~~~~~~~व्यवसायात्मिका बुद्धि:~~~~~~
________________________
********************************
हमारी बुद्धि, या कहें 'धृति', जो कि एक व्यापक अर्थवाला शब्द है, हमारी पात्रता को निर्धारित करती है ।
गीता अध्याय २, श्लोक क्रमांक ४१ एवं ४४ में इस बारे में बहुत उपयोगी निर्देश प्राप्त होते हैं ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयो-अव्यवसायिनां ॥ (४०)
भोगैश्वर्य प्रसक्तानां तयापहृतचेतसां ।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते ॥ (४४)
हमारी पात्रता को जो वस्तु निर्धारित करती है, वह है व्यवसायात्मिका बुद्धि । अर्थात् गीता के माध्यम से हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं । हमारा प्रयोजन । जब तक हमारी बुद्धि में संसार की अनित्यता पर संशय नहीं उठता, तब तक हमें हमारी प्रतीतियों का संसार नित्य प्रतीत होता है । बुद्धि से ही यह भी समझ में आता है कि जिस संसार मेंहम रहते हैं, वहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है । किन्तु अशुद्ध बुद्धि के कारण हम मन लेते हैं कि 'भविष्य' तो है, जहाँ हम कुछ इच्छाओं को पूरा कर सकेंगे । जीवन के लिए, शरीर की रक्षा और दूसरी आवश्यकताओं की पूर्ति करना, औरसंसार में 'सुख' की प्राप्ति का विचार करना, उसकी आशा करना ये दोनों बहुत अलग-अलग बातें हैं । जब बुद्धि से ही हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि संसार के (इन्द्रियों के) विषयों में सुख नहीं, सुख का आभास मात्र है, तो फिर हमें उन विषयों के सीमित सामर्थ्य का बोध होने लगता है, जो क्रमश: चिंतन द्वारा और भी दृढ़ किया जा सकता है । यहाँ लक्ष्य उन विषयों अथवा विषयों के भोगों की निंदा करना नहीं, बल्कि उनसे प्राप्त होते प्रतीत होनेवाले सुखों कीसच्चाई पर ध्यान देना है . जब बारम्बार उनकी सच्चाई पर प्रश्न उठाया जाता है, तो बुद्धि शुद्ध और सूक्ष्म, एकाग्रऔर ऋजु हो जाती है, और अनायास विषयों तथा उनके भोगों के प्रति बुद्धि में वैराग्य उत्पन्न होने लगता है । फिरजब संसार के विषयों और उनसे प्राप्त होनेवाले तथाकथित सुखों से मन उचट जाता है, तो अपनी स्वयं की देह औरइन्द्रियों के प्रति भी लगाव समाप्त हो जाता है । ऐसी एकाग्र बुद्धि के द्वारा जब हम संसार तथा उसके परे की भीएकमात्र सत्यता अर्थात् 'सत् -चित् - स्वरूप' एकमात्र ईश्वर-तत्त्व को ही नित्य और नित्य-सुख देनेवाले तत्त्व की भाँति देख लेते हैं, तो प्रारंभ में यद्यपि यह एक अनुमानात्मक निष्कर्ष ही होता है, किन्तु फिर बारम्बार के चिंतन सेयही एक प्राप्तव्य वस्तु है, इस बारे में हमारे संशय समाप्त हो जाते हैं । इस प्रकार की बुद्धि ही वह 'धृति' है, जिसमें बुद्धि व्यवसायात्मिका होने साथ-साथ शुद्ध और एकाग्र, और वैराग्ययुक्त भी होती है । यदि हम वैराग्ययुक्त इस बुद्धि से रहित हैं, तो हमारी मलिन बुद्धि, जो विषयों और उनसे प्राप्त होते केवल प्रतीत भर होनेवाले, (न कि वस्तुत: मिलनेवाले) की नित्यता पर प्रश्न नहीं उठाती । 'सुख'-प्राप्ति की संभावना और उससे उत्पन्न होनेवाला उनका आकर्षण मन को भोगैश्वर्य के प्रति लालायित बनाए रखते हैं , और चूँकि वहाँ हमारी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं रहजाती, इसलिए वह 'समाधि' की साधना और अभ्यास के लिए अनुपयुक्त होती है । इसलिए हम देखते हैं, कि केवल कोरे शब्द-ज्ञान से संपन्न बड़े-बड़े पंडित भी गीता के बहुत अध्ययन के उपरांत भी, उसके मर्म के प्रति सुनिश्चय नहीं कर पाते । इसलिए संसार के सुखों के लिए प्रयत्नशील होना और ईश्वर-तत्त्व की प्राप्ति के लिए प्रयास करना परस्पर दो विपरीत दिशाएँ हैं। जब हम इस प्रकार से अपनी मन:स्थिति की ठीक से परीक्षा कर लेते हैं, तो भी हमें हमारी पात्रता का सुनिश्चय हो जाता है ।
_________________________
*********************************
No comments:
Post a Comment