संभव, दुष्कर, असंभव
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एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ
नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि
ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७२।।
गीता के दूसरे अध्याय में सांख्यनिष्ठा से प्रेरित बुद्धियोग के अधिकारी पुरुष और कर्म-निष्ठा से प्रेरित कर्म-योग के अधिकारी पुरुष की पात्रता की परस्पर तुलना करते हुए संकेत किया गया है कि दोनों में से किसी भी एक प्रकार की निष्ठा से युक्त पुरुष को वही फल प्राप्त होता है जो कि दूसरे प्रकार की निष्ठा से युक्त पुरुष को प्राप्त होता है किन्तु दोनों ही युक्तियों में उपासना किए जाने की विधि सिद्धान्ततः एक दूसरे से भिन्न है। सांख्य-निष्ठा की विधि से उपासना करनेवाला पुरुष द्वैत की कल्पना तक से भी रहित होता है। अर्थात् वह केवल नित्य-अनित्य के बीच विवेचना करते हुए और अनित्य का निवारण करते हुए, किसी उस नित्य को जानने का यत्न करता है कि अंततः जिसका त्याग या निवारण नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार की उपासना में मूलतः किसी ईश्वर नामक तत्व की भी कल्पना नहीं की जाती है। समस्त कल्पनाएँ वृत्तिमात्र होने से विषयात्मक स्वरूप की कोई वस्तु होती हैं और विषय-विषयी के द्वैत की सत्यता के स्वीकार पर निर्भर होती है। समस्त नित्य प्रतीत हो रही वस्तुओं में विद्यमान नित्यता पर संदेह नहीं किया जा सकता है, और सांख्य- दर्शन में उसे ही इस सत्य की तरह जान लिया जाता है कि यही वह चैतन्य है जो चेतना के रूप में जड-चेतन अस्तित्व के रूप में अव्यक्त से व्यक्त, और व्यक्त से अव्यक्त दशा में पुनः पुनः आता और जाता रहता है। चैतन्य ही अस्तित्व के प्रकट और अप्रकट रूपों में होने का अविकारी आधारभूत सत्य है।
इस सत्य का साक्षात्कार करने के लिए जो साधन है वह उसके द्वैत या अद्वैत होने की स्वीकृति के अनुसार भिन्न भिन्न है। जब इस सत्य को जानने के लिए अनुसंधान का सहारा लिया जाता है तो यह कोई कर्म न होकर जिज्ञासा का रूप ले लेता है किन्तु इस सत्य का साक्षात्कार किए बिना ही इसे किसी मान्यता या विश्वास के रूप में, किसी शाब्दिक और बौद्धिक निष्कर्ष के रूप में स्वीकार कर उसे अनुभूति के रूप में जानने का प्रयास किया जाता है तो उसके लिए कोई अभ्यास / कर्म किया जाना अपेक्षित होता है और उस सत्य की अनुभूति, "समय" के अन्तर्गत किसी "भविष्य" में होगी यह मान लिया जाता है।
और यह भी स्पष्ट नहीं होता है कि जिसे "समय" और "भविष्य" कहा जाता है वे स्वरूपतः क्या हैं? न तो उन्हें परिभाषित किया जा सकता है, न इंद्रियानुभव से और किसी भौतिक वस्तु की तरह अनुभव भी नहीं किया जा सकता है। संक्षेप में उस तरह से जैसा वैज्ञानिक आधार पर किसी "सत्य" को अकाट्यतः जाना और सिद्ध किया जाता है। इसलिए "सत्य" को उस "ईश्वरीय" / "दिव्य" सत्ता या शक्ति की तरह स्वीकार करना होता है जो इस संसार का सृष्टा, नियामक होता है और फिर अंततः इसे किसी समय मिटा देने का कार्य भी उसके आदेश से ही संपन्न होता है।
उसकी उपासना कर, उसे प्रसन्न कर उसकी कृपा प्राप्त करने के इस प्रयास में द्वैत को प्रारंभ से अंत तक "सत्य" मानना होता है। वस्तुतः द्वैत अन्योन्याश्रित ही हो सकता है और स्वयं और स्वयं के संसार के संदर्भ में ही, या स्वयं और स्वयं के उस "ईश्वर" के संदर्भ में जिसकी उपासना उसे माननेवाले करता है। यह अत्यन्त जटिल है, किन्तु इन सबमें अन्तर्निहित और आधारभूत जो वस्तु अर्थात् "मन" है उसके अस्तित्व को किसी भी तर्क, अनुभव या उदाहरण से असत्य नहीं कहा जा सकता है। यहाँ महर्षि पतञ्जलि के योगशास्त्र का महत्व सहायक है, जिसमें "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" इस सूत्र से "मन" के स्थान पर "वृत्ति" शब्द का प्रयोग किया गया है। इसीलिए महर्षि पतञ्जलि का "योगशास्त्र" कर्म-योग का शास्त्र होने पर भी "सांख्य दर्शन" की तरह एक स्वतंत्र दर्शन है। दर्शन शब्द का अर्थ है "युक्ति"। सभी छः वेदसम्मत "दर्शन" इसलिए विधियाँ या सिद्धान्त नहीं "युक्ति" / आगम या approach हैं। युक्ति और योग दोनों ही शब्द "युज्" युज्यते धातु से व्युत्पन्न हैं। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता को "योगशास्त्र" भी कहा जाता है जिसके प्रत्येक अध्याय के नाम में "योग" शब्द इसे ही इंगित करता है -
अर्जुन विषाद योग
सांख्य योग
कर्म-योग
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग
कर्म-संन्यास योग
आत्म-संयम योग
ज्ञान-विज्ञान योग
अक्षर-ब्रह्म योग
राजविद्या-राजगुह्य योग
विभूति योग
विश्वरूपदर्शन योग
भक्ति योग
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग
गुणकर्मविभाग योग
पुरुषोत्तम योग
दैवासुर सम्पद्विभागयोग
श्रद्धात्रयविभाग योग
मोक्षसंन्यास योग
मोटे तौर पर श्रीमद्भगवद्गीता में योग के दो ही प्रकारों का उल्लेख किया गया है, किन्तु प्रत्येक अध्याय के शीर्षक के साथ "योग" शब्द का प्रयोग इसका द्योतक है कि हर मनुष्य अपनी पात्रता और रुझान के अनुसार उस आधार पर अपने लिए कोई विशेष तरीका तय कर सकता है। उदाहरण के लिए कोई मनुष्य जो कि "विषादग्रस्तता" की मनःस्थिति से गुजर रहा है, पहले अध्याय को पढ़कर इससे ही और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित और उत्साहित हो सकता है। शायद उसकी रुचि अगले अध्यायों के प्रति भी जागृत हो सकती है। क्योंकि यह ग्रन्थ ऐसा नहीं है कि केवल एक बार पढ़ने से पूरी तरह से समझ में आ जाए। वास्तव में तो जितना शान्तिपूर्वक इसे पढ़ा जाए, उतना ही अच्छा है। इसका अध्ययन भी एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक साधना है, फिर इसे पुनः पुनः पढ़ते रहना तो परम श्रेयस्कर है इसमें संदेह नहीं।
प्रायः लोगों को इस ग्रन्थ का सार समझने में कठिनाई अनुभव होती है और प्रायः भी देखा जाता है कि अनेक मूर्धन्य प्रकाण्ड पंडितों तथा विद्वानों द्वारा इस पर लिखी गई विभिन्न टीकाओं और व्याख्याओं को पढ़ने से उनका अभिमान या / और भ्रम और भी बढ़ सकता है। केवल पंडितों और विद्वानों के बीच ही नहीं बल्कि अध्यात्म के मार्ग पर पथ-प्रदर्शन करनेवाले अनेक विचारकों के बीच भी कई बार मत वैभिन्न्य देखा जाता है जो कभी कभी तो उग्रता और कटुता की सीमा तक पहुँच जाता है। यह इसलिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि इससे जनसामान्य को कोई सहायता मिलना तो दूर, उनके मन में इस ग्रन्थ के प्रति अरुचि तक पैदा हो सकती है।
इसलिए होना तो यह चाहिए कि पहले तो इस ग्रन्थ का बहुत शान्ति और धैर्य से अध्ययन किया जाए। हो सके तो मूल संस्कृत भाषा में, या फिर इसके अपनी मातृभाषा में किए गए इसके सरल अनुवाद का, न कि बहुत बड़ी बड़ी विद्वतापूर्ण व्याख्याओं का। अनेक व्याख्याएँ पढ़ने से उलझन बढ़ ही सकती है। फिर स्वयं ही यह समझने का प्रयास करना उचित होगा कि आपकी जिज्ञासा और आपका मार्ग क्या हो सकता है। बहुत दीर्घ काल तक अध्ययन करते करते बहुत सी बातें स्पष्ट हो जाएगी। यदि सौभाग्य से आपको कोई सुयोग्य व्यक्ति, आचार्य या इस ग्रंथ के मर्मज्ञ इसे समझने में आपकी सहायता कर सके तो उससे अवश्य ऐसी सहायता ग्रहण करें। विवाद करने के लिए नहीं, बल्कि ध्यानपूर्वक उसकी बातें समझने की दृष्टि से।
अब इस ग्रन्थ के मुख्य विषय के बारे में -
इसमें सांख्य और योग इन दोनों पर ही दो मुख्य निष्ठाओं के रूप में जोर दिया गया है।
सांख्ययोग अर्थात् आत्मानुसंधान, और कर्मयोग का अर्थ है निष्काम कर्मयोग।
दोनों ही प्रकार की उपासना में "ईश्वर" की मान्यता का महत्व गौण है। इसका तात्पर्य यह कि दोनों ही प्रकार के आध्यात्मिक अभ्यास में "ईश्वर" को स्थान देना या कि कितना अधिक स्थान देना है, यह मनुष्य के अपने विवेक पर छोड़ दिया गया है। किन्तु क्रियायोग या भक्तियोग की दृष्टि से (स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।) ईश्वर को स्वीकार करने के पश्चात उसके साकार या निराकार, नाम रूप आदि के बारे में अनेक ऊहापोह और आग्रह उत्पन्न हो सकते हैं, तब किसी ऐसे मार्गदर्शक की आवश्यकता अनुभव होती है जो हमें सतत मार्गदर्शन दे सके। शायद आपके सौभाग्य से आपको कोई ऐसा मार्गदर्शक मिल भी सकता है, या शायद न भी मिल पाए। किन्तु यह तो समझा जा सकता है कि गीता के अनुसार ईश्वर के नाम स्मरण से अधिक सरल और कुछ भी नहीं हो सकता है। क्योंकि ईश्वर स्मृति का विषय नहीं है, न हो सकता है, किंतु उसका नाम और उसके जिस रूप से हम अनायास आकर्षित हैं वह रूप भी अवश्य ही स्मृति का विषय हो सकता है। गीता में ही यह भी कहा गया है कि अन्तकाल आने पर मनुष्य जिस किसी भी भाव का स्मरण करता है, मृत्यु के बाद उसकी वही गति होती है, और यह भी स्पष्ट है कि मृत्यु आने का कोई समय नियत नहीं होता। इसलिए उस नाम को यथासंभव अधिक से अधिक समय तक स्मरण किया जाए। हठपूर्वक नहीं, बल्कि उत्साह और प्रीतिपूर्वक। और यह भी देखा जाता है कि ईश्वर की भक्ति तभी होती है जब उसकी कृपा से हममें ऐसी भक्ति जागृत होती है। तो नाम-स्मरण और शुद्ध हृदय से किया जानेवाला सत्संग ही वह वस्तु हैं जिन पर हम निर्भर हो सकते हैं। यह भी सच है कि हम ही ईश्वर का भजन नहीं करते, वह भी हमारा भजन करता है -
अध्याय ३
यदि ह्यहं न वर्तेयम् जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।२३।।
अध्याय ४
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।११।।
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