सत्य, ईश्वर और सम्प्रदाय
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उस व्यक्ति का संबंध किसी उस तथाकथित धार्मिक संगठन / सम्प्रदाय से था, जिसका प्रचार प्रसार वह कर रहा था। उसकी दृष्टि या उसे दी गई शिक्षा के अनुसार उसका रिलीजन / मजहब ही एकमात्र और सच्चा विश्वास था। उसके सम्प्रदाय के विश्वास से इतर और सभी विश्वास न सिर्फ असत्य बल्कि पाप तक थे। वह अपने इस मत पर कट्टरता की हद तक दृढ था और इसलिए आवश्यकता पड़ने पर वह सहिष्णुता, प्रेम, सर्वधर्म-समभाव, ईश्वर आदि का उल्लेख भी करता था लेकिन इन सब शब्दों से जो आशय वह ग्रहण करता था, उसके अतिरिक्त कोई अन्य मतावलंबी उससे शायद ही सहमत हो सकता था। परंपरा की दृष्टि से उसका मित्र भी यद्यपि उसी सम्प्रदाय से संबंधित होते हुए भी उसके विचारों का प्रबल और प्रखर विरोधी था। फिर भी दोनों किसी अज्ञात कारण से परस्पर गहरे मित्र थे। इसकी एक वजह शायद यह भी रही होगी कि दोनों का एक दूसरे से बहुत प्रेम था और प्रत्येक ही दूसरे को अपने मत का अनुयायी बनाने के लिए अत्यन्त अधिक उत्सुक था। दोनों ही आशा की इस डोर से परस्पर बँधे थे।
किसी के अनुरोध पर जब वे मुझसे पहली बार मिले थे तो उन्हें लगा था कि मैं उनकी कोई सहायता कर सकूँगा जिससे उनके बीच की परस्पर अविश्वास और संशय की दीवार ढह जाएगी। वे दोनों मेरे ड्रॉइंग रूम में बैठे थे।
बहुत देर तक बहुत गर्मजोशी से अपने अपने विचारों और तर्क वितर्क से दूसरे को प्रभावित करने की चेष्टा करते रहे। और मैं शान्तिपूर्वक उनकी चर्चा / बहस सुनता रहा।
अंततः दोनों थककर चुप हो गए।
"क्या आप हममें से किसी से भी सहमत न होंगे?"
-वह बोला।
उसका मित्र उदासीन भाव से मुझे देख रहा था।
"आवश्यक नहीं कि मेरा मत आप दोनों में से किसी के भी पक्ष या विपक्ष में हो! हो सकता है कि इस विषय में मेरा कोई मत ही न हो!"
"ऐसा कैसे हो सकता है? जैसा हमें लगता है, माना कि शायद आप वेदान्त या हिन्दू विचारों के अनुयायी हों, नास्तिक हों, या आस्तिक, एकेश्वरवाद के समर्थक या विरोधी हों, फिर भी कहीं न कहीं हममें से किसी एक के पक्ष में तो होंगे ही!"
शाम की रौशनी खिड़की से विदा हो चुकी थी। अंधेरा होने लगा था और मेरे स्विच ऑन करते ही ड्रॉइंग रूम में लैम्पशेड में टँगा एकमात्र लैम्प जल उठा।
उस प्रकाश में एक दूसरे की आवाजें तो अवश्य ही हम सुन रहे थे, किन्तु एक दूसरे के चेहरों की सिर्फ प्रोफ़ाइल ही हमें दिखाई दे रही थी।
"आप दोनों ने पर्याप्त श्रमपूर्वक इस विषय में खोजबीन की है। शायद मुझसे बहुत अधिक भी।"
- मैं बोला।
"तो भी आप अभी तक किसी नतीजे तक नहीं पहुँच सके!"
उसने कुछ उपहास-मिश्रित आश्चर्य से कहा।
"सभी निष्कर्ष बौद्धिक और बुद्धि की सीमा में ही होते हैं । बुद्धि भी केवल शाब्दिक या वैचारिक ही नहीं होती। सभी प्राणियों में इतनी बुद्धि तो होती ही है कि वे अपनी भूख प्यास भोजन आदि के बारे में निश्चयपूर्वक जानते और समझते ही हैं। फिर भी बुद्धि के उस प्रकार से शायद ही परिचित होते होंगे, जिसका प्रयोग हर पढ़ा-लिखा मनुष्य आदतन किया करता है। और हर मनुष्य ही विचार और बुद्धि के भेद को भी जानता है। फिर "विश्वास" क्या है, "मत" क्या है? क्या यह पूरी तरह स्मृति पर अवलंबित और स्मृति का ही एक प्रकारमात्र नहीं होता? क्या स्मृति सत्य का विकल्प हो सकती है? क्या सत्य को स्मृति में संचित किया जा सकता है? क्या विचार, मत और इसी तरह से "विश्वास" का अस्तित्व भी स्मृति पर ही आश्रित नहीं है? विचार, बुद्धि और विश्वास के अभाव में आपका अभाव हो जाता है? स्पष्ट है कि समस्त वैचारिक और बौद्धिक जानकारी भाषा पर आश्रित होती है, जिसे बाहर से प्राप्त किया जाता है। इसलिए कोई भी मत या विचार अधूरा और अपर्याप्त भी होता है, जो सत्य का विकल्प कभी नहीं हो सकता।"
"तो सत्य का साक्षात्कार कैसे किया जाता है?"
"जैसा कि कहा गया, विचार, बुद्धि, मत या विश्वास अज्ञान के ही पर्याय हैं और सत्य का साक्षात्कार करने के लिए अपर्याप्त और अधूरे होते हैं। सत्य का साक्षात्कार न होना और सत्य क्या है, इसे न जानना ही अज्ञान है। किन्तु यह समझना सरल ही है कि इस सतत परिवर्तनशील संसार की अवस्थिति जिस नित्य अधिष्ठान में है, वही सत्य, नित्य, अविकारी और अपरिवर्तित वास्तविकता है। और फिर भी इसे समझने के लिए के लिए न तो विचार, न बुद्धि, न मत और न ही किसी विश्वास का सहारा लेना आवश्यक है। इसी प्रतीति को श्रद्धा कहा जाता है। चूँकि सत्य न तो विषयात्मक (object) है, न ही विषयी चेतना / subjective consciousness / चेतन ही है, अस्तित्व का केवल सहज भान है जिसमें विषय, विषयी, विचार और बुद्धि, विश्वास और मत इत्यादि क्षण क्षण प्रकट और विलुप्त होते रहते हैं, इसलिए विषय और विषयी, विचार और बुद्धि, तथा विश्वास और मत इत्यादि से अभिभूत 'मन' के लिए सत्य का साक्षात्कार हो पाना असंभव है। इसे ही निम्न श्लोक से समझा जा सकता है :
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।
(अध्याय ४)
और फिर भी सत्य के इस साक्षात्कार के लिए किसी को न तो शिक्षा या उपदेश दिया जा सकता है, न वाद-विवाद, तर्क-वितर्क ही किया जा सकता है। क्योंकि समस्त वाद-विवाद तर्क-वितर्क और बहस वे ही करते हैं जो सत्य को नहीं जानते, जो कि अज्ञ हैं, जिन्हें सत्य के अस्तित्व पर श्रद्धा तक नहीं है, और इससे भी अधिक, जिन्हें सत्य के अस्तित्व पर ही संशय है । वे ईश्वर के अस्तित्व पर भी इसलिए संशय प्रकट करते हैं जबकि सत्य ही एकमात्र ईश्वर है।"
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