Monday, April 28, 2025

2/50, 2/55, 3/43

अध्याय २

बुद्धियुक्तो जहाति इह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।५०।।

श्री भगवानुवाच --

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।५५।।

अध्याय ३

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।४३।।

क्या आशय है इन श्लोकों का? 

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Sunday, April 20, 2025

8/12, 8/13 मुक्ति / मोक्ष

Self-Delivery

आत्ममुक्ति

स्वेच्छा से मृत्यु का वरण 

यहाँ आवश्यकता होने पर स्वेच्छा मृत्यु का वरण कैसे किया जा सकता है इस बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ८ के श्लोक क्रमांक १२ और १३ के संदर्भ में स्पष्ट निर्देश है —

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।१२।।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।१३।।

उपरोक्त श्लोकों में इस प्रकार से स्वेच्छा मृत्यु को वरण करने की विधि स्पष्ट की गई है –

जो भी इस प्रकार से अभ्यासपूर्वक इस क्रम को अच्छी तरह से कर सकता है उसे परम गति अर्थात् मोक्ष की या ईश्वर की प्राप्ति होती है।

इसके लिए इसके प्रत्येक भाग को ठीक से समझकर उसमें दक्षता प्राप्त होने पर ही यह संभव हो पाता है। यदि पहले से पर्याप्त अभ्यास न किया गया हो तो यह संभव नहीं हो पाता।

Here Gita categorically describes that an aspirant having well-practiced the four key-instructions – namely :

1.Having withdrawn attention from the outgoing senses,

2.Having mind / consciousness / attention fixed firmly in the “heart” / sense of :

Being and Knowing,

3.Having the vital breath established in the 

मूर्ध्नि आधाय (मूर्ध्ना सप्तमी एकवचन)

प्राणम् (द्वितीया एकवचन) 

4.  व्याहरन्  contemplating about / of

ॐ इति एकाक्षरम् ब्रह्म

Thus : The single letter Brahman “Om”

5.मामनुस्मरन् – माम् अनुस्मरन्

And remembering accordingly

“I-AM” / The Self,

One who relinquishes the body,

Attains the State Supreme.

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 

उपरोक्त आलेख मेरे वर्डप्रेस ब्लॉग के उस पोस्ट से लिया गया है जहाँ मैंने अहं ब्रह्मास्मि के अध्याय 91 का पॉडकास्ट शेयर किया है। इसलिए इसे उस संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

स्वेच्छामृत्यु की अवधारणा इस भ्रम पर आधारित है कि मनुष्य अपनी मृत्यु का चुनाव और वरण करने के लिए स्वतंत्र है। प्रायः आत्महत्या को भय, कायरता से प्रेरित कृत्य समझा जाता है और सामान्य मनुष्य ही नहीं बल्कि बहुत बड़े बड़े बुद्धिजीवी और विद्वान् भी यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि प्रत्येक उस जन्म लेनेवाले प्राणी की मृत्यु - वह किस प्रकार से और आयु के किस मोड़ पर होगी, उसके जन्म लेने के समय पर ही विधाता के द्वारा सुनिश्चित हो जाती है और कोई भी आत्महत्या करने या न करने के लिए स्वतंत्र नहीं है।

फिर भी औपचारिक रूप से और प्रसंगवश श्रीमद्भगवद्गीता में योगसाधना करनेवाले मनुष्य के लिए यह निर्देश दिया गया है कि वह किस प्रकार अपने जीवन के अंतिम समय का सदुपयोग इस प्रकार से कर सकता है जिससे कि उसे मृत्यु के बाद परम गति प्राप्त हो।

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