Thursday, August 28, 2025

9/22, 18/55.

माम् / मां

9/22

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

18/55

भक्त्या मां अभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।

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उपरोक्त दोनों श्लोक इस अर्थ में अद्भुत् हैं कि दोनों में "मां" पद को उत्तम पुरुष एकवचन द्वितीया या अन्य पुरुष एकवचन द्वितीया के रूप में आत्मा / परमात्मा, दोनों के ही संबंध में भिन्न भिन्न प्रकार से ग्रहण किया जा सकता है। इससे उनकी महिमा में रंचमात्र भी कमी नहीं होती। 

आधाराधेय-संबंध

राधा का उल्लेख श्रीमद्भागवद्महापुराण में है या नहीं इस विवाद की उपेक्षा कर यदि राधा पद का तात्पर्य आधाराधेय-संबंध की विववेचना से समझने का यत्न किया जाए तो संभवतः इसे 

आधार-आधेय-संबंध

आ-धा-राधेय 

के रूप में ग्रहण किया जा सकता है जहाँ राधा और श्रीकृष्ण एक दूसरे से वैसे ही अनन्य हैं जैसा कि ऊपर अध्याय ९ से उद्धृत श्लोक २२ से विदित होता है।

वैसे भी राध् - आ उपसर्ग पूर्वक - आराधनम्, उपासना के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जब आराधना में त्रुटि होती है तो उसे अपराध कहा जाता है।

राधा-तत्व के स्वरूप का साक्षात्कार केवल नाम-जप से भी संभव है और, श्रीकृष्ण तत्व का ही पर्याय है। राधा नामक मानव-रूपी किसी स्त्री-विशेष तक उसे सीमित नहीं किया जा सकता है। राधा विशुद्ध भक्ति है न कि रूखा सूखा बौद्धिक चिन्तन। 

यह खेदजनक है कि कुछ यशस्वी और परम वैष्णव सन्त तथा भक्त भी इस विषय में पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर दूसरों को भी भ्रमित कर रहे हैं जिसका सर्वथा अनुचित लाभ लेते हुए कुछ दुष्ट और विधर्मी मतावलंबी सनातन धर्म का उपहास करते हुए सनातन धर्म को अपूरणीय क्षति पहुंचाने में संलग्न हैं।

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Saturday, August 23, 2025

16/23, 5/26, 6/31, 3/21

वर्तते

16/23

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। 

न सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।२३।।

(अध्याय १६, Chapter 16, verse 23)

5/26

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।२६।।

(अध्याय ५, Chapter 5, verse 26)

6/31

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।३१।।

(अध्याय ६, Chapter 6, verse 31)

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अपने स्वाध्याय के समय यह प्रश्न प्रायः मन में उठता रहा है कि भाषा और व्याकरण के आधार पर, उस कसौटी से शास्त्र के तात्पर्य को ग्रहण किया जाना उचित है, या कि जैसे मातृभाषा अनायास ही सीख ली जाती है और फिर उस ज्ञान के आधार पर प्राप्त हुए संस्कार के आधार पर, उस कसौटी पर शास्त्र का पाठ करते हुए भाषा और उस  भाषा के व्याकरण की सिद्धि करते हुए शास्त्र के तात्पर्य का अनुशीलन किया जाना उचित है?

दूसरे शब्दों में,

जैसे मातृभाषा अनायास ही सीखी जाती है, क्या शास्त्र की भाषा को भी अनायास ही, व्याकरण की सहायता लिए बिना ही सीखा जाना अधिक उचित नहीं है?

व्याकरण का प्रयोजन केवल इतना है कि उससे भाषा के, और शास्त्र के अभीष्ट तात्पर्य का संप्रेषण यथासंभव त्रुटिरहित हो।

इससे यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि आगम या आगमन की प्राप्ति दो युक्तियों से की जा सकती है -

व्याकरण की सहायता लिए बिना सीधे ही, विवेक और विवेचना के माध्यम और आधार से, या फिर व्याकरण की सहायता से शास्त्र-वचनों में प्रयुक्त शब्दों के स्थानीय महत्व (कर्ता / संबोधन, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध तथा अधिष्ठान को, -- समास और संधि, उपसर्ग, सुबन्त तथा तिङ्गन्त आदि को ध्यान में रखकर आगम   को आधार के रूप में उस प्रमाण की तरह ग्रहण किया जाए जिसे पातञ्जल योगसूत्र, समाधिपाद में -

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

सूत्रों में वृत्ति के एक प्रकार-विशेष की तरह इंगित किया गया है?

प्रमाण क्या है इसे गीता के अध्याय ३ के श्लोक २१ के आधार पर भी देखा जा सकता है -

यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनाः। 

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।२१।।

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