आज का श्लोक,
’विषयप्रवालाः’ / ’viṣayapravālāḥ’
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’विषयप्रवालाः’ / ’viṣayapravālāḥ’ - इन्द्रियों के विषयों-रूपी कोंपलें,
अध्याय 15, श्लोक 2,
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥
--
(अधः च ऊर्ध्वम् प्रसृताः तस्य शाखाः
गुणप्रवृद्धाः विषयप्रवालाः ।
अधः च मूलानि अनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥)
--
भावार्थ :
अध्याय 15 के प्रस्तुत श्लोक 2 में उसी अश्वत्थ-वृक्ष का आगे और वर्णन है, जिसका परिचय श्लोक 1 में दिया गया । उस (अश्वत्थ-वृक्ष) की शाखाओं का प्रसार ऊपर-नीचे दोनों ओर है, उन शाखाओं में (प्रकृति के) तीन गुणों (सत्व, रजस् तथा तमस्) से उत्पन्न तथा प्रवृद्धित होनेवाली विषयोंरूपी कोंपलें हैं । जबकि उस (अश्वत्थ-वृक्ष) की जडें जो नीचे की दिशा में भी फैल रही हैं, उनसे उत्पन्न हो रही दूसरी और जडों से मिलकर मनुष्य-लोक में मनुष्यों को कर्म के अनुसार कर्मफलों से बाँधनेवाली होती हैं ।
--
टिप्पणी :
यह अश्वत्थ है मनुष्य का मन, जिसका आगमन चेतना से होता है और जो पुनः पुनः चेतना में ही लौट जाता है । मन और संसार दोनों अन्योन्याश्रित हैं और एक के अभाव (अनुपस्थिति) में दूसरा नहीं पाया जाता । इस मन अथवा संसार का उद्भव, क्रिया-कलाप, अस्तित्व और लय जिसमें होता है वह चेतना एक स्व-प्रमाणित स्वतःसिद्ध सत्ता है, जिसका आश्रय ही मन-बुद्धि, अहंता तथा भावनाओं, कल्पनाओं को प्रेरित करता है और उसमें परस्पर भिन्न परस्पर सापेक्ष असंख्य अहंताएँ (जीव-सत्ताएँ) और उनके वैयक्तिक स्वतन्त्र विश्व अभिव्यक्त (प्रकट) और अनभिव्यक्त (विलीन) होते हैं, और प्रत्येक जीव-सत्ता को ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व है जो इस सर्वनिष्ठ, जगत् में अपने जैसी असंख्य जीव-सत्ताओं जैसी किन्तु उनसे भिन्न एक विशिष्ट सत्ता है । किन्तु वह कभी अपनी ऐसी प्रतीति की वैधता पर प्रश्न नहीं उठाता ।
यहाँ संक्षेप में इसी जीव-सत्ता या अहंता को, मन या संसार को अश्वत्थ कहा गया है । इसके ही मूल (अर्थात् अनादि अज्ञान) को अगले श्लोक 3 में असंगशस्त्र से काटने की शिक्षा दी गई है ।
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’विषयप्रवालाः’ / ’viṣayapravālāḥ’ - the offshoots,
Chapter 15, śloka 2,
adhaścordhvaṃ prasṛtāstasya śākhā
guṇapravṛddhā viṣayapravālā |
adhaśca mūlānyanusantatāni
karmānubandhīni manuṣyaloke ||
--
(adhaḥ ca ūrdhvam prasṛtāḥ tasya śākhāḥ
guṇapravṛddhāḥ viṣayapravālāḥ |
adhaḥ ca mūlāni anusantatāni
karmānubandhīni manuṣyaloke ||)
--
Meaning :
The aśvattha-tree, as mentioned in the very first śloka 1, of this Chapter 15 of śrīmadbhagvadgītā; without giving more hints or clues about what exactly this aśvattha-tree may be the symbol of. Verily, it is taken to be the 'world' and its contents. This aśvattha-tree has branches and twigs spreading over upwards, as well as downwards (literally, in all directions) also. These branches that are nurtured and bred-up by the support of the three attribute (3 guṇa-s, namely sattva, rajas and tamas) have further secondary sprigs / offshoots that grow and follow the so many roots of the tree. Extending downwards, in this world of man, these roots again bind one-another through 'karma' / The Cosmic Law.
--
Note :
This aśvattha-tree is the mind of man. This mind that emerges from consciousness keeps functioning in and by the support of consciousness, hides and covers up its own cause and source - this very consciousness itself. The mind and the world though the same one fact, we tend to distinguish beteen the two. It may be pointed out noted that one does not exist in the absense of the other. So they are only 2 faces of the same coin. The consciousness that is the support of both them stays unaffected by their activity. This consciousness is though impersonal, the working of the physical body, the mind-intellect, ego and various modes (vṛtti-s) of mind cause the mind believing in having one's own independent existence apart from such innumerable other body-minds. Memory of 'oneself' thus gives rise to the idea of an 'individual-existence' that was born and shall die too, which is but the (beginning of) ignorance. This ignorance is the root / root-cause of sorrow and bondage, and in the next śloka 3 of this chapter, we are suggested to cut asunder this root with the help of the weapon of detachment (asaṃgaśastreṇa) .
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’विषयप्रवालाः’ / ’viṣayapravālāḥ’
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’विषयप्रवालाः’ / ’viṣayapravālāḥ’ - इन्द्रियों के विषयों-रूपी कोंपलें,
अध्याय 15, श्लोक 2,
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥
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(अधः च ऊर्ध्वम् प्रसृताः तस्य शाखाः
गुणप्रवृद्धाः विषयप्रवालाः ।
अधः च मूलानि अनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥)
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भावार्थ :
अध्याय 15 के प्रस्तुत श्लोक 2 में उसी अश्वत्थ-वृक्ष का आगे और वर्णन है, जिसका परिचय श्लोक 1 में दिया गया । उस (अश्वत्थ-वृक्ष) की शाखाओं का प्रसार ऊपर-नीचे दोनों ओर है, उन शाखाओं में (प्रकृति के) तीन गुणों (सत्व, रजस् तथा तमस्) से उत्पन्न तथा प्रवृद्धित होनेवाली विषयोंरूपी कोंपलें हैं । जबकि उस (अश्वत्थ-वृक्ष) की जडें जो नीचे की दिशा में भी फैल रही हैं, उनसे उत्पन्न हो रही दूसरी और जडों से मिलकर मनुष्य-लोक में मनुष्यों को कर्म के अनुसार कर्मफलों से बाँधनेवाली होती हैं ।
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टिप्पणी :
यह अश्वत्थ है मनुष्य का मन, जिसका आगमन चेतना से होता है और जो पुनः पुनः चेतना में ही लौट जाता है । मन और संसार दोनों अन्योन्याश्रित हैं और एक के अभाव (अनुपस्थिति) में दूसरा नहीं पाया जाता । इस मन अथवा संसार का उद्भव, क्रिया-कलाप, अस्तित्व और लय जिसमें होता है वह चेतना एक स्व-प्रमाणित स्वतःसिद्ध सत्ता है, जिसका आश्रय ही मन-बुद्धि, अहंता तथा भावनाओं, कल्पनाओं को प्रेरित करता है और उसमें परस्पर भिन्न परस्पर सापेक्ष असंख्य अहंताएँ (जीव-सत्ताएँ) और उनके वैयक्तिक स्वतन्त्र विश्व अभिव्यक्त (प्रकट) और अनभिव्यक्त (विलीन) होते हैं, और प्रत्येक जीव-सत्ता को ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व है जो इस सर्वनिष्ठ, जगत् में अपने जैसी असंख्य जीव-सत्ताओं जैसी किन्तु उनसे भिन्न एक विशिष्ट सत्ता है । किन्तु वह कभी अपनी ऐसी प्रतीति की वैधता पर प्रश्न नहीं उठाता ।
यहाँ संक्षेप में इसी जीव-सत्ता या अहंता को, मन या संसार को अश्वत्थ कहा गया है । इसके ही मूल (अर्थात् अनादि अज्ञान) को अगले श्लोक 3 में असंगशस्त्र से काटने की शिक्षा दी गई है ।
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’विषयप्रवालाः’ / ’viṣayapravālāḥ’ - the offshoots,
Chapter 15, śloka 2,
adhaścordhvaṃ prasṛtāstasya śākhā
guṇapravṛddhā viṣayapravālā |
adhaśca mūlānyanusantatāni
karmānubandhīni manuṣyaloke ||
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(adhaḥ ca ūrdhvam prasṛtāḥ tasya śākhāḥ
guṇapravṛddhāḥ viṣayapravālāḥ |
adhaḥ ca mūlāni anusantatāni
karmānubandhīni manuṣyaloke ||)
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Meaning :
The aśvattha-tree, as mentioned in the very first śloka 1, of this Chapter 15 of śrīmadbhagvadgītā; without giving more hints or clues about what exactly this aśvattha-tree may be the symbol of. Verily, it is taken to be the 'world' and its contents. This aśvattha-tree has branches and twigs spreading over upwards, as well as downwards (literally, in all directions) also. These branches that are nurtured and bred-up by the support of the three attribute (3 guṇa-s, namely sattva, rajas and tamas) have further secondary sprigs / offshoots that grow and follow the so many roots of the tree. Extending downwards, in this world of man, these roots again bind one-another through 'karma' / The Cosmic Law.
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Note :
This aśvattha-tree is the mind of man. This mind that emerges from consciousness keeps functioning in and by the support of consciousness, hides and covers up its own cause and source - this very consciousness itself. The mind and the world though the same one fact, we tend to distinguish beteen the two. It may be pointed out noted that one does not exist in the absense of the other. So they are only 2 faces of the same coin. The consciousness that is the support of both them stays unaffected by their activity. This consciousness is though impersonal, the working of the physical body, the mind-intellect, ego and various modes (vṛtti-s) of mind cause the mind believing in having one's own independent existence apart from such innumerable other body-minds. Memory of 'oneself' thus gives rise to the idea of an 'individual-existence' that was born and shall die too, which is but the (beginning of) ignorance. This ignorance is the root / root-cause of sorrow and bondage, and in the next śloka 3 of this chapter, we are suggested to cut asunder this root with the help of the weapon of detachment (asaṃgaśastreṇa) .
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