Wednesday, August 17, 2022

।।भगवच्चरित्रम्।।

।।श्रीराधामाधवरहस्य।। 

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गीता, भागवत् और भगवान्

अस्ति, भाति, प्रीति

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एक दृष्टिकोण से सत्य के तीन परिप्रेक्ष्य भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक हैं, तो दूसरी दृष्टि से अस्ति भाति और प्रीति हैं।

एक ही भगवान् इन तीनों रूपों से व्यक्त और अव्यक्त है। 

उस सत्य का वर्णन भी इसलिए तीन शैलियों में पाया जाता है। 

एक है यथावत् -- जैसा कि वह है, जैसा उसका दर्शन होता है, और जिसे गेयरूप में श्रीमद्भगवद्गीता कहा जाता है।

दूसरा है रूपकात्मक -- जैसा कि वह प्रतीत होता है, और जिसे कथा अर्थात् पुराण के रूप में श्रीमद्भाग्वत महापुराण में पाया जाता है। 

तीसरा रसात्मक -- जैसा कि वह उसके क्रियाकलाप में है, प्रतीत होता है और अनुभव किया जाता है। 

वह जो है -- अस्ति वह न तो प्रतीत होता है, न उसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के माध्यम से देखा जा सकता है और न वह किसी क्रियाकलाप या कर्म में रत है। 

सर्वनाम की दृष्टि से इसी त्रयी को पुनः अहं, इदं तथा तत् इन पदों से जाना जाता है। 

एक अन्य आधार है माधव, माया और जगत्।

- अंग्रेजी भाषा में कहें तो :

Essence, Substance और  Presence तो, 

जैसा कि अध्याय ३ में कहा गया है  :

लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।। 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

तथा, अध्याय ५ में पुनः इसकी पुष्टि भी की गई है :

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

पुनः अध्याय ७ में यह कहा गया है :

दैवी एषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।। 

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।७।।

उपरोक्त श्लोक में भी इसे तीन प्रकारों से इंगित किया गया है :

'अहं' पद का द्वितीया एक-वचन रूप 'माम्',

'इदं' पद का स्त्रीलिंग प्रथमा एक-वचन रूप 'एषा' तथा द्वितीया एक-वचन रूप 'मायां' और 'एतां' ।

इसी प्रकार से 'तत्' पद, सर्वनाम बहु-वचन प्रथमा विभक्ति 'ते'।

ऋषि भगवान की उपासना 'अहं' पद के अनुसंधान की सहायता से, साङ्ख्य के माध्यम से करते हैं, मुनि या भक्त उसी तत्त्व का ध्यान 'त्वं' या 'तत्' - ईश्वर पद की भक्ति के द्वारा, जबकि योगी कर्म और अभ्यास के माध्यम से उसी भगवान को जानने अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं।

माधव और उद्धव

उस तत्त्व को जो कि माया का स्वामी है, माधव कहा जाता है, क्योंकि माया उसी से प्रेरित होकर अपने / उसके समस्त कार्य करती है। वस्तुतः न तो कोई कर्ता है, न कार्य और चूँकि समस्त कर्म भी केवल अवधारणा ही है, उनमें से किसी का भी स्वतंत्र अस्तित्व संभव नहीं है, और क्योंकि इसलिए कर्ता, कार्य, और कर्म तीनों की ही स्वतंत्र सत्यता भी संदिग्ध है।

किन्तु जैसे ही त्रिगुणात्मिका माया के कार्य को सत्यता दी जाती है, उसे सत्यता देनेवाला 'कोई' होता है, जो इस त्रिगुणात्मिका माया के वशीभूत होता है और जिसे मनुष्य 'मैं' शब्द देता है। वह 'मैं' कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व इन चार रूपों में स्वतंत्र प्रतीत होता है। इस प्रकार वह स्वयंभू 'मैं' नित्य ही माया से उत्पन्न और उससे ही प्रेरित होकर आभासी रूप में विद्यमान प्रतीत होता है।  किसे?  - बुद्धि को और बुद्धि में। पुनः यह बुद्धि भी स्वयं अपना प्रमाण नहीं हो सकती, क्योंकि वह आभासी रूप इसे 'मेरा' कहकर स्वयं को इसका स्वामी मान्य करता है। 

इस प्रकार वह ज्ञातृत्व जो बुद्धि के रूप में क्षण-प्रतिक्षण प्रकट और विलुप्त होता है, भोक्तृत्व, कर्तृत्व तथा स्वामित्व का ही एक रूप है और यही अपने शुद्ध रूप में चिदाभास मात्र है।

जो माया का स्वामी है, वह तो माधव है, जबकि इस माया और अपने स्वामी होने की कल्पना से भी जो ऊपर उठ चुका है, वह उद्धव है।

माया का ही विस्तार से वर्णन रूपकात्मक शैली में पुराणों आदि में किया जाता है और उनमें वर्णित विषयों की सत्यता का कोई स्वतंत्र प्रमाण दिया जाना संभव नहीं है।

श्रीमद्भाग्वत् महापुराण भी अन्य पुराणों जैसा ही एक पुराण है। 

अब यदि श्रीमद्भगवद्गीता पर विचार करें तो इसमें परम श्रेयस् अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए दो ही उपायों अर्थात् निष्ठाओं का उल्लेख किया गया है और स्पष्ट किया गया है कि चूँकि इन दोनों ही निष्ठाओं का फल एक ही है, इसलिए जो जिस प्रकार की निष्ठा से युक्त होता है, वह उससे प्रेरित होकर तदनुसार इसी फल को प्राप्त कर सकता है।

वे दोनों उपाय इस प्रकार से हैं : 

ज्ञाननिष्ठा के रूप में साङ्ख्य दर्शन की रीति से आत्मानुसन्धान करना, अथवा निष्काम कर्मयोग का अनुष्ठान करते हुए समस्त कर्मों और फलों को ईश्वरार्पित कर देना।

√राध् -आराधायति से बना राधा शब्द आराधना और उपासना का द्योतक है। इस प्रकार भगवान के प्रति पूर्ण अव्यभिचारी समर्पण ही भक्ति है। 

श्रीमद्भाग्वत इसी शैली का ग्रन्थ है और इसमें राधा और माधव के, अर्थात् भक्त और भगवान के परस्पर प्रेम अर्थात् प्रीति के रहस्य का उद्घाटन किया गया है। और चूँकि यह भगवद्-तत्त्व रसात्मक है; -- रसो वै सः, इसलिए प्रवृत्तिमार्ग की साधना करने वालों के लिए बहुत अनुकूल है।

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Friday, August 5, 2022

RUMI / Are You Am I ??

Chapter 4,

Stanza : 16, 17, 18 .

This is not a comment about RUMI, 

This just occurred to me how it relates! 

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