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श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ में "वचनं" पद का प्रयोग तीन ही स्थानों पर प्राप्त होता है। वह इस प्रकार से --
अध्याय १
सञ्जय उवाच :
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्।।२।।
अध्याय ११
सञ्जय उवाच :
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी।।नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य।।
।।३५।।
तथा,
अध्याय १८
अर्जुन उवाच :
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाऽच्युत।।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।७३।।
भीष्म तथा द्रोणाचार्य जैसे पूज्य गुरुजनों को युद्धक्षेत्र में शत्रुसेना के योद्धाओं की तरह देखते हुए अर्जुन की बुद्धि मोहित हो जाने से वह व्याकुल और विषादग्रस्त हो गए। भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा उपदेश दिए जाने पर उनकी बुद्धि में उत्पन्न और व्याप्त मोह नष्ट हो गया, और उनका क्या कर्तव्य है इस विषय में उनका सन्देह दूर हो गया।
यही इस ग्रन्थ की फलश्रुति है कि इसका अध्ययन करने वाले की बुद्धि में व्याप्त मोह नष्ट हो जाता है। उसे स्पष्ट हो जाता है कि उसका कर्तव्य क्या है। इस विषय में वह गतसन्देह हो जाता है अर्थात् उसके मन में सन्देह करने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता। उसे याद आ जाता है कि करने के लिए वह क्या है जो उसके लिए श्रेयस्कर हो, और वह ईश्वरीय प्रेरणा से ईश्वर के वचन / आदेश का पालन करने में प्रवृत्त हो जाता है।
लोभ, भय, शंका, सन्देह, अज्ञान, विस्मृति और संशय आदि सभी मोहित बुद्धि में ही उत्पन्न होते हैं। मोह के नष्ट होते ही स्मृति और बुद्धि भी शुद्ध हो जाती है।
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