Wednesday, August 13, 2014

आज का श्लोक, ’विश्वेश्वर’ / ’viśveśvara’

आज का श्लोक,
’विश्वेश्वर’ / ’viśveśvara’
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’विश्वेश्वर’ / ’viśveśvara’ - संपूर्ण जगत् के स्वामी,

अध्याय 11, श्लोक 16,

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥
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(अनेकबाहु-उदरवक्त्रनेत्रम्
पश्यामि त्वाम् सर्वतः अनन्तरूपम् ।
न अन्तम् न मध्यम् न पुनः तव आदिम्
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥)
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भावार्थ :
अनेक भुजाओं पेट एवं नेत्रों से युक्त आपको सब ओर मैं अनंत रूपों में देख रहा हूँ । किन्तु न तो आपकी सीमा को, न मध्य को और न ही आरंभ को हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप! मैं देख पा रहा हूँ ।
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’विश्वेश्वर’ / ’viśveśvara’ -  the Lord of the Whole world,

Chapter 11, śloka 16,

anekabāhūdaravaktranetraṃ
paśyāmi tvāṃ sarvato:'nantarūpam |
nāntaṃ na madhyaṃ na punastavādiṃ 
paśyāmi viśveśvara viśvarūpa ||
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(anekabāhu-udaravaktranetram 
paśyāmi tvām sarvataḥ anantarūpam |
na antam na madhyam na punaḥ tava ādim 
paśyāmi viśveśvara viśvarūpa ||)
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Meaning :
I see You every-where with your so many arms, so many bellies, and so many eyes. And again, I don't see either your Beginning, Middle or End, O viśveśvara! (The only Lord of the Whole world!) O viśvarūpam (The One with the Whole world as one of your infinite faces)! 
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