'कर्म' का अर्थ है अस्तित्व / संसार की गतिविधि ।
संक्षेप में 'कर्म' के होने में 'प्रेरक' तीन तत्व हैं 'ज्ञान', 'ज्ञेय' तथा ज्ञाता' ।
दूसरी ओर, कर्म का अधिष्ठान, जिसमें कर्म अवस्थित होता है वह करण भी तीन रूपों में होता है ।
अर्थात साधन / यन्त्र, 'कर्म' / उद्देश्य, और उसे 'करनेवाला' - कर्ता ।
गीता अध्याय १८/ श्लोक १८ के अनुसार :
"ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥"
कर्म वास्तव में किसी घटना का मन के द्वारा किया गया शब्दीकरण भर होता है । उस घटना के होने में ये छः तत्व 'कारक' होते हैं । गीता अध्याय १८ श्लोक १४ के अनुसार,
"अधिष्ठानं च कर्ता करणं च पृथग्विधं ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमं॥"
में इन्हीं कारकों के बारे में स्पष्ट किया गया है । मन में विचार उठता है कि किसी कार्य को करनेवाला कोई स्वतन्त्र तत्व है, और उस स्वतन्त्र तत्व 'कर्ता' के रूप में कर्तृत्व-भावना को स्वयं से जोडकर अपने को कर्ता मान लिया जाता है । इसे ही 'संकल्प' कहते हैं । जब मनुष्य जान लेता है कि ऐसा कोई 'मैं' कहीं नहीं है, जो कर्मों को करता हो, तो भी कर्म की गतिविधि समाप्त नहीं हो जाती, देह और मन, बुद्धि और प्राण तब भी गतिशील रहते हैं, लेकिन तब उनमें अपनी न तो रुचि होती है, न अरुचि, इसलिए वे अपने 'धर्म' के अनुसार जारी रहते हैं । या, बस सिर्फ़ रुक जाते हैं । जैसे सायकिल का पैडल चलाना बन्द कर देने पर भी सायकल कुछ दूरी तक चलती रह सकती है, फ़िर रुक जाती है । इसलिए समस्त कर्मों में 'कर्ता' की क्या स्थिति / वास्तविकता है, इसे जान लेना ही कर्म मात्र से मुक्ति है ।
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संक्षेप में 'कर्म' के होने में 'प्रेरक' तीन तत्व हैं 'ज्ञान', 'ज्ञेय' तथा ज्ञाता' ।
दूसरी ओर, कर्म का अधिष्ठान, जिसमें कर्म अवस्थित होता है वह करण भी तीन रूपों में होता है ।
अर्थात साधन / यन्त्र, 'कर्म' / उद्देश्य, और उसे 'करनेवाला' - कर्ता ।
गीता अध्याय १८/ श्लोक १८ के अनुसार :
"ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥"
कर्म वास्तव में किसी घटना का मन के द्वारा किया गया शब्दीकरण भर होता है । उस घटना के होने में ये छः तत्व 'कारक' होते हैं । गीता अध्याय १८ श्लोक १४ के अनुसार,
"अधिष्ठानं च कर्ता करणं च पृथग्विधं ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमं॥"
में इन्हीं कारकों के बारे में स्पष्ट किया गया है । मन में विचार उठता है कि किसी कार्य को करनेवाला कोई स्वतन्त्र तत्व है, और उस स्वतन्त्र तत्व 'कर्ता' के रूप में कर्तृत्व-भावना को स्वयं से जोडकर अपने को कर्ता मान लिया जाता है । इसे ही 'संकल्प' कहते हैं । जब मनुष्य जान लेता है कि ऐसा कोई 'मैं' कहीं नहीं है, जो कर्मों को करता हो, तो भी कर्म की गतिविधि समाप्त नहीं हो जाती, देह और मन, बुद्धि और प्राण तब भी गतिशील रहते हैं, लेकिन तब उनमें अपनी न तो रुचि होती है, न अरुचि, इसलिए वे अपने 'धर्म' के अनुसार जारी रहते हैं । या, बस सिर्फ़ रुक जाते हैं । जैसे सायकिल का पैडल चलाना बन्द कर देने पर भी सायकल कुछ दूरी तक चलती रह सकती है, फ़िर रुक जाती है । इसलिए समस्त कर्मों में 'कर्ता' की क्या स्थिति / वास्तविकता है, इसे जान लेना ही कर्म मात्र से मुक्ति है ।
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