Tuesday, October 28, 2025

THE REALIZATION.

Of The Self and The God.

आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर साक्षात्कार

This post about :

The Self-realization,

And ;

The God-Realization,

Is in continuation, and a sequel to the earlier post :

The Many Past Lives.

It Deals with the importance of How in The Self-Realization, God-Realization is also attained as a consequence, though in The God-Realization, one may or may not attain The Self-Realization.

Therefore, we can say

Ultimately though The God-realization may or may not turn into :

The Self-Realization,

The God-Realization is invariably such a gift one is rewarded with, and at once, as soon as The Self-Realization is attained.

The following references given in that earlier post are relevant here also :

अध्याय २

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

अध्याय ७

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिदं स महात्मा सुदुर्लभः।।१९।।

अध्याय १०

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः।

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।७।।

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।८।।

मच्चिता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं  तुष्यन्ति च रमन्ति च।।९।।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।१०।।

Though, 

The Supreme Divine, The Ultimate 

Manifests as The 

सर्वलोकमहेश्वरः,

As The One,Who

Creates, Preserves and Dissolves The Universe as His Own Manifest Form, This Universe is only but a fraction of His The Supreme and The Ultimate Aspect, as is evident from the verse 42 of Chapter 10 :

अध्याय १०

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।४२।।

I abide as this Universe also as a part of Myself -

The Supreme and Ultimate Truth.

The Creation, The Preservation and The  Dissolution are The Actions performed by this सर्वलोकमहेश्वरः  aspect of Him.

Therefore this performing of 

His Actions  is called  योगं ऐश्वरम् 

अध्याय ११.

अर्जुन उवाच -

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।

यत् त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।१।।

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया। 

त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।।२।।

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर। 

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।३।।

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।

योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम्।।४।।

श्रीभगवानुवाच -

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशो अथ सहस्रशः।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।५।।

पश्यादित्यान् वसून् रुद्रान् अश्विनौ मरुतस्तथा।

बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याऽश्चर्याणि भारत।।६।।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। 

ममदेहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि।।७।।

पश्य मे योगमैश्वरम्।।

(Chapter 11)

***




८,९,१०


Monday, October 27, 2025

The Many Past-Lives.

अध्याय २

दूरेणह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

The culmination of this doctrine is again affirmed in the following verses of the Chapter 10 :

एतां विभूतियोगं च मम यो वेत्ति तत्वतः। 

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।७।।

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। 

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।८।।

मच्चिता मद्गतप्राणाः बोधयन्तः परस्परम्। 

कथयन्तं च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।९।।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।१०।। 

This is how the two kinds of  निष्ठा; (that are synonymous with the three kinds of  श्रद्धा ) define the eligibility of a spiritual seeker 

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

सांख्ययोगेन ज्ञानीनां कर्मयोगेन योगिनाम्।।

And, 

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।

सात्विकी राजसी चैव तामसी चैव तां शृणु।।

अध्याय ७

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिदं स महात्मा सुदुर्लभः।।१९।।

अध्याय ४

श्रीभगवानुवाच -

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययः।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परंपराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एवायं ते मयाऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच -

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच -

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

अध्याय १०

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय। 

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।३७।।

(कठोपनिषद् - उशनस् वाजश्रवसः ...)

उशनस् - उशना इति वाजश्रवा इति ज्ञातव्यम् 

अध्याय ११

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा

स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः। 

आश्वासयामास च भीतमेनं

भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।।५०।।

In this way the Manifest Existence, the world of perceptions is but a part of the Supreme Self  Who enters this Manifest Existence. The same has been declared in the following verse of Chapter 10 -

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। 

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेनस्थितो जगत्।।४२।।

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Sunday, October 12, 2025

3/27, 4/13, 7/27 18/65

संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध 

अष्टभार्या

श्रीमद्भागवद्महापुराण में प्राप्त वर्णन के अनुसार ये आठ रानियाँ, जिनके नाम : सत्यभामा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रवृन्दा आदि हैं,  भगवान् श्रीकृष्ण की आठ प्रधान रानियाँ  हैं, जो आधिभौतिक रूप से अष्टधा प्रकृति के ही प्रकार हैं और भगवान् श्रीकृष्ण के आधिभौतिक स्वरूप से संयुक्त हैं। दूसरी ओर, उनका आधिदैविक स्वरूप जो पुरुषोत्तम है, चतुर्भुज है, जबकि उनकी पराप्रकृति जो कि श्रीराधा हैं, उनसे अभिन्न और उनकी नित्यसंगिनी हैं, किन्तु जगत और जीवों के परिप्रेक्ष्य में उनकी वही माया  है जिसके बारे में भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है -

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। 

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

ये आठ रानियाँ जो अष्टधा अपरा प्रकृति हैं और भगवान् श्रीकृष्ण ही एकमात्र पुरुष हैं। अध्याय १३ में वर्णित क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ यही हैं जबकि भगवान् श्रीकृष्ण ही जीव के रूप में परमात्मा का अंशविशेष हैं जो कि व्यक्ति-भाव है अर्थात् जो मानसिक जगत् या आधिदैविक तत्व है। यही तत्व पारमार्थिक दृष्टि से राधा-कृष्ण युगल है। राधा-कृष्ण के इसी रूप को पुनः पौराणिक शैली में शिव-पार्वती या सीताराम के रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है जहाँ भगवान् शिव और माता पार्वती, भगवान् श्रीराम और माता सीता परस्पर अभिन्न हैं। उनके बीच यह अभेद ही मनुष्य के मानसिक धरातल पर व्यक्ति विशेष का देवता है जिसे अध्याय ३ के निम्न श्लोक में अहंकारविमूढात्मा कहा गया है -

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति इति मन्यते।।२७।।

जब कोई मनुष्य आध्यात्मिक अभ्यास या अनुसंधान में प्रवृत्त होता है तो उसमें विद्यमान यही देवता जो स्वयं उसका ही अहंकार / ego  है, स्वयं भी प्रकृति-पुरुष युगल होता है।

 भगवान् श्रीकृष्ण की संतानें

संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध

इसी व्यक्ति भाव से युक्त अहंकार का रूप लेकर उसमें कार्य करती हैं। 

आकर्षण शक्ति स्थूल भौतिक विज्ञान में पदार्थ से सूक्ष्म रासायनिक तथा सूक्ष्मतर तन्मात्रात्मक quantum  के रूप में कार्य करती हैं। स्थूल भौतिक विज्ञान में द्रव्य के गुणधर्म  general properties of matter, सूक्ष्म भौतिक स्तर पर प्रकाश का अंधकार की ओर होनेवाला आकर्षण, चुंबकीय उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के बीच का आकर्षण तथा वैद्युत् स्तर पर धन आवेशयुक्त और ऋण आवेशयुक्त कणों के बीच का आकर्षण यह सब इसी के प्रकार और कार्य हैं। मन के स्तर पर यही आकर्षण स्त्री रूपी प्रकृति और पुरुष रूपी अहंकार के बीच होता है और आध्यात्मिक स्तर पर यही श्रीराधा और श्रीकृष्ण के बीच है।

आध्यात्मिक अभ्यास अर्थात् उपासना के केवल दो ही  शास्त्रोक्त प्रकार हो सकते हैं -

पहला है ज्ञानयोग अर्थात् सांख्यनिष्ठा और दूसरा है कर्म अर्थात् कर्मनिष्ठा। किसी भी मनुष्य यही निष्ठा जो उसका स्वभाव है उससे अभिन्न होती है -

लोके अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन कर्मिणाम्।।

जबकि इसी निष्ठा को त्रिविधा श्रद्धा भी कहा जाता है :

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।  

श्रद्धामयो अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।

अध्याय १५ के श्लोक ७ में इसी संकर्षण या आकर्षण शक्ति के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार से किया गया है :

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतो सनातनः।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

प्रद्युम्न का अर्थ है अहं-स्फुरण। आत्मा की नित्यता और अविनाशिता का बोध अव्यय होने से कभी नष्ट नहीं होता बल्कि सतत ही उसका विस्तार होता रहता है यही सगुण या निर्गुण, साकार या निराकार, द्वैत या अद्वैत ब्रह्म है, और यही भगवान् श्रीकृष्ण का अनिरुद्ध स्वरूप है।

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