Monday, April 26, 2021

योग : अनिर्विण्णचेतसा

अध्याय 6, श्लोक 23 इस प्रकार से है :

तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्। 

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।।

शाङ्करभाष्य में इसे इस तरह कहा गया है --

तं विद्यात् -- विजानीयात्, 

दुःखसंयोगवियोगं -- दुःखैः संयोगो दुःखसंयोगवियोगः -- तेन वियोगः दुःखसंयोगवियोगः, 

तं दुःखसंयोगवियोगं -- योग,

इति एव सञ्ज्ञितं विपरीतलक्षणेन,

विद्यात् -- विजानीयात्,

इति अर्थः ।

उस योग नामक अवस्था को, 'दुःखों के संयोग' का वियोग समझना चाहिए। अभिप्राय यह हुआ कि दुःखों से संयोग होना 'दुःखसंयोग' है, उससे वियोग हो जाना 'दुःखों के संयोग का वियोग' है,  उस 'दुःख-संयोग-वियोग' को 'योग' ऐसे विपरीत नाम से कहा हुआ समझना चाहिए।

योगफलम् उपसंहृत्य पुनः अन्वारम्भेण योग्य कर्तव्यता उच्यते, निश्चयानिर्वेदयोः योगसाधनत्वविधानार्थम्। 

योग-फल का उपसंहार करके अब दृढ़ निश्चय को और योग-विषयक रुचि को भी योग का साधन बताने के लिए पुनः योग की कर्तव्यता बताये जाती है --

स -- यथोक्तफलो योगो,

निश्चयेन -- अध्यवसायेन,

योक्तव्यः अनिर्विण्णचेतसा। 

वह उपर्युक्त फलवाला योग बिना उकताए हुए चित्त से निश्चय-पूर्वक करना चाहिए। 

न निर्विण्णम् -- अनिर्विण्णं,

किं तत् चेतः?

तेन निर्वेदरहितेन चेतसा -- चित्तेन इत्यर्थ ।

जिस चित्त में निर्विण्णता (उद्वेग) न हो वह अनिर्विण्णचित्त है,  ऐसे अनिर्विण्ण (न उकताये हुए) चित्त से निश्चयपूर्वक योग का साधन करना चाहिए, यह अभिप्राय है। 

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