माम् / मां
9/22
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
18/55
भक्त्या मां अभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।
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उपरोक्त दोनों श्लोक इस अर्थ में अद्भुत् हैं कि दोनों में "मां" पद को उत्तम पुरुष एकवचन द्वितीया या अन्य पुरुष एकवचन द्वितीया के रूप में आत्मा / परमात्मा, दोनों के ही संबंध में भिन्न भिन्न प्रकार से ग्रहण किया जा सकता है। इससे उनकी महिमा में रंचमात्र भी कमी नहीं होती।
आधाराधेय-संबंध
राधा का उल्लेख श्रीमद्भागवद्महापुराण में है या नहीं इस विवाद की उपेक्षा कर यदि राधा पद का तात्पर्य आधाराधेय-संबंध की विववेचना से समझने का यत्न किया जाए तो संभवतः इसे
आधार-आधेय-संबंध
आ-धा-राधेय
के रूप में ग्रहण किया जा सकता है जहाँ राधा और श्रीकृष्ण एक दूसरे से वैसे ही अनन्य हैं जैसा कि ऊपर अध्याय ९ से उद्धृत श्लोक २२ से विदित होता है।
वैसे भी राध् - आ उपसर्ग पूर्वक - आराधनम्, उपासना के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जब आराधना में त्रुटि होती है तो उसे अपराध कहा जाता है।
राधा-तत्व के स्वरूप का साक्षात्कार केवल नाम-जप से भी संभव है और, श्रीकृष्ण तत्व का ही पर्याय है। राधा नामक मानव-रूपी किसी स्त्री-विशेष तक उसे सीमित नहीं किया जा सकता है। राधा विशुद्ध भक्ति है न कि रूखा सूखा बौद्धिक चिन्तन।
यह खेदजनक है कि कुछ यशस्वी और परम वैष्णव सन्त तथा भक्त भी इस विषय में पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर दूसरों को भी भ्रमित कर रहे हैं जिसका सर्वथा अनुचित लाभ लेते हुए कुछ दुष्ट और विधर्मी मतावलंबी सनातन धर्म का उपहास करते हुए सनातन धर्म को अपूरणीय क्षति पहुंचाने में संलग्न हैं।
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