2/9, 18/59,
अध्याय 2 और अध्याय 18 के उपरोक्त श्लोक क्रमशः इस प्रकार से हैं --
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।
तथा,
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।
तात्पर्य यह कि जन्म होते ही प्रत्येक ही प्राणी शरीर के रूप में अपने आप को मान लेता है, और तब तत्काल ही विभिन्न विषयों से सुख या दुःख प्राप्त होगा इस भावना से उसका चित्त आविष्ट होने से वह उन विषयों की इच्छा और उनसे द्वेष आदि उसके हृदय में उत्पन्न हो जाते हैं।
यद्यपि उसके चित्त / बुद्धि में अपने अस्तित्व का भान तो होता है किन्तु उस भान से ही अपने स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता, स्वामी एवं ज्ञानवान होने की भावना उत्पन्न होकर उसकी बुद्धि को भ्रमित कर देती है। शरीर के जन्म से प्रारम्भ होनेवाले इस क्रम को उसका व्यक्तिगत "प्रारब्ध" कहा जाता है।
इसी प्रारब्ध को संक्षेप में जैसा कि अध्याय ३ के निम्न श्लोक में कहा गया है,
-- "अहङ्कारविमूढात्मा" कहा जाता है --
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।
मनुष्य इस प्रकार से प्रकृति से संचालित उपकरण बना रहकर प्रारब्ध के अनुसार अहङ्कार के आश्रित हुआ सुखी या दुःखी हुआ करता है।
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।
उपरोक्त दोनों श्लोकों में युज् और युध् दोनों ही धातुओं का प्रयोग दृष्टव्य है।
व्यक्तिगत प्रारब्ध और भाग्य क्या है इसे समझने के लिए इन दोनों धातुओं का प्रयोजन जानना उपयोगी है।
संबंधमात्र द्वन्द्व है। और द्वन्द्व की स्थिति में इन दोनों का ही का महत्व है। युज् का अर्थ है युक्ति, संबंधित होना। युध् का अर्थ है अपने स्वरूप से विपरीत से संबंध होना। संबंधमात्र निर्विशेष चेतना का संग, जड विषय से होने पर होता है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।।
संगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोपजायते।।
क्रोधात्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृति विभ्रमः।।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
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