Sunday, December 8, 2024

मयाध्यक्षेण

9/10

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।। 

हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।१०।।

(अध्याय १०)

आत्मा स्वयं ही अस्तित्वमान सत्य है, जो स्वयं ही और स्वयं से ही स्वयं को ही जानता है।

Self is the Existential Reality, Conscious of Being, Knowing It-Self through Self.

Being Conscious implies Existence, and Existence implies Being the Self.

यह अद्वैत सत्य है। आत्मा की अध्यक्षता में ही उसकी ही शक्ति / क्षमता से स्फूर्त होकर उसकी ही प्रकृति सम्पूर्ण चर और अचर जगत् को जन्म देती है, अर्थात् जगत् की सृष्टि करती है और इसीलिए यह जगत् सतत परिवर्तित होता है। परिवर्तन ही काल है और काल ही परिवर्तन है। इस प्रकार आभासी-स्थान और आभासी-काल पुनः पुनः व्यक्त और अव्यक्त होते हैं स्थूल, सूक्ष्म और कारणगत आत्मा ही तब द्रव्य और ऊर्जा का रूप ग्रहण करता है। आत्मा भी तब स्वयं ही और स्वयं से ही अनेक, असंख्य पिण्डों में जीवभाव के रूप में परस्पर पृथक् और स्वतंत्र "अहंकार" के रूप में जगत् और जगत्सापेक्ष्य चेतन के रूप में असंख्य जीवों का रूप लेता है। और इसीलिए जन्म और मृत्यु आभासी और कल्पित घटनाएँ हैं, न कि वे वस्तुतः घटित होती हैं। इसलिए जीव के परिप्रेक्ष्य में न तो जन्म और न ही मृत्यु का अस्तित्व संभव है। जीव के परिप्रेक्ष्य और सन्दर्भ में, जन्म और मृत्यु सदैव ही किसी और के ही होते हैं। चेतन आत्मा, जीव और जड जगत् के परिप्रेक्ष्य में जन्म और मृत्यु नामक कुछ नहीं होता है।

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प्रत्याहार

विषय - (Object), विषयी - (Subject),

और चित्त - (attention) 

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विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिने।। 

रसोऽपि रसवर्जं तं परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।

(श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय २)

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।५४।।

(पातञ्जल योगसूत्र - साधनपाद)

।।2.54।।

शांकरभाष्य 

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स्वविषयसंप्रयोगाभावे चित्तस्वरूपानुकार इवेति चित्तनिरोधे चित्तवन्निरुद्धानीन्द्रियाणि नेतरेन्द्रियजयवदुपायान्तरमपेक्षन्ते। यथा मधुकरराजं मक्षिका उत्पतन्तमनूत्पतन्ति निविशमानमनुनिविशन्ते तथेन्द्रियाणि चित्तनिरोधे निरुद्धानीत्येष प्रत्याहारः।।

स्वविषय-असम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इव इन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।

स्वविषय-संप्रयोग अभावे चित्त-स्वरूप-अनुकार इव इति चित्त-निरोधे चित्तवत् निरुद्धानि इन्द्रियाणि न इतर इन्द्रिय-जयवत् उपायान्तरम् अपेक्षन्ते। यथा मधुकरराजं मक्षिका उत्पतन्तं अनु उत्पत्ति निविशमानं अनुनिविशन्ते तथा इन्द्रियाणि चित्त-निरोधे निरुद्धानि इति एषः प्रत्याहारः।। 

ततः परमावश्यता इन्द्रियाणाम्।।५५।।

ततः परमा वक्रता इन्द्रियाणाम्।।

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विषयी के चित्त का इन्द्रियों के विषय से संपर्क होने पर वृत्ति-विशेष सक्रिय होती है। चित्त के निरुद्ध हो जाने पर चित्त की तरह से इन्द्रियाँ भी निरुद्ध हो जाती हैं। और  तब विषयी के रूप में विद्यमान अहं-वृत्ति भी अपने स्रोत में विलीन होकर शान्त हो जाती है। तब इन्द्रियाँ पूर्णतः परम वश में हो जाती हैं।

व्यवहार में ऐसा संभव नहीं होता। इसलिए सबसे पहले तो ध्यान (attention) को विषयों से हटाकर सिर्फ "मैं" / "स्वयं" पर लाया जाना होता है।

दूसरी रीति में ध्यान का विषय इष्ट / ईश्वर होता है, जिसका चिन्तन करते हुए अन्य सभी आते-जाते विचारों में लिप्त हुए बिना, उनकी उपेक्षा कर दी जाती है, और ध्यान को इष्ट / ईश्वर पर लौटाया जाता है। स्पष्ट है कि तब "मैं" ध्यानकर्ता के रूप में प्रच्छन्न (छिपा हुआ) रहता है। इसलिए प्रायः होता यह है कि मन विभाजित होकर एक साथ दो कार्यों में संलग्न होता है और दो ही क्या दो से अधिक भागों में भी उसकी गतिविधि जारी रहती है। यह एक बहुत संकटपूर्ण स्थिति होती है जिससे सावधान रहना चाहिए। अधिकतर लोगों का मन इस प्रकार इतना अधिक विभाजित (fragmented) हो जाता है कि यद्यपि वह एक ही समय में एक से अधिक कार्य (multitasking) तो कर सकता है किन्तु एक समय पर केवल किसी एक ही कार्य को कर पाना उसके लिए कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए आप ड्राइविंग सीखते समय जितना सावधान होते हैं और आपका मन तब जितना शून्य होता है, ड्राइविंग सीख लेने के बाद वैसे सावधान नहीं रह पाते और दूसरा कोई कार्य जैसे कि संगीत सुनना, किसी से फोन पर या वैसे ही बातचीत करने आदि कार्य में संलग्न हो जाते हैं। जैसा कभी सरकस में किसी को करते हुए देखा होगा।

इसका एक कारण यह होता है कि जिस विषय में हमारी स्वाभाविक रुचि होती है, उस विषय पर मन सरलता से एकाग्र हो जाता है और हमें एकाग्रता का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु कभी कभी विचित्र स्थिति ऐसी भी हो जाती है जब हमारी रुचि एक साथ दो या अधिक विषयों में होती है। परिस्थिति के अनुसार भी ऐसा आवश्यक हो जाता है जब हम दुविधा में कुछ तय नहीं कर पाते। 

तीसरी रीति से, जब ध्यान को इन्द्रियों से लौटाकर ब्रह्म के स्वरूप पर स्थिर किया जाता है तो अहं-वृत्ति ब्रह्म से पृथक् न रहकर ब्रह्म से उसका तादात्म्य हो जाता है। अर्थात् तब इसे ही ब्रह्माकार वृत्ति कहा जाता है। इस स्थिति में जो अनुभव होता है उसे "अहं ब्रह्मास्मि" कहा जा सकता है। किन्तु यह अपरोक्षानुभूति (आत्मज्ञान) नहीं है।

अपरोक्षानुभूति वह है जिसका उल्लेख "रसवर्जं" के रूप में प्रारंभ में किया गया है।

इन तीनों विधियों में योग के बहिरङ्ग उपायों :

निरोध, एकाग्रता, समाधि से प्राप्त "समापत्ति" के साथ साथ प्रत्याहार का प्रयोग अपरिहार्यतः आवश्यक है।

इससे यह स्पष्ट है कि प्रत्याहार (withdrawing of attention from external objects) कितना महत्वपूर्ण है।

यतो यतो हि निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। 

ततो ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।

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