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किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।
कर्मणोह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च ह्यपि बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।
महर्षि वाल्मीकि और गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने अपनी अपनी कविदृष्टि से भगवान् श्रीराम के चरित्र का वर्णन क्रमशः वाल्मीकि रामायण और श्रीरामचरितमानस में किया। दोनों ही ग्रन्थ सनातन अर्थात् धर्म की अमूल्य धरोहर हैं। दुर्भाग्य से आज के समय में पूर्वाग्रहपूर्ण और विद्वेष युक्त तथाकथित विद्वान दोनों ग्रन्थों के विषय में भिन्न भिन्न मतों के आधार पर शंकाएँ खड़ी करते रहते हैं और उन्हें न तो सनातन से और न धर्म या अध्यात्म से ही कुछ लेना देना होता है, बल्कि उनमें से कुछ तो इसी बहाने से सनातन का तिरस्कार भी करते हैं। जैसे कि इन दोनों ग्रन्थों में भगवान् श्रीराम और दूसरे पात्रों के प्रसंगों में विरोधाभास क्यों है, या कौन से तथ्यों को प्रामाणिक कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए रामायण के सातवें काण्ड के संबंध में प्रश्न उठाए जाते हैं कि क्या मूल ग्रन्थ में उत्तरकाण्ड विद्यमान था या नहीं, और क्या इसे बाद में ग्रन्थ में जोड़ दिया गया? संभवतः इन विवादों का कोई अन्त नहीं है।
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