आज का श्लोक,
’विषयेन्द्रियसंयोगात् ’ / ’viṣayendriyasaṃyogāt’
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’विषयेन्द्रियसंयोगात् ’ / ’viṣayendriyasaṃyogāt’ - विषय का इन्द्रिय से सम्पर्क होने से,
अध्याय 18, श्लोक 38,
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥)
--
(विषय-इन्द्रिय-संयोगात्-यत्-तत्-अग्रे-अमृतोपमम् ।
परिणामे विषम्-इव तत् सुखम् राजसम् मतम् ॥)
--
भावार्थ :
जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है और प्रारम्भ में अमृतोपम (प्रतीत) होता है, किन्तु परिणाम में विष-तुल्य सिद्ध होता है, उसको राजस-सुख कहा गया है ।
--
’विषयेन्द्रियसंयोगात् ’ / ’viṣayendriyasaṃyogāt’ - because of the contact between the objects (of senses) and the respective senses,
Chapter 18, śloka 38,
viṣayendriyasaṃyogād-
yattadagre:'mṛtopamam |
pariṇāme viṣamiva
tatsukhaṃ rājasaṃ smṛtam ||)
--
(viṣaya-indriya-saṃyogāt-
yat-tat-agre-amṛtopamam |
pariṇāme viṣam-iva tat
sukham rājasam matam ||)
--
Meaning :
(And the happiness of the second kind is,) That is caused because of the contact between the objects with their specific senses of enjoyments, and though appears like nectar in the begining, proves like a poison in the end. Such happiness is known as ’rājasam’ (or owing to the passion-aspect of prakṛti).
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’विषयेन्द्रियसंयोगात् ’ / ’viṣayendriyasaṃyogāt’
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’विषयेन्द्रियसंयोगात् ’ / ’viṣayendriyasaṃyogāt’ - विषय का इन्द्रिय से सम्पर्क होने से,
अध्याय 18, श्लोक 38,
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥)
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(विषय-इन्द्रिय-संयोगात्-यत्-तत्-अग्रे-अमृतोपमम् ।
परिणामे विषम्-इव तत् सुखम् राजसम् मतम् ॥)
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भावार्थ :
जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है और प्रारम्भ में अमृतोपम (प्रतीत) होता है, किन्तु परिणाम में विष-तुल्य सिद्ध होता है, उसको राजस-सुख कहा गया है ।
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’विषयेन्द्रियसंयोगात् ’ / ’viṣayendriyasaṃyogāt’ - because of the contact between the objects (of senses) and the respective senses,
Chapter 18, śloka 38,
viṣayendriyasaṃyogād-
yattadagre:'mṛtopamam |
pariṇāme viṣamiva
tatsukhaṃ rājasaṃ smṛtam ||)
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(viṣaya-indriya-saṃyogāt-
yat-tat-agre-amṛtopamam |
pariṇāme viṣam-iva tat
sukham rājasam matam ||)
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Meaning :
(And the happiness of the second kind is,) That is caused because of the contact between the objects with their specific senses of enjoyments, and though appears like nectar in the begining, proves like a poison in the end. Such happiness is known as ’rājasam’ (or owing to the passion-aspect of prakṛti).
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