विवेक और बुद्धि
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5//26, 6/31, 16/23
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किसी कविता की पंक्ति है -
जब विनाश मनुज पर छाता,
पहले विवेक खो जाता है।
विवेक क्या है? वेदान्त ग्रन्थों में "नित्य-अनित्य के चिन्तन से उत्पन्न निश्चय" को ही "विवेक" कहा जाता है। इस प्रकार का चिन्तन या तो "बुद्धि" की सहायता से किया जा सकता है, या मिथ्या और असत्य के "दर्शन" से भी हो सकता है।
जो "नित्य" है, स्थान और काल अछूता होने से यद्यपि केवल "है" किन्तु इन्द्रियगम्य, अनुभवगम्य और बुद्धिगम्य नहीं है, क्योंकि इन्द्रियाँ स्वभाव से ही बहिर्मुखी होती हैं, अनुभव स्मृति में होता है जो कि स्मृति के अस्थिर और परिवर्तनशील होने से विश्वसनीय नहीं हो सकता, या कहें कि त्रुटिरहित और असंदिग्ध रूप से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता, और बुद्धि भी स्वयं ही स्मृति पर आश्रित होती है। इसलिए "असत्य" का दर्शन ही वह उपलब्ध और एकमात्र उपाय है जिसके प्रयोग से कोई "सत्य" का जिज्ञासु मनुष्य प्रारंभ कर सकता है। "सत्य" प्रायः अज्ञात और अप्रकट भी हो सकता है। एकमात्र "सत्य" जिसे हर कोई अनायास, असंदिग्ध और स्वाभाविक रूप से जानता है, वह है :
"अपने अस्तित्व का भान"
और केवल मनुष्य ही नहीं छोटे से छोटे और बड़े से बड़े प्रत्येक जीव में यह "भान" होता ही है किन्तु चूँकि यह शरीर और मन को जोड़नेवाली एकमात्र कड़ी होता है इसलिए प्रत्येक प्राणी में मृत्युभय होता है। उसमें इस "भान" के जागृत होने के बाद ही स्वयं को शरीर-विशेष के रूप में स्वीकार कर "मैं" की भावना के माध्यम से ही जगत में जगत से भिन्न एक पृथक् और स्वतंत्र अस्तित्व से युक्त जीव मान लिया जाता है।
इसके बाद जगत में इन्द्रियों के अनुभव से अपने आपको सुख और दुःख से युक्त उनका भोग करनेवाला भी। अनुभवों के क्रम की स्मृति से ही "बुद्धि" उत्पन्न होती है और पुनः "बुद्धि" में ही सुखप्राप्ति की आशा अर्थात् लोभ और दुःखप्राप्ति की आशंका अर्थात् भय उत्पन्न हो जाते हैं और इसलिए जन्म से ही प्रत्येक प्राणी सुख की इच्छा से और दुःख के द्वेष से युक्त होता है -
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।
(अध्याय ७)
चूँकि हर कोई प्रकार की इच्छा तथा द्वेष से युक्त बुद्धि से मोहित होकर ही जन्म लेता है इसलिए उस पर कविता की उपरोक्त कविता की दूसरी पंक्ति -
"पहले विवेक मर जाता है।"
लागू ही नहीं होती। किन्तु वह मनुष्य जिसने "अनित्य" अर्थात् "मिथ्या" का दर्शन कर लिया हो उसमें ही ऐसा "विवेक" जागृत हो चुका होता है, जिसकी कभी मृत्यु ही नहीं हो सकती है।
काल और स्थान का अनुभव ऐसा ही एक प्रतीति या अनुभव है जो सतत रूप बदलता रहता है। किसी घटना से "काल" की प्रतीति होती है । स्थान का अस्तित्व काल से, और काल का स्थान से बाधित अवरुद्ध नहीं होता।अर्थात् कितना भी लघु या दीर्घ काल हो किसी न किसी स्थान पर होता ही है। इसी प्रकार कोई भी स्थान अवश्य ही काल की प्रतीति से रहित नहीं होता है। इसलिए ये दोनों ही मूलतः तो एक ही अस्तित्व के दो भिन्न आभास हुआ करते हैं किन्तु "बुद्धि" में ही उन्हें पृथक् पृथक् दो अलग अलग वस्तुएँ मान लिया जाता है। इस प्रकार की मान्यता ही "नित्य" पर "अनित्य" के आरोपित हो जाने की या कल्पित घटना होती है।
"सत्य" - समस्त आभासी घटनाओं की पृष्ठभूमि में सदा और सर्वत्र अविकारी प्रकट वह "वास्तविकता" है, जो न तो आभास को प्रभावित करती है, और जो न आभास से प्रभावित ही होती है। जो प्रकटतः या अप्रटतः भी वास्तविक है, उस पर किसी आभास को आरोपित किए जाने पर उसे जिस रूप में जाना जाता है, वह रूप ही "असत्य" या "मिथ्या" होता है। किन्तु अपरिपक्व बुद्धि में इसे अस्तित्वमान कहा और माना जाता है।
पातञ्जल योगदर्शन के सूत्र
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।
के अनुसार "प्रमाण" तीन प्रकार का हो सकता है -
प्रत्यक्ष अर्थात् इन्द्रियगम्य संवेदन -जैसे ऊष्ण या शीतल, मधुर, कटु, तिक्त, लवण, कषाय या अम्ल। इस पर कोई मतभेद नहीं होता।
अनुमान जो कोई इन्द्रिय अनुभव होने से पहले और बाद में बदल सकता है। जैसे सफेद रंग के चूर्ण को देखने पर उसके बारे में यह अनुमान किया जाता है कि वह नमक का चूर्ण है या शक्कर का, - जो कि उसका स्वाद ग्रहण करने के बाद बदल सकता है। जब उसका स्वाद ग्रहण कर लिया जाता है तो इसकी पुष्टि हो जाती है कि वह पदार्थ नमक है या शक्कर है। इस प्रकार प्राप्त त्रुटिरहित निश्चय के आगमन को आगम कहा जाता है। दूसरी ओर, आत्मा क्या है इसे भी प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमन या आगम के माध्यम से "सिद्ध" किया जा सकता है, अर्थात् इसकी पुष्टि की जा सकती है।
संस्कृत भाषा में "आत्मा" पद का प्रयोग "मैं" या "स्वयं" के अर्थ में किया जाता है। इस प्रकार मैं मनुष्य हूँ, पुरुष या स्त्री, बालक, युवा या वृद्ध, स्वस्थ या अस्वस्थ आदि हूँ आदि वाक्यों से प्रत्यक्षतः अपने को इंगित किया जाता है, जिसे औपचारिक या व्यावहारिक रूप में "सत्य" मान लिया जाता है।
साथ ही, "मैं सुखी, दुःखी, संतुष्ट, असंतुष्ट, संशयग्रस्त, निर्भय या भयग्रस्त, बुद्धिमान, मंदबुद्धि या अल्पबुद्धि हूँ" आदि के प्रयोग के द्वारा "स्वयं" के अस्तित्व को मन के स्तर पर इंगित और स्वीकार कर लिया जाता है।
यहाँ तक भी "बुद्धि" का कार्य संभव है। किन्तु जैसे ही कोई कहता है -
"मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, कुछ सूझ ही नहीं रहा है, मैं समझ नहीं पा रहा, वैसे ही वह "बुद्धि" की सीमा को पार कर लेता है और ठीक इसी क्षण उसमें "विवेक" का उन्मेष या प्रादुर्भाव हो जाता है। केवल प्रमाद या अनवधानतावश (due to In-attention only) ही वह फिर एक बार "बुद्धि" में लौट आता है और उसमें "विवेक" की जो क्षणिक कौंध उठी थी, उसे चूक जाता है। इसलिए बुद्धि से ही सही, "असत्य" और "मिथ्या" क्या है इसका तो प्रकटतः "दर्शन" किया जा सकता है, किन्तु "सत्य" का दर्शन इस प्रकार बुद्धि के माध्यम से संभव नहीं है।
जब तक बुद्धि कार्य करती है तब तक संकल्प के रूप में "मैं" भी अस्तित्वमान बना रहता है। यद्यपि यह निरंतर ही किस प्रकार परिवर्तित भी होता ही रहता है जिसका उल्लेख पहले ही किया जा चुका है। एक ओर यह सतत और निरन्तर विकारशील (changing) "मैं" होता है, तो दूसरी ओर इसकी पृष्ठभूमि में, और वह पृष्ठभूमि ही चेतना / consciousness के रूप में वह अविकारी (immutable) "मैं" भी होता है जो स्वयं ही स्वयं का प्रमाण होता है। अनवधानता (In-attention) का निवारण होते ही इसे ही अवधान (attention) के रूप में नित्य विद्यमान प्रकट "सत्य" की तरह जान लिया जा सकता है। इस "जानने" में ज्ञाता और ज्ञेय को एक दूसरे से अभिन्न और अनन्य की तरह देख लिया जाता है।
ऐसे दर्शन को ही प्रज्ञा या "विवेक";
conscience / Intelligence
कहा जाता है --
तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ...
इस प्रकार की प्रज्ञा में व्यवस्थित रूप से प्रतिष्ठित ही "ज्ञानी" अर्थात् "साँख्य" का उत्तम अधिकारी पुरुष है।
ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
दूसरी ओर जिस बुद्धि में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं, उसके लिए अवश्य ही योगमार्ग ही श्रेयस्कर हो सकता है।
इसी आधार पर श्रीमद्भगवद्गीता "साँख्य योग" से प्रारंभ - अध्याय २, होती है किन्तु अध्याय ३ और इसके पश्चात् योगमार्ग की शिक्षा दी गई है।
√शास् धातु का प्रयोग शिक्षा और "शासन करने", दोनों ही अर्थों में किया जाता है। इसी धातु से बना शास्त्र शब्द "विधि और विधान" के अर्थ में प्रयुक्त होता है -
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।।
न सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।२३।।
(अध्याय १६)
के सन्दर्भ में साँख्य शास्त्र और योग शास्त्र दोनों में से किसी एक का ही अवलम्बन ग्रहण करना पर्याप्त और अपरिहार्यतः आवश्यक भी होता है।
प्रसंगवश,
"वर्तते" पद का प्रयोग श्रीमद्भगवद्गीता में दूसरे और दो स्थानों पर दृष्टव्य है --
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।२६।।
(अध्याय ५)
तथा,
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।३१।।
(अध्याय ६)
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