श्रद्धात्रयी
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयः अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।
(अध्याय १७)
ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः गीता में आगे चलकर श्रद्धा को श्रद्धात्रयी के रूप में क्रमशः तामसी, राजसी और सात्विकी कहा गया हो।
मनुष्य नामक प्राणियों के अन्तःकरण में जो प्रकृतिप्रदत्त निष्ठा या ईश्वरप्रदत्त स्वाभाविक श्रद्धा होती है वह तीन प्रकार की होती है।
पहली है पशुतुल्य तामसी श्रद्धा जिसमें क्षण क्षण बदलते हुए और इस बदलते रूप में भी सतत अनुभव किए जा रहे संसार को ही एकमात्र सत्यता मान लिया जाता है और मन स्वयं को इसके केन्द्र की तरह शरीर विशेष के रूप में सुरक्षित बनाए रखने की कामना के पूर्ण होने की आशा तथा शरीर के नष्ट होने की कल्पना से आशंकित और भयभीत रहा करता है।
दूसरी है मनुष्य-तुल्य राजसी श्रद्धा जिसमें अपनी क्षमता और ज्ञान की मर्यादा को अनुभव करते हुए किसी ऐसी सत्ता की कल्पना की जाती है जो कि तुलना में असीम क्षमता और ज्ञान से संपन्न हो सकती है और उसे प्रसन्न करने की चेष्टा की जाती है जिसकी कृपा प्राप्त कर हम सदैव सुखी और संपन्न रहें।
तीसरी है विवेकशील वह सात्विक श्रद्धा जिसमें संसार की प्रत्येक वस्तु और मनुष्य के अनित्य होने की कल्पना होने से ऐसी किसी भी वस्तु में आसक्ति न हो पाना और किसी ऐसी वस्तु की खोज ओर उसे जानने की चेष्टा जो कि अनश्वर और इसलिए नित्य हो, और जो जन्म तथा मृत्यु से रहित भी हो। और यह भी कि ...
यहीं तक यह विवेचना है।
इसे लिखना प्रारम्भ करते समय विचार यह था कि जिसे यहाँ श्रद्धा कहा है उसके स्थान पर निष्ठा शब्द का प्रयोग करूँ किन्तु मेरे पास कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है न कोई और दूसरा उपाय जिसकी सहायता से मैं सुनिश्चित रूप से जान सकूँ कि क्या गीता में निष्ठात्रयी के बारे में और कहीं कुछ कहा गया है या नहीं।
अस्तु!
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