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मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।१०।।
(अध्याय १०)
आत्मा स्वयं ही अस्तित्वमान सत्य है, जो स्वयं ही और स्वयं से ही स्वयं को ही जानता है।
Self is the Existential Reality, Conscious of Being, Knowing It-Self through Self.
Being Conscious implies Existence, and Existence implies Being the Self.
यह अद्वैत सत्य है। आत्मा की अध्यक्षता में ही उसकी ही शक्ति / क्षमता से स्फूर्त होकर उसकी ही प्रकृति सम्पूर्ण चर और अचर जगत् को जन्म देती है, अर्थात् जगत् की सृष्टि करती है और इसीलिए यह जगत् सतत परिवर्तित होता है। परिवर्तन ही काल है और काल ही परिवर्तन है। इस प्रकार आभासी-स्थान और आभासी-काल पुनः पुनः व्यक्त और अव्यक्त होते हैं स्थूल, सूक्ष्म और कारणगत आत्मा ही तब द्रव्य और ऊर्जा का रूप ग्रहण करता है। आत्मा भी तब स्वयं ही और स्वयं से ही अनेक, असंख्य पिण्डों में जीवभाव के रूप में परस्पर पृथक् और स्वतंत्र "अहंकार" के रूप में जगत् और जगत्सापेक्ष्य चेतन के रूप में असंख्य जीवों का रूप लेता है। और इसीलिए जन्म और मृत्यु आभासी और कल्पित घटनाएँ हैं, न कि वे वस्तुतः घटित होती हैं। इसलिए जीव के परिप्रेक्ष्य में न तो जन्म और न ही मृत्यु का अस्तित्व संभव है। जीव के परिप्रेक्ष्य और सन्दर्भ में, जन्म और मृत्यु सदैव ही किसी और के ही होते हैं। चेतन आत्मा, जीव और जड जगत् के परिप्रेक्ष्य में जन्म और मृत्यु नामक कुछ नहीं होता है।
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