Sunday, August 22, 2021

प्रसाद : कामायनी,

हृदय की बात! 

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भरत मुनि के नाट्य-शास्त्र में कुल ३३ भाव हैं,  जिनमें से एक है : निर्वेद ।

यही ३३ (कोटि के) देवता शिव-अथर्वशीर्ष में 'रुद्र' के पर्याय हैं। किन्तु निर्वेद के अतिरिक्त शेष सभी संचारी और व्यभिचारी कहे जाते हैं। यहाँ 'व्यभिचारी' का तात्पर्य 'दुराचारी' नहीं, समय और परिस्थिति के अनुसार वि-अभि-चारी है।

'प्रसाद' की रचना 'कामायनी' पढ़ते समय इस शब्द से कभी मेरा परिचय हुआ था। 

गीता में अध्याय २ में इसका उल्लेख :

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।।५२।।

में पाया जाता है ।

कामायनी के,

"रे मन, तुमुल कोलाहल कलय में मैं हृदय की बात रे!"

इस गीत को आशा भोसले ने गाया भी है ।

यह 

"हृदय की बात"

क्या है? 

यह अपने अस्तित्व का भान और उसकी वह सहज स्फुर्णा है, जिसे 'अहं-स्फुर्णा' कहा जाता है। यद्यपि यह विषय-रहित भान नित्य विशुद्ध होता है, किन्तु बुद्धि भूल से इसे ही किसी विषय पर आरोपित कर 'अहंकार' का रूप ले लेती है। यही बुद्धि इस अहंकार-रूपी मोहकलिल को पार कर लेती है तो निर्वेद नामक स्थिति में होती है। वैसे तो बुद्धि के दो प्रकार स्थिति और गति के रूप में होते हैं, किन्तु बुद्धि की निर्वेद नामक यह अवस्था इन दोनों से विलक्षण है, जहाँ उस प्रज्ञा का उन्मेष होता है, जिसके प्रतिष्ठित हो जाने पर मनुष्य अपनी आत्मा को स्वरूपतः जान लेता है। 

"श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च" के माध्यम से, श्रुतियों और शास्त्रों आदि के द्वारा जिस बुद्धि के चंचल होने का संकेत किया गया है, वही बुद्धि इस प्रकार मोहकलिल को पार कर, अचल समाधि में कैसे दृढ हो जाती है, इसका वर्णन 

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।५३।।

के माध्यम से पुनः, "योग" की प्राप्ति के वर्णन में है। 

इसी योग की प्राप्ति के बाद योगारूढ हुए स्थितप्रज्ञ, समाधिस्थ हुए मुमुक्षु की स्थिति का वर्णन,

क्रमशः श्लोक क्रमांक ५४, ५५, तथा ५६ में है :

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । 

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ।।५४।।

प्रजहाति यदा कामान्सर्वार्थान्पार्थ मनोगतान् ।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।।५५।।

दुःखेष्वनुद्गविग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।५६।। 

इस प्रज्ञा और इसके लक्षणों का वर्णन पुनः

"तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।"

के द्वारा इसी अध्याय के अगले श्लोकों ५७ तथा ५८ में भी प्राप्त होता है :

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।५७।।

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।५८।।

प्रसंगवश, 

योगारूढ मुनि / योगी, तथा आरुरुक्षु मुनि के बारे में गीता के अध्याय ६ के इस श्लोक ३, का उल्लेख करना यहाँ उपयोगी होगा :

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।।३।।

किन्तु यदि इस सब सन्दर्भ से थोड़ा हटकर यह देखें कि 'प्रसाद' के 'निर्वेद' सर्ग के इस गीत में 'पवन (प्राण) की प्राचीर' और 'चेतना थक सी रही' को जिस प्रकार 'झूलते विश्व-दिन' के परिप्रेक्ष्य में संयोजित किया गया है, तो कहना होगा कि इससे कवि की यह रचना को कालजयी 'हृदय की बात' हो जाती है!

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उल्लिखित गीत इस प्रकार से है:

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रे मन! 

तुमुल-कोलाहल कलय में,

मैं, हृदय की बात रे! 

विकल होकर, नित्य चंचल,

खोजती जब नींद के पल, 

चेतना थक-सी रही तब, 

मैं, मलय की बात रे! 

चिर-विषाद-विलीन-मन की, 

इस व्यथा के तिमिर-वन की, 

मैं, उषा-सी ज्योति-रेखा, 

कुसुम-विकसित, प्रात रे! 

जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,

चातकी कन को तरसती,

उन्हीं जीवन घाटियों में, 

मैं, सरस बरसात रे! 

पवन की प्राचीर में रुक, 

जला जीवन जी रहा झुक, 

इस सुलगते विश्व-दिन की,

मैं, कुसुम-ऋतु, रात रे!

चिर निराशा, नीरधर से,

प्रतिच्छायित,अश्रु-सर में,

उस स्वरलहरी के, अक्षर सब,

संजीवन-रस बने-घुले,

रे मन! 

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Thursday, August 19, 2021

तप, ज्ञान, कर्म और योग

अभ्यासयोग 

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अध्याय ३ में भगवान् श्रीकृष्ण ने अध्यात्म-विषयक जिज्ञासुओं में दो प्रकार की निष्ठा का वर्णन किया है :

लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।

दो प्रकार की निष्ठाएँ क्रमशः साँख्य एवं योग की दृष्टि से कहने के अनंतर अर्जुन को इस विषय में शंका होती है कि निष्ठा की भिन्नता से क्या मुमुक्षु की उपलब्धि भी भिन्न भिन्न प्रकार की होती है?

अतः तब अध्याय ५ में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन की इस शंका का निवारण करते हुए उससे कहते हैं :

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः। 

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

इस प्रकार गीता में ज्ञान-विषयक दो धारणाएँ प्राप्त होती हैं:

एक तो साङ्ख्यदर्शन के अनुसार होनेवाला आत्म-ज्ञान, जो कि मुक्ति का साधन है, तथा दूसरा सैद्धान्तिक तत्त्वज्ञान, जो केवल शास्त्रीय होता है और वस्तुतः अज्ञान का ही विशेष प्रकार है। 

इस प्रकार का ज्ञान भी यद्यपि सैद्धान्तिक होता है, किन्तु फिर भी वह ज्ञानरहित अभ्यास की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है। 

इसलिए अध्याय १२ में भगवान् श्रीकृष्ण (सैद्धान्तिक ज्ञान से रहित) तप करनेवाले अभ्यासयोगियों अर्थात् तपस्वियों से इस ज्ञान से युक्त ज्ञानियों को अधिक श्रेष्ठ कहते हुए ध्यानयोगियों को ऐसे ज्ञानियों से भी श्रेष्ठतर कहते हैं। पुनः ऐसे ध्यानयोग में संलग्न, ध्यानरूपी कर्म करने की तुलना में उन्हें और भी अधिक श्रेष्ठ कहते हैं, जो कर्मफल (की आशा) को भी त्याग देते हैं।

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।९।।

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव। 

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१०

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। 

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।११।।

तथा अंत में :

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासाज्ज्ञाद्ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२।।

इस प्रकार तप, कर्म, ज्ञानरहित अभ्यास अर्थात् तप और ज्ञान-सहित कर्म को क्रमशः श्रेष्ठतर कहते हुए, अन्त में कर्मफल को ही त्याग देने को शान्ति की प्राप्ति का साधन कहते हैं। 

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