आज का श्लोक, ’विषम्’ / ’viṣam’
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’विषम्’ / ’viṣam’ - अरुचिप्रद, कठिन, कटु,
अध्याय 18, श्लोक 37,
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।
--
यत् तत् अग्रे विषम् इव परिणामे अमृतोपमम् ।
तत् सुखम् सात्त्विकम् प्रोक्तम् आत्मबुद्धिप्रसादजम् ॥
--
(पिछले श्लोक में वर्णित,) जो यह सुख है,जो अभ्यासकाल में यद्यपि विषवत् (अरुचिप्रद) प्रतीत होता हो, किन्तु परिणाम में वस्तुतः अमृततुल्य होता है, उस परमात्म-विषयक बुद्धि के प्रसाद
से उत्पन्न होनेवाले सुख को सात्त्विक कहा गया है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 38,
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥)
--
(विषय-इन्द्रिय-संयोगात्-यत्-तत्-अग्रे-अमृतोपमम् ।
परिणामे विषम्-इव तत् सुखम् राजसम् मतम् ॥)
--
भावार्थ :
जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है और प्रारम्भ में अमृतोपम (प्रतीत) होता है, किन्तु परिणाम में विष-तुल्य सिद्ध होता है, उसको राजस-सुख कहा गया है ।
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’विषम्’ / ’viṣam’ - difficult, unpleasant,
Chapter 18, śloka 37,
yattadagre viṣamiva
pariṇāme:'mṛtopamam |
tatsukhaṃ sāttvikaṃ proktam-
ātmabuddhiprasādajam |
--
yat tat agre viṣam iva
pariṇāme amṛtopamam |
tat sukham sāttvikam proktam
ātmabuddhiprasādajam ||
--
Meaning :
A happiness that may though appear like poison in the beginning and results as sweet as nectar in the end, and is the joy that which has the wisdom of Self-reazation as its source, is of the sāttvika kind.
--
Chapter 18, śloka 38,
viṣayendriyasaṃyogād-
yattadagre:'mṛtopamam |
pariṇāme viṣamiva
tatsukhaṃ rājasaṃ smṛtam ||)
--
(viṣaya-indriya-saṃyogāt-
yat-tat-agre-amṛtopamam |
pariṇāme viṣam-iva tat
sukham rājasam matam ||)
--
Meaning :
(And the happiness of the second kind is,) That is caused because of the contact between the objects with their specific senses of enjoyments, and though appears like nectar in the begining, proves like a poison in the end. Such happiness is known as ’rājasam’ (or owing to the passion-aspect of prakṛti).
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’विषम्’ / ’viṣam’ - अरुचिप्रद, कठिन, कटु,
अध्याय 18, श्लोक 37,
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।
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यत् तत् अग्रे विषम् इव परिणामे अमृतोपमम् ।
तत् सुखम् सात्त्विकम् प्रोक्तम् आत्मबुद्धिप्रसादजम् ॥
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(पिछले श्लोक में वर्णित,) जो यह सुख है,जो अभ्यासकाल में यद्यपि विषवत् (अरुचिप्रद) प्रतीत होता हो, किन्तु परिणाम में वस्तुतः अमृततुल्य होता है, उस परमात्म-विषयक बुद्धि के प्रसाद
से उत्पन्न होनेवाले सुख को सात्त्विक कहा गया है ।
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अध्याय 18, श्लोक 38,
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥)
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(विषय-इन्द्रिय-संयोगात्-यत्-तत्-अग्रे-अमृतोपमम् ।
परिणामे विषम्-इव तत् सुखम् राजसम् मतम् ॥)
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भावार्थ :
जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है और प्रारम्भ में अमृतोपम (प्रतीत) होता है, किन्तु परिणाम में विष-तुल्य सिद्ध होता है, उसको राजस-सुख कहा गया है ।
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Chapter 18, śloka 37,
yattadagre viṣamiva
pariṇāme:'mṛtopamam |
tatsukhaṃ sāttvikaṃ proktam-
ātmabuddhiprasādajam |
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yat tat agre viṣam iva
pariṇāme amṛtopamam |
tat sukham sāttvikam proktam
ātmabuddhiprasādajam ||
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Meaning :
A happiness that may though appear like poison in the beginning and results as sweet as nectar in the end, and is the joy that which has the wisdom of Self-reazation as its source, is of the sāttvika kind.
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Chapter 18, śloka 38,
viṣayendriyasaṃyogād-
yattadagre:'mṛtopamam |
pariṇāme viṣamiva
tatsukhaṃ rājasaṃ smṛtam ||)
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(viṣaya-indriya-saṃyogāt-
yat-tat-agre-amṛtopamam |
pariṇāme viṣam-iva tat
sukham rājasam matam ||)
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Meaning :
(And the happiness of the second kind is,) That is caused because of the contact between the objects with their specific senses of enjoyments, and though appears like nectar in the begining, proves like a poison in the end. Such happiness is known as ’rājasam’ (or owing to the passion-aspect of prakṛti).
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