आज का श्लोक,
"युध्यस्व" / "yudhyasva"
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"युध्यस्व" / "yudhyasva" - (तुम) युद्ध करो !
अध्याय 2, श्लोक 18,
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥
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(अन्तवन्तः इमे देहाः नित्यस्य उक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनः अप्रमेयस्य तस्मात् युध्यस्व भारत ॥)
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भावार्थ : (तत्वदर्शियों के द्वारा*) इन समस्त देहों को अन्तवान अर्थात् नाशवान, तथा इन देहों को धारण करनेवाली चेतना अर्थात् जीव-भाव की नित्यता, अविनाशिता तथा अप्रमेयता कही जाती है । इसलिए हे भारत (अर्जुन) ! तुम युद्ध करो ।
*टिप्पणी :
श्लोक क्रमांक 16 तथा 17 में इस चेतना ’जीव-भाव’ के यथार्थ स्वरूप का वर्णन पहले ही कर दिया है । अध्याय 15 श्लोक 7 में यह भी बतलाया गया है कि यह ’जीव-भाव’ परमात्मा का ही अंश है, और इसलिए नित्य, अविनाशी तथा अप्रमेय है । जीव तथा परमात्मा की भिन्नता या द्वैत भी औपचारिक ही है, न कि वास्तविक ।
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अध्याय 3, श्लोक 30,
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्यध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
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(मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्य-अध्यात्म-चेतसा ।
निराशीः निर्ममः भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥)
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भावार्थ :
समस्त कर्मों को अध्यात्मबुद्धिपूर्वक मुझमें अर्पित करते हुए, आशा से और ममता से रहित होकर, संताप से मुक्त रहते हुए युद्ध करो ।
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अध्याय 11, श्लोक 34,
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द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥
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(द्रोणम् च भीष्मम् च जयद्रथम् च
कर्णम् तथा अन्यान् अपि योधवीरान् ।
मया हतान् त्वम् जहि मा व्यथिष्ठाः
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥)
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भावार्थ :
द्रोण, भीष्म, जयद्रथ,, कर्ण और दूसरे भी ऐसे महायोद्धा मेरे द्वारा पहले से ही मारे जा चुके हैं, तुम इसलिए (निमित्तमात्र बनते हुए) मार डालो, उनसे भयभीत होकर व्यथित मत होओ । तुम युद्ध में अवश्य ही जीतोगे, और शत्रुओं को परास्त करोगे ।
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"युध्यस्व" / "yudhyasva" - fight!
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Chapter 2, śloka 18,
antavanta ime dehā
nityasyoktāḥ śarīriṇaḥ |
anāśino:'prameyasya
tasmādyudhyasva bhāratya ||
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(antavantaḥ ime dehāḥ
nityasya uktāḥ śarīriṇaḥ |
anāśinaḥ aprameyasya
tasmāt yudhyasva bhārata ||)
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Meaning :
(As is seen by the seers and sages*), all these bodies are said as perishable, while the consciousness that supports these bodies (and appears as individual, but when questioned about and inquired into its nature, is found as Indivisible One Whole in all bodies) is Imperishable, Immutable and indescribable. Therefore bhārata (arjuna) ! Don't hesitate and fight this war without conflict.
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Chapter 3, śloka 30,
mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasyadhyātmacetasā |
nirāśīrnirmamo bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||
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(mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasya-adhyātma-cetasā |
nirāśīḥ nirmamaḥ bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||)
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Meaning : With the conviction born of the mind aimed at the spiritual, having surrendered all your actions in Me, fight the war without hoping, without attachment, and with the mind free of agony.
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Chapter 11, śloka 34,
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droṇaṃ ca bhīṣmaṃ ca jayadrathaṃ ca
karṇaṃ tathānyānapi yodhavīrān |
mayā hatāṃstvaṃ jahi mā vyathiṣṭhā
yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān ||
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(droṇam ca bhīṣmam ca jayadratham ca
karṇam tathā anyān api yodhavīrān |
mayā hatān tvam jahi mā vyathiṣṭhāḥ
yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān ||)
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Meaning :
droṇa, bhīṣma, jayadratha, and karṇa, and all other such great warriors have been killed by me already. Therefore, don't fear and hesitate, Fight and kill them. You shall conquer these enemies.
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