आज का श्लोक,
’विमुक्तः’ / ’vimuktaḥ’
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’विमुक्तः’ / ’vimuktaḥ’ - जिसे मुक्ति प्राप्त हुई,
अध्याय 9, श्लोक 28,
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
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(शुभ-अशुभफलैः एवम् मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तः माम् उपैष्यसि ॥)
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भावार्थ : इस प्रकार, सन्न्यासयोग से संपन्न तुम शुभ एवं अशुभरूप सारे कर्मों तथा उनके फलों रूपी बन्धनों से छूटकर मुझको ही प्राप्त हो जाओगे ।
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अध्याय 14, श्लोक 20,
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥
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(गुणान् एतान् अतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान् ।
जन्म-मृत्यु-जरा-दुःखैः विमुक्तः अमृतम् अश्नुते ॥)
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भावार्थ :
(प्रकृति के सत्व, रज तथा तम) इन तीनों गुणों से निर्मित इस देह का स्वामी (शुद्ध चेतनता) इनसे छूटकर, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था (और व्याधि / रोग) जैसे समस्त दुःखों से छुटकारा पाकर शाश्वत सत्ता को पा लेता है ।
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टिप्पणी :
वह जीव-चेतना जो शरीर पर अपना स्वामित्व अनुभव करती है, मन-मस्तिष्क पर पड़नेवाला शुद्ध चैतन्यरूपी प्रकाश मात्र होती है, और प्रकृति-प्रदत्त शरीर का उस प्रकाश से संयोग ही बुद्धि में अहं-रूपी विशिष्ट व्यक्ति होने का भ्रम उत्पन्न करता है ।
जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया था, जब द्रष्टा (अर्थात् वह चेतना जो व्यक्तित्व तथा परब्रह्म का समान उभयनिष्ठ तत्व है) यह देख लेता है कि उपरोक्त तीन गुणों से भिन्न कोई कर्ता नहीं होता, तब यह यथार्थ स्पष्ट हो जाता है ।
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’विमुक्तः’ / ’vimuktaḥ’
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’विमुक्तः’ / ’vimuktaḥ’ - जिसे मुक्ति प्राप्त हुई,
अध्याय 9, श्लोक 28,
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
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(शुभ-अशुभफलैः एवम् मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तः माम् उपैष्यसि ॥)
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भावार्थ : इस प्रकार, सन्न्यासयोग से संपन्न तुम शुभ एवं अशुभरूप सारे कर्मों तथा उनके फलों रूपी बन्धनों से छूटकर मुझको ही प्राप्त हो जाओगे ।
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अध्याय 14, श्लोक 20,
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥
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(गुणान् एतान् अतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान् ।
जन्म-मृत्यु-जरा-दुःखैः विमुक्तः अमृतम् अश्नुते ॥)
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भावार्थ :
(प्रकृति के सत्व, रज तथा तम) इन तीनों गुणों से निर्मित इस देह का स्वामी (शुद्ध चेतनता) इनसे छूटकर, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था (और व्याधि / रोग) जैसे समस्त दुःखों से छुटकारा पाकर शाश्वत सत्ता को पा लेता है ।
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टिप्पणी :
वह जीव-चेतना जो शरीर पर अपना स्वामित्व अनुभव करती है, मन-मस्तिष्क पर पड़नेवाला शुद्ध चैतन्यरूपी प्रकाश मात्र होती है, और प्रकृति-प्रदत्त शरीर का उस प्रकाश से संयोग ही बुद्धि में अहं-रूपी विशिष्ट व्यक्ति होने का भ्रम उत्पन्न करता है ।
जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया था, जब द्रष्टा (अर्थात् वह चेतना जो व्यक्तित्व तथा परब्रह्म का समान उभयनिष्ठ तत्व है) यह देख लेता है कि उपरोक्त तीन गुणों से भिन्न कोई कर्ता नहीं होता, तब यह यथार्थ स्पष्ट हो जाता है ।
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अध्याय 16, श्लोक 22,
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥
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(एतैः विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैः त्रिभिः नरः ।
आचरति आत्मनः श्रेयः ततः याति पराम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
(गत श्लोक 21, में काम, क्रोध तथा लोभ को नरक के तीन द्वार कहा गया, इसी क्रम में आगे, ...)
हे कौन्तेय (अर्जुन)! नरक की ओर जानेवाले इन तीन द्वारों से मुक्त और अपनी आत्मा के कल्याण की दिशा में अग्रसर करनेवाला आचरण जिसका होता है, वह अवश्य ही परम गति को प्राप्त होता है ।
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’विमुक्तः’ / ’vimuktaḥ’ - liberated, freed,
Chapter 9, śloka 28,
śubhāśubhaphalairevaṃ
mokṣyase karmabandhanaiḥ |
sannyāsayogayuktātmā
vimukto māmupaiṣyasi ||
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(śubha-aśubhaphalaiḥ evam
mokṣyase karmabandhanaiḥ |
sannyāsayogayuktātmā
vimuktaḥ mām upaiṣyasi ||)
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Meaning :
In this way having dedicated all your actions to ME, by this sannyāsa-yoga, you will become free from all your good and evil actions and their fruits also, and attain ME only.
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Chapter 14, śloka 20,
guṇānetānatītya trīndehī
dehasamudbhavān |
janmamṛtyujarāduḥkhair-
vimukto:'mṛtamaśnute ||
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(guṇān etān atītya trīn
dehī dehasamudbhavān |
janma-mṛtyu-jarā-duḥkhaiḥ
vimuktaḥ amṛtam aśnute ||)
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Meaning :
Having transcended these 3 attributes (guṇa-s) of manifestation / phenomenon / prakṛti, that bring about this physical existence in the form of the body and its world, the individual consciousness is freed from the miseries like the birth, death, old-age, and diseases, and gets immense peace and bliss time-less and eternal.
Note:
In the last śloka 19 we saw, knowing the fact that except these 3 attributes (guṇa-s) of manifestation / phenomenon / prakṛti, there is no such an entity that could be termed as the agent (kartā) for happening of a karma / bringing out an action (karma) / result, one stands aloof as the pure consciousness, as the only witness of this phenomena, and at once realizes the witness aspect of this consciousness, that is common to the individual soul and the Consciousness in totality (Brahman).
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Chapter 16, śloka 22,
etairvimuktaḥ kaunteya
tamodvāraistribhirnaraḥ |
ācaratyātmanaḥ śreyas
tato yāti parāṃ gatim ||
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(etaiḥ vimuktaḥ kaunteya
tamodvāraiḥ tribhiḥ naraḥ |
ācarati ātmanaḥ śreyaḥ
tataḥ yāti parām gatim ||)
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Meaning :
[In the preceding śloka 21, lust / kāma, anger / krodha and greed / lobha have been termed as the three gateways that lead to hell...]
O kaunteya (arjuna)! One who has freed himself from the clutches of these three gates that lead to hell, and makes effort for the ultimate good (śreyas) of the Self, follows the way to The Supreme.
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