Sunday, October 12, 2025

3/27, 4/13, 7/27 18/65

संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध 

अष्टभार्या

श्रीमद्भागवद्महापुराण में प्राप्त वर्णन के अनुसार ये आठ रानियाँ, जिनके नाम : सत्यभामा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रवृन्दा आदि हैं,  भगवान् श्रीकृष्ण की आठ प्रधान रानियाँ  हैं, जो आधिभौतिक रूप से अष्टधा प्रकृति के ही प्रकार हैं और भगवान् श्रीकृष्ण के आधिभौतिक स्वरूप से संयुक्त हैं। दूसरी ओर, उनका आधिदैविक स्वरूप जो पुरुषोत्तम है, चतुर्भुज है, जबकि उनकी पराप्रकृति जो कि श्रीराधा हैं, उनसे अभिन्न और उनकी नित्यसंगिनी हैं, किन्तु जगत और जीवों के परिप्रेक्ष्य में उनकी वही माया  है जिसके बारे में भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है -

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। 

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

ये आठ रानियाँ जो अष्टधा अपरा प्रकृति हैं और भगवान् श्रीकृष्ण ही एकमात्र पुरुष हैं। अध्याय १३ में वर्णित क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ यही हैं जबकि भगवान् श्रीकृष्ण ही जीव के रूप में परमात्मा का अंशविशेष हैं जो कि व्यक्ति-भाव है अर्थात् जो मानसिक जगत् या आधिदैविक तत्व है। यही तत्व पारमार्थिक दृष्टि से राधा-कृष्ण युगल है। राधा-कृष्ण के इसी रूप को पुनः पौराणिक शैली में शिव-पार्वती या सीताराम के रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है जहाँ भगवान् शिव और माता पार्वती, भगवान् श्रीराम और माता सीता परस्पर अभिन्न हैं। उनके बीच यह अभेद ही मनुष्य के मानसिक धरातल पर व्यक्ति विशेष का देवता है जिसे अध्याय ३ के निम्न श्लोक में अहंकारविमूढात्मा कहा गया है -

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति इति मन्यते।।२७।।

जब कोई मनुष्य आध्यात्मिक अभ्यास या अनुसंधान में प्रवृत्त होता है तो उसमें विद्यमान यही देवता जो स्वयं उसका ही अहंकार / ego  है, स्वयं भी प्रकृति-पुरुष युगल होता है।

 भगवान् श्रीकृष्ण की संतानें

संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध

इसी व्यक्ति भाव से युक्त अहंकार का रूप लेकर उसमें कार्य करती हैं। 

आकर्षण शक्ति स्थूल भौतिक विज्ञान में पदार्थ से सूक्ष्म रासायनिक तथा सूक्ष्मतर तन्मात्रात्मक quantum  के रूप में कार्य करती हैं। स्थूल भौतिक विज्ञान में द्रव्य के गुणधर्म  general properties of matter, सूक्ष्म भौतिक स्तर पर प्रकाश का अंधकार की ओर होनेवाला आकर्षण, चुंबकीय उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के बीच का आकर्षण तथा वैद्युत् स्तर पर धन आवेशयुक्त और ऋण आवेशयुक्त कणों के बीच का आकर्षण यह सब इसी के प्रकार और कार्य हैं। मन के स्तर पर यही आकर्षण स्त्री रूपी प्रकृति और पुरुष रूपी अहंकार के बीच होता है और आध्यात्मिक स्तर पर यही श्रीराधा और श्रीकृष्ण के बीच है।

आध्यात्मिक अभ्यास अर्थात् उपासना के केवल दो ही  शास्त्रोक्त प्रकार हो सकते हैं -

पहला है ज्ञानयोग अर्थात् सांख्यनिष्ठा और दूसरा है कर्म अर्थात् कर्मनिष्ठा। किसी भी मनुष्य यही निष्ठा जो उसका स्वभाव है उससे अभिन्न होती है -

लोके अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन कर्मिणाम्।।

जबकि इसी निष्ठा को त्रिविधा श्रद्धा भी कहा जाता है :

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।  

श्रद्धामयो अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।

अध्याय १५ के श्लोक ७ में इसी संकर्षण या आकर्षण शक्ति के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार से किया गया है :

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतो सनातनः।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

प्रद्युम्न का अर्थ है अहं-स्फुरण। आत्मा की नित्यता और अविनाशिता का बोध अव्यय होने से कभी नष्ट नहीं होता बल्कि सतत ही उसका विस्तार होता रहता है यही सगुण या निर्गुण, साकार या निराकार, द्वैत या अद्वैत ब्रह्म है, और यही भगवान् श्रीकृष्ण का अनिरुद्ध स्वरूप है।

***