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श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2 का यह श्लोक इस प्रकार से है :
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः।।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।२०।।
कठोपनिषद् अध्याय १, वल्ली २ में यही श्लोक निम्नलिखित रूप में पाया जाता है:
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न भभूत कश्चित्।।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।१८।।
कदाचिन्नायं -- कदाचित् न अयं,
विपश्चिन्नायं -- विपश्चित् न अयं,
'कदाचित्' अर्थात् किसी भी काल में, क्योंकि काल स्वयं जो कि एक ओर जहाँ क्षणजीवी की तरह से अस्तित्वमान और विलीन होता हुआ जान पड़ता है, दूसरी दृष्टि से वही अजन्मा, अजर, अमर, शाश्वत्, गौण नित्य भी है, ऐसा भी समझा जा सकता है। किन्तु काल का यह स्वरूप बुद्धि के सक्रिय हो उठने पर, उसके पश्चात् ही जाना जाता है। दूसरी ओर, यह तर्क कि भी इतना ही महत्वपूर्ण है कि बुद्धि स्वयं भी किसी न किसी काल में ही तो उदित / जाग्रत होकर पुनः पुनः विलीन होती रहती है। वस्तुतः काल और बुद्धि का संपूर्णतः एकमेव युगपत् अस्तित्व है और उनमें किसी भेद का होना संभव नहीं है।
'विपश्चिन्नायं' में विपश्चित् का अर्थ हुआ - वि पश्चित् । पश्च से बने शब्द past, post 'बाद में' के द्योतक हैं। जबकि पहले / बाद में, काल या बुद्धि के सन्दर्भ में ही हो सकते हैं।
विपश्चित् का दूसरा अर्थ है जिस किसी ने भी उस अजर अमर नित्य शाश्वत को जान लिया है, उसके इसे जान लिए जाने के बाद वह अपने आपको जिस प्रकार से समझता है।
कठोपनिषद् से उद्धृत उपरोक्त श्लोक में इसलिए विपश्चित् शब्द सर्वथा उपयुक्त है। इसी प्रकार, श्रीमद्भगवद्गीता से जिस श्लोक को उद्धृत किया गया है, उसमें भी 'कदाचित्' शब्द स्थान और प्रसंग के सर्वथा अनुकूल है।
इसके पूर्व के श्लोकों से भी यह स्पष्ट है :
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युद्धस्व भारत।।१८।।
य एवं वेत्ता हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।
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