Tuesday, January 18, 2022

In First Person.

पुरुषोत्तम योग 

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(पुरुषसूक्त नामक यह स्तवन - ऋग्वेद् -मण्डल १० वें के सूक्त ९०, शुक्ल यजुर्वेद -अध्याय ३१ / १-१६, तथा अथर्ववेद -१९ वें काण्ड के छठे सूक्त, तैत्तिरीय संहिता, और तैत्तिरीय आरण्यक आदि में भी पाठान्तर सहित प्राप्त होता है। यहाँ पर गीताप्रेस, गोरखपुर के पुस्तक क्रमांक 1800, पञ्चदेव अथर्वशीर्ष संग्रह नामक ग्रन्थ से प्राप्त 'पुरुषसूक्त' से उद्धृत किया जा रहा है।)

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ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।।

स भूमिं सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ।।१।।

पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।२।।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।३।।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।।

ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनाशने अभि ।।४।।

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।।

स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ।।५।।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।।६।।

तस्मात्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।।

छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ।।७।।

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ।।८।।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।।

तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ।।९।।

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।।

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ।।१०।।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ।।११।।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ।।१२।।

नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णौ द्यौः समवर्तत ।।

पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ।।१३।।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।।

वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ।।१४।।

सप्तस्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।।

देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ।।१५।।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्या सन्ति देवाः ।।१६।।

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सन्दर्भ :

(१) मृत्युञ्जयमन्त्र :

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धि पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्यो र्मुक्षीय माऽमृतात् ।।

(२) महामृत्युञ्जयमन्त्र :

ओं हौं जूं सः ओं भूर्भुवः स्वः ओं त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्यो र्मुक्षीय मामृतात् ।। ॐ स्वः भुवः भूः ओं यः सः जूं हौं ओं ।।

कृपया उपरोक्त मन्त्रों के शुद्ध रूप की पुष्टि किसी विद्वान से अवश्य करें। क्योंकि यहाँ केवल जानकारी के उद्देश्य से इसे प्रस्तुत किया जा रहा है। 

(३) श्वेताश्वतरोपनिषद्  -- अध्याय ३,

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।।

स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ।।१४।।

(४) दशाङ्गुलम् :

नाभि ही भूमि है। नाभि से दश अङ्गुल ऊपर हृदय है। यही उस परमात्मा का निज धाम है जिसके संबंध में कहा गया है :

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।।

अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।।२०।।

(अध्याय १०)

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्चाद्राज्ये सचराचरम् ।।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्दृष्टुमिच्छसि  ।।७।।

(अध्याय ११)

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति  ।।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया  ।।६१।।

(अध्याय १८)

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Wednesday, January 12, 2022

गीता : शिक्षा का प्रयोजन

गीता : प्रयोजन की शिक्षा

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भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।।

विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।२।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।।

भक्तो मेऽसि सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।३।।

(ज्ञान-कर्म-सन्न्यास-योग, अध्याय ४)

इससे पूर्व अध्याय ३ में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म-योग की शिक्षा दी थी । इसी अध्याय के अन्तर्गत भगवान् श्रीकृष्ण ने मनुष्य में विद्यमान उस स्वाभाविक निष्ठा का वर्णन किया, जिसे साङ्ख्य-योग के सन्दर्भ में ज्ञान तथा कर्म-योग के सन्दर्भ में कर्म कहा जाता है।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ  ।।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।

और इससे भी पहले अध्याय २ में अर्जुन को साङ्ख्य-योग की शिक्षा दी थी।

इस प्रकार से, शिक्षा का प्रयोजन अपने भीतर उस मौलिक निष्ठा की पहचान कर लेना है, जिसके आधार पर अपने मार्ग को जान लिया जाता है।

किन्तु उस प्रयोजन की शिक्षा का प्राप्त हो जाना भी उतना ही महत्वपूर्ण और आवश्यक है। 

इसी ओर संकेत करते हुए अगले अध्याय ५ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।५।।

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