श्रीमद्भगवद्गीता
4/13,
अध्याय ४,
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।
तस्यापि कर्तारं मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
6/46,
अध्याय ६,
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।४६।।
6/47,
अध्याय ६,
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतं।।४७।।
12/12,
अध्याय १२,
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।
ध्यानात्कर्मफलस्त्यागः त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।
18/47,
अध्याय १८,
श्रेयान्सस्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।४७।।
18/48
अध्याय १८,
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।४८।।
गुणकर्मविभागशः
मूढ जहीहि धनागमतृष्णा...
पूज्य आदि शङ्कराचार्य कृत चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रम् की यह पंक्ति प्रायः मुझे याद आती है। और इस ब्लॉग को पढ़नेवाले किसी धनलोलुप से कल जब एक ईमेल मुझे प्राप्त हुआ जिसे गूगल मेल ने "स्पैम" में डाल रखा था, और तुरन्त ही मैंने उसे डिलीट कर दिया था, तब भी एक बार यह पंक्ति मुझे याद आई।
गीता के द्वितीय अध्याय के एक श्लोक में अर्जुन विषाद से व्याकुल होकर जब भगवान् श्रीकृष्ण से -
"न योत्स्य" अर्थात् "न योत्स्ये" कहते हैं -
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।
और इसी प्रकार अंतिम अठारहवें अध्याय के एक श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अहङ्कार से ग्रस्त होकर तुम जो "न योत्स्य" कहते हो तो तुम्हारा वह मान्यतारूपी व्यवसाय व्यर्थ है क्योंकि प्रकृति ही तुम्हें युद्ध करने के लिए बाध्य कर देगी और तब तुम अवश्य ही युद्ध करोगे।
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।
संपूर्ण ग्रन्थ में अर्जुन न तो "मैं स्वतंत्र कर्ता हूँ" इस भ्रम से, और इसीलिए न इस भ्रम और अन्तर्द्वन्द्व से कि मुझे युद्ध करना चाहिए या नहीं करना चाहिए, और अंततः भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए "युद्धस्य कृतनिश्चयः" की आज्ञा का पालन करनेवाले युद्ध में संलग्न हो जाते हैं।
तात्पर्य यह कि जो कुछ भी शुभ या अशुभ होता है वह प्रकृति से ही पूर्वनिश्चित होता है यह समझकर प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप करने से बचते हुए प्राप्त हुए कर्तव्य में यत्नपूर्वक संलग्न होना ही एकमात्र विकल्प है।
ऊपर उद्धृत श्लोकों में प्रारब्ध और कर्तव्य के बीच की दुविधा का सामना कैसे करें इसके लिए ही मार्गदर्शन है।
मुझे प्राप्त ईमेल का सन्दर्भ इसलिए क्योंकि जैसा मैंने दूसरे भी अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है, चूँकि अपने स्वभाव से जैसा मुझे उपयुक्त प्रतीत होता है, मैं वैसा ही निष्काम कर्म करने का यत्न करता हूँ और धन अर्जित करने की आवश्यकता या धन अर्जित करने की चिन्ता मुझे छूती तक नहीं, इसलिए धनप्राप्ति करना मेरा ब्लॉग लिखने का उद्देश्य कदापि नहीं है। किन्तु उपरोक्त प्रकार का ईमेल भेजनेवालों की प्रकृति बहुत भिन्न होने से वे भी उसी अनुसार कर्म करने के लिए बाध्य हैं, और ठीक इसी तरह प्रायः गूगल, फेसबुक और दूसरे भी सभी लोग।
किसी को कुछ समझाना न तो मर्यादा के अनुसार मुझे मेरे लिए उचित प्रतीत होता है और न ही मेरी चिन्ता का विषय है।
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