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अध्याय ६
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्मकारणमुच्यते।।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।३।।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।४।।
उपरोक्त रीति से हमें मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति का क्रम विदित होता है। वह इस प्रकार से है -
"कर्म, योग और ज्ञान"
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हम सब परमात्मा की सन्तान हैं।
परमात्मा अर्थात् कालरूपी उत्तम-पुरुष / पुरुषोत्तम।
वही हमारी माता और पिता, जनक और जननी, पुरुष और प्रकृति है। समस्त अस्तित्व परमात्मा से ही व्यक्त रूप में प्रकट होकर पुनः उसके ही अव्यक्त रूप में लौट जाता है।
अध्याय १८
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।
उपरोक्त सभी परमात्मा के ही अव्यक्त और व्यक्त प्रकार हैं। सभी प्रकृति / स्त्री और परमेश्वर / उत्तम पुरुष भी हैं।
किस काल में सृष्टि हुई? उस काल का अनुमान भी बुद्धि के सक्रिय होने पर ही तो किया जाना संभव है।
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये चारों वृत्तिरूप में यद्यपि एक हैं उनके कार्य व्यक्ति-विशेष में पृथक् पृथक् चेष्टाओं से अभिव्यक्त होते हैं। ये सभी प्रकृति हैं, जबकि इनसे विलक्षण स्वरूप है दैव अर्थात् "काल", - जो अधिष्ठान है।
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार तो प्रकृति हैं, "काल" ईश्वर है, जो पुनः अस्तित्व का नियामक है। यही ईश्वर पुरुष रूप में व्यक्ति विशेष है और परमेश्वर के रूप में यही दैव है। परमेश्वर पुनः अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही रूपों में मन्तव्य, ध्यातव्य और ज्ञातव्य है। परमेश्वर पुरुष के रूप में ब्रह्म और प्रकृति के रूप में अब्रह्म भी है।
अध्याय ४
अजोऽपि सन्नव्यात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय
इस प्रकार से
अध्याय ३
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।२।।
भगवान् श्रीकृष्ण परमेश्वर अर्थात् ईश्वर का अवतार हैं, जबकि अर्जुन आत्मा के रूप में हम सभी हैं जो ईश्वर और उसकी प्रकृति रूपी शक्ति से व्यक्त रूप में उत्पन्न होता है, उसमें ही वर्तमान होते हुए पुनः उसमें ही विलीन हो जाता है।
उपरोक्त श्लोक में √मुह् - मुह्यते / मोहयति के रूप में जिस धातु (verb) का प्रयोग किया गया है उसका ही अपभ्रंश है - अंग्रेजी भाषा में प्रचलित "muse", जो कि हमें प्रवित् के (Prophet) के रूप में क्रमशः
Abraham, Adam, Moses,
के रूपों में ज्ञात / प्राप्त होता है।
पुनः उपरोक्त श्लोक से अर्जुन को यह आभास हुआ कि भगवान् श्रीकृष्ण उसकी बुद्धि को मोहित कर रहे हों, अत एव अर्जुन उनसे अनुरोध करते हैंककि भगवान् श्रीकृष्ण उनसे निश्चयपूर्वक कुछ एक ऐसा कहें जिससे कि उसके लिए श्रेयस्कर हो ।
अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों ही पुरुष के ईश्वर और जीव रूपों के द्योतक हैं। दोनों ही ईश्वर भी हैं और जीव भी हैं। किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्य के रूप में अवतीर्ण हुए हैं और "काल" के रूप में व्यक्त और अव्यक्त दोनों रूपों मे उत्तम पुरुष हैं जबकि अर्जुन "काल" में प्रकट और विलीन होते हुए व्यक्ति विशेष भूतमात्र हैं -
अध्याय २
अव्यक्तादीनि भूतानि मध्यव्यक्तानि भारत।।
अव्यक्त निधनान्येव तत्र का परिदेवना।।२८।।
और अर्जुन ही नहीं, भीष्म और द्रोण आदि भी हम जैसे ही अव्यक्त से व्यक्त रूप में प्रकट और पुनः अव्यक्त हो जानेवाले "भूतमात्र" हैं।
दूसरी ओर भगवान् श्रीकृष्ण :
अध्याय ७
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।।
परं भावमजनन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।२८।।
अध्याय १०
(अर्जुन उवाच)
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।।
न ही ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।।१४।।
"कर्म, योग और ज्ञान"
अध्याय ३
न ही कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।
इस प्रकार से "भूतमात्र" क्षण भर के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता और सर्वथा अवश / बाध्य होकर, प्रकृति से प्रेरित होकर किसी, और एक ही साथ अनेक कर्मों में प्रकृति से प्रवृत्त होकर जानते या न जानते हुए भी संलग्न रहता है।
कर्म की यह प्रवृत्ति उसमें किसी ध्येय की प्राप्ति के लोभ या ध्येय को प्राप्त न कर पाने के भय से ही पैदा होती है। इसे ही इच्छा और द्वेष कहा जाता है -
अध्याय ७
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।
सामान्य पुरुष इसीलिए इच्छा और भय के वश में हुआ उसकी बुद्धि के अनुसार विभिन्न कर्मों का अनुष्ठान करने में संलग्न रहता है। किन्तु जब उसकी बुद्धि अर्थात् चित्त शुद्ध हो जाता है तब उसे संकल्पयुक्त आरुरुक्षु मुनि कहा जाता है। तब उसके लिए योग का अनुष्ठान वह कर्म है, जो उसके चित्त को शमित / शान्त कर देता है। और उसे ही तब योगारूढ कहा जाता है जब वह संकल्पमात्र का त्याग कर देता है।
अब एक रोचक प्रश्न यहाँ यह उठता है कि संकल्पमात्र का त्याग "कैसे" होता है।
सामान्य मनुष्य तो इच्छाओं और भयों के वश में होता है और उनसे ही परिचालित होकर विभिन्न कर्मों को करने के लिए बाध्य होता है। इच्छा और द्वेष ही बाध्यता से व्याकुल होने पर भी नित्य अनित्य के सतत चिन्तन के बाद बुद्धि के शुद्ध हो जाने पर उसमें विवेक उत्पन्न हो जाता है और तब उसे विषयमात्र से ही वितृष्णा हो जाती है अर्थात् उसमें वैराग्य का आविर्भाव होता है।
ऐसे ही मनुष्य को आरुरुक्षु मुनि कहा जाता है।
विवेक और वैराग्य में दृढता से सुप्रतिष्ठित हो जाने पर और उसके समस्त संकल्पों का त्याग हो जाने पर उसे ही योगारूढ कहा जाता है।
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