुम छोड़ दोगे, प्रहास्यसि,
जहातु - (वह) छोड़ दे, त्याग दे, उसके द्वारा छोड़ दिया जाना चाहिए, उसने त्याग देना चाहिए,
हीयते - जिसे त्याग दिया जाना चाहिये,
हेयः - तिरस्कृत्य, अस्वीकार्य,
हीनः - से रहित, विना, के बिना,
जहत् - त्यागता हुआ, त्यागते हुए, (शानच् प्रत्यय),
अजहत् - न त्यागता हुआ,
हित्वा - छोड़कर, त्यागकर, - अध्याय 2, श्लोक 33,
विहाय - छोड़कर, त्यागकर, - अध्याय 2, श्लोक 22, अध्याय 2, श्लोक 71 -
हापयति - छुड़ाता है,
जिहासति - छोड़ने की इच्छा रखता है,
--
’विहाय’ / ’vihāya’ - छोड़कर, त्यागकर,
अध्याय 2, श्लोक 22,
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वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
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(वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरः अपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही ॥)
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भावार्थ :
जैसे पुराने वस्त्रों को त्यागकर मनुष्य दूसरे (नये) वस्त्रों को धारण कर लेता है, उसी प्रकार देही (देह से संयुक्त चेतन-सत्ता, जीव) भी (क्रमशः अनेक जन्मों से गुजरते हुए) विभिन्न शरीरों को त्यागता और अन्य दूसरे शरीरों को धारण / ग्रहण किया करता है ।
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अध्याय 2, श्लोक 33, ’हित्वा’ - नाश करते हुए,
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
--
(अथ चेत् त्वम् इमम् धर्मम् संग्रामम् न करिष्यसि ।
ततः स्वधमर्म् कीर्तिम् च हित्वा पापम् अवाप्स्यसि ॥)
--
भावार्थ :
अतः (हे अर्जुन!) यदि तू इस धर्मसम्मत संग्राम को नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति की भी हानि कर पाप का भागी होगा।
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’जहाति’ / ’jahāti’- छोड़ देता है, से मुक्त हो जाता है,
अध्याय 2, श्लोक 50, ’जहाति’ - छोड़ देता है, से मुक्त हो जाता है,
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
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(बुद्धियुक्तः जहाति इह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्मात्-योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।)
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भावार्थ :
समबुद्धि रखनेवाला मनुष्य शुभ तथा अशुभ, दोनों ही प्रकार के कर्मों को इसी लोक में (जीवित रहते हुए ही) भली प्रकार से त्याग देता है (-कर्मसंन्यास), इसलिए (समत्वबुद्धि के माध्यम से योगरत हो जाओ, क्योंकि योग का तात्पर्य है कर्म करने के कौशल में कुशल हो जाना ।
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अध्याय 2, श्लोक 55, ’प्रजहाति’ - त्याग देता है,
श्रीभगवानुवाच :
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
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(प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् ।
आत्मनि-एव-आत्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञः तदा उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
हे अर्जुन! जब कोई मनुष्य मन में उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओं को (उनकी निस्सारता जान लेने के बाद) अनायास त्याग देता है तथा (आत्मा को जानकर तथा उसमें ही अवस्थित रहते हुए) आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।
--
अध्याय 2, श्लोक 71 - ’विहाय’ - त्याग कर, त्यागने से,
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
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(विहाय कामान् यः सर्वान् पुमान् चरति निःस्पृहः ।
निर्ममः निरहङ्कारः सः शान्तिम् अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
और, जो पुरुष कामनाओं को त्यागकर, ममत्व से रहित, अहंकार से रहित, स्पृहा (अर्थात् ईर्ष्या / लालसा) से भी रहित हुआ आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है ।
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अध्याय 3, श्लोक 41, - ’प्रजहि’ - नष्ट कर दो, मिटा दो, समाप्त कर दो,
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥
--
(तस्मात् त्वम् इन्द्रियाणि आदौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानम् प्रजहि हि एनम् ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥)
--
भावार्थ :
अतएव हे भरतर्षभ (अर्जुन)! पहले तुम इन्द्रियों आदि को संयमित रखते हुए ज्ञान तथा विज्ञान का नाश करनेवाले इस पापी (काम-क्रोध) को समाप्त करो, मिटा डालो ।
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अध्याय 3, श्लोक 43, - ’जहि’ - (कामरूपी शत्रु को) मार डालो,
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥
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(एवम् बुद्धेः परम् बुद्ध्वा संस्तभ्य आत्मानम् आत्मना ।
जहि शत्रुम् महाबाहो कामरूपम् दुरासदम् ॥)
--
भावार्थ :
(जैसा पिछले श्लोक में कहा गया है, ’वह तत्व जो बुद्धि से भी परे है, आत्मतत्व है,’ इसलिए,) हे महाबाहु अर्जुन! बुद्धि से परे के उस तत्व को ठीक से निश्चयपूर्वक जान-समझकर, आत्मा (शुद्ध और सूक्ष्म बुद्धि) को ही आत्मा में दृढता से सुस्थिर रखते हुए, कामनारूपी दुष्ट कुटिल शत्रु को मार डालो ।
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अध्याय 11, श्लोक 34, - ’जहि’ - मारो, वध करो, यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने जिस सन्दर्भ में अर्जुन को शत्रु को मारने का निर्देश दिया है वह आश्चर्यजनक है । श्रीकृष्ण भलीभाँति जानते हैं कि अर्जुन अपने स्वजनों को कैसे मार सकता है? वह अत्यन्त व्यथित है, वे उससे कहते हैं कि तुम व्यथित मत होओ क्योंकि वे पहले ही से मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं ।
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द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥
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(द्रोणम् च भीष्मम् च जयद्रथम् च
कर्णम् तथा अन्यान् अपि योधवीरान् ।
मया हतान् त्वम् जहि मा व्यथिष्ठाः
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥)
--
भावार्थ :
द्रोण, भीष्म, जयद्रथ,, कर्ण और दूसरे भी ऐसे महायोद्धा मेरे द्वारा पहले से ही मारे जा चुके हैं, तुम इसलिए (निमित्तमात्र बनते हुए) मार डालो, उनसे भयभीत होकर व्यथित मत होओ । तुम युद्ध में अवश्य ही जीतोगे, और शत्रुओं को परास्त करोगे ।
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भावार्थ :
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’विहाय’ / ’vihāya’ -leaving, giving-up, putting aside,
Chapter 2, shloka 22,
vāsāṃsi jīrṇāni yathā vihāya
navāni gṛhṇāti naro:'parāṇi |
tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇā-
nyanyāni saṃyāti navāni dehī ||
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(vāsāṃsi jīrṇāni yathā vihāya
navāni gṛhṇāti naraḥ aparāṇi |
tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇāni
anyāni saṃyāti navāni dehī ||)
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Meaning :
As a person puts off old, worn-out cloths and puts on the other new ones, so also the consciousness (self) associated with the physical form (body) discards the old worn-out bodies and takes on newer bodies.
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Chapter 2, śloka 33,
atha cettvamimaṃ dharmyaṃ
saṃgrāmaṃ na kariṣyasi |
tataḥ svadharmaṃ kīrtiṃ ca
hitvā pāpamavāpsyasi ||
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(atha cet tvam imam dharmam
saṃgrām na kariṣyasi |
tataḥ svadharmam kīrtim ca
hitvā pāpam avāpsyasi ||)
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Meaning :
Arjuna !If you say you will not take part in this righteous war, you will lose not only the reputation and status on the worldly level, but also incur sin.
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’जहाति’ / ’jahāti’ - is freed from, renounces,
Chapter 2, śloka 50,
buddhiyukto jahātīha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmādyogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam ||
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(buddhiyuktaḥ jahāti iha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmāt-yogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam |)
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Meaning :
One, who has attained Wisdom, is Wise, renounces the noble and ignoble both kinds of actions (by understanding the fact and refusing to accept the notion ; 'I do' / 'I don't do', - he is aware that actions / incidences, happen on their own.)
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Chapter 2, śloka 55,
śrībhagavānuvāca :
prajahāti yadā kāmān-
sarvānpārtha manogatān |
ātmanyevātmanā tuṣṭaḥ
sthitaprajñastadocyate ||
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(prajahāti yadā kāmān
sarvān pārtha manogatān |
ātmani-eva-ātmanā tuṣṭaḥ
sthitaprajñaḥ tadā ucyate ||)
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Meaning :
O partha (arjuna) ! When one is able to free oneself from all desires of all kinds that mind conjures up, and is content with the Self only, then he is said to be of the steady mind.
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vihāya kāmānyaḥ sarvān-
pumāṃścarati niḥspṛhaḥ |
nirmamo nirahaṅkāraḥ
sa śāntimadhigacchati ||
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(vihāya kāmān yaḥ sarvān
pumān carati niḥspṛhaḥ |
nirmamaḥ nirahaṅkāraḥ
saḥ śāntim adhigacchati ||)
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Meaning :
One who has forsaken all desire, and lives peacefully contented thus, having no attachment nor ego, abides ever in bliss supreme.
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Chapter 3, śloka 41,
tasmāttvamindriyāṇyādau
niyamya bharatarṣabha |
pāpmānaṃ prajahi hyenaṃ
jñānavijñānanāśanam ||
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(tasmāt tvam indriyāṇi ādau
niyamya bharatarṣabha |
pāpmānam prajahi hi enam
jñānavijñānanāśanam ||)
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Meaning :
Therefore O bharatarṣabha (arjuna) ! having controlled / regulated the senses and mind, first of all, destroy this sinful enemy (this desire, this anger)
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Chapter 3, śloka 43,
evaṃ buddheḥ paraṃ buddhvā
saṃstabhyātmānamātmanā |
jahi śatruṃ mahābāho
kāmarūpaṃ durāsadam ||
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(evam buddheḥ param buddhvā
saṃstabhya ātmānam ātmanā |
jahi śatrum mahābāho
kāmarūpam durāsadam ||)
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Meaning :
(as is said in the earlier śloka 42, 'what is beyond intellect, is The Self', ...)
By means of fixing the attention steady in The Self, staying firmly in Self, Know for certain The Self (Intelligence) that is beyond intellect, and in this manner, O arjuna! kill the formidable enemy, the desire,
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Chapter 11, śloka 34,
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droṇaṃ ca bhīṣmaṃ ca jayadrathaṃ ca
karṇaṃ tathānyānapi yodhavīrān |
mayā hatāṃstvaṃ jahi mā vyathiṣṭhā
yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān ||
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(droṇam ca bhīṣmam ca jayadratham ca
karṇam tathā anyān api yodhavīrān |
mayā hatān tvam jahi mā vyathiṣṭhāḥ
yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān ||)
--
Meaning :
droṇa, bhīṣma, jayadratha, and karṇa, and all other such great warriors have been killed by me already. Therefore, don't fear and hesitate, Fight and kill them. You shall conquer these enemies.
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