Tuesday, August 12, 2014

आज का श्लोक, ’विषयान्’ / ’viṣayān’

आज का श्लोक, ’विषयान्’ / ’viṣayān’
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’विषयान्’ / ’viṣayān’ - विषयों को,

अध्याय 2, श्लोक 62,

ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
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(ध्यायतः विषयान् पुन्सः सङ्गः तेषु उपजायते ।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते ॥
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भावार्थ :
जब मनुष्य (का मन) विषयों का चिन्तन करता है तो उसके मन में उन विषयों से आसक्ति (राग या द्वेष की बुद्धि) पैदा होती है, उस आसक्ति के फलस्वरूप उन विषयों से संबंधित विशिष्ट कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं । और कामनाओं से क्रोध का उद्भव होता है ।  
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अध्याय 2, श्लोक 64,

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥
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(रागद्वेषवियुक्तैः तु विषयान् इन्द्रियैः चरन् ।
आत्मवश्यैः विधेयात्मा प्रसादम् अधिगच्छति ।)
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भावार्थ :
किन्तु (पिछले दो श्लोकों के अनुक्रम में) अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करनेवाले मनुष्य का ऐसा मन प्रसन्नता को प्राप्त होता है ।
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अध्याय 4, श्लोक 26,

श्रोत्रादीनिन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥
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(श्रोत्रादीनि-इन्द्रियाणि-अन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्द-आदीन्-विषयान्-अन्ये इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥)
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भावार्थ :
यज्ञ और हवन का व्यापक अर्थ प्रस्तुत अध्याय 4 के श्लोक 24  में कहा गया है । और श्लोक 32, 33 में भी यज्ञ के तात्पर्य और महिमा का संक्षेप में पुनः वर्णन है । यज्ञ के ही दो रूप ये हैं जिसमें कुछ तो श्रोत्र आदि इन्द्रियों का हवन संयम रूपी अग्नि में  करते हैं, जिसका तात्पर्य है इन्द्रियों को भोग की प्रवृत्ति से हटाकर त्याग की दिशा में प्रवृत्त रखना । जबकि कुछ दूसरे इसी प्रकार, शब्द, स्पर्श आदि पञ्च-तन्मात्राओं का हवन इन्द्रिय-रूपी अग्नि में करते हैं, जिसका तात्पर्य है इन्द्रियों को उन विषयों में न जाने देकर उन विषयों को ही इन्द्रियों में लीन कर देना ।
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अध्याय 15, श्लोक 9,
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श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥
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(श्रोत्रम् चक्षुः स्पर्शम् च रसनम् घ्राणम् एव च ।
अधिष्ठाय मनः च अयम् विषयान् उपसेवते ॥)
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भावार्थ :
श्रोत्र (कान), चक्षु (नेत्र) त्वचा, जिह्वा तथा नासा और मन के माध्यम से ही यह (जीवात्मा) विषयों का उपभोग करता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 51,

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयान्स्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥
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(बुद्ध्या विशुद्धया युक्तः धृत्या आत्मानम् नियम्य च ।
शब्दादीन् विषयान् त्यक्त्वा रगद्वेषौ व्युदस्य च ॥)
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भावार्थ :
शुद्ध हुई बुद्धि से युक्त, ध्यान (धृति) को अपने स्वरूप अर्थात् आत्म-तत्व (शुद्ध चैतन्य मात्र) में स्थिर रखते हुए, शब्द आदि विषयों को त्यागकर (अर्थात् उन्हें मन में स्थान न देते हुए) राग तथा द्वेष को  जड से उखाडकर सर्वथा नष्ट कर देनेवाले का, ... 
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’विषयान्’ / ’viṣayān’ - to objects,

Chapter 2, śloka 62,

dhyāyato viṣayānpunsaḥ 
saṅgasteṣūpajāyate |
saṅgātsañjāyate kāmaḥ 
kāmātkrodho:'bhijāyate |
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(dhyāyataḥ viṣayān punsaḥ 
saṅgaḥ teṣu upajāyate |
saṅgāt sañjāyate kāmaḥ 
kāmāt krodhaḥ abhijāyate ||
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Meaning :
When one thinks of the objects (of desires), this causes attachment with them, from the attachment comes the desire for those objects and there-from the anger.  
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Chapter 2, śloka 64,

rāgadveṣaviyuktaistu 
viṣayānindriyaiścaran |
ātmavaśyairvidheyātmā 
prasādamadhigacchati ||
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(rāgadveṣaviyuktaiḥ tu 
viṣayān indriyaiḥ caran |
ātmavaśyaiḥ vidheyātmā 
prasādam adhigacchati |)
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Meaning :
In comparison (as described in the earlier 2 śloka-s 62 and 63) the man whose senses are under control and free from attachment and aversion to the pleasures or pains of the sense-experiences, even may go through those experiences but attains happiness. 
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Chapter 4, śloka 26,

śrotrādīnindriyāṇyanye 
saṃyamāgniṣu juhvati |
śabdādīnviṣayānanya 
indriyāgniṣu juhvati ||
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(śrotrādīni-indriyāṇi-anye 
saṃyamāgniṣu juhvati |
śabda-ādīn-viṣayān-anye
indriyāgniṣu juhvati ||)
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Meaning :
The form nature, deeper meaning and significance of  yajña / havana has been elaborated in the  śloka 24 onward of this Chapter. 
Few perform this yajña / havana through the sacrifice of sense-organs into the fire of restraint, while others through the sacrifice of the 5 kinds of sensory-perceptions (tanmātrā), into the fire of senses.
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Chapter 15, śloka 9,

śrotraṃ cakṣuḥ sparśanaṃ ca
rasanaṃ ghrāṇameva ca |
adhiṣṭhāya manaścāyaṃ 
viṣayānupasevate ||
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(śrotram cakṣuḥ sparśam ca 
rasanam ghrāṇam eva ca |
adhiṣṭhāya manaḥ ca ayam 
viṣayān upasevate ||)

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Meaning :
This 'self', -the personified consciousness, by means of the sense-organs such as ears, eyes, touch, tongue, nose, and mind, perceives, savors, appreciates the  form and nature, color and taste, flavor and smell of various objects.
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Chapter 18, śloka 51,

buddhyā viśuddhayā yukto 
dhṛtyātmānaṃ niyamya ca |
śabdādīnviṣayānstyaktvā 
rāgadveṣau vyudasya ca ||
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(buddhyā viśuddhayā yuktaḥ 
dhṛtyā ātmānam niyamya ca |
śabdādīn viṣayān tyaktvā 
ragadveṣau vyudasya ca ||)
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Meaning :
Through the intellect that is purified, attention that is focused on the (one's own and very) Self, renouncing (ignoring the perception of) 5 sense-objects, namely sound, sight, taste, touch and smell, and mind made free of attachment and jealousy.       
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