~~~~~~~~~अधिकारी~~~~~~~~~~
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पात्रता और अधिकारिता, दोनों शब्दों के बारे में हम पहले कह चुके हैं .
गीता वेदान्त की प्रस्थान-त्रयी के तीन प्रमुख ग्रंथों में से एक है .
गीता समझने के लिए इसलिए हमें यह जानना बहुत उपयोगी होगा कि
गीता के अध्ययन के लिए कौन सी पात्रताएं वेदान्त-ग्रथों में निर्धारित की गयी हैं .
क्योंकि उन ग्रंथों में इस दृष्टि से जो कहा गया है, उसके आधार पर भी हम अपनी
अधिकारिता, और योग्यता के बारे में स्पष्टता से जान सकें .
वेदांत-ग्रंथों में अधिकारी, विषय, संबंध एवं प्रयोजन इन चार परस्पर जुडी हुई
आवश्यकताओं को 'अनुबंध' का नाम दिया गया है .
ये आवश्यकताएं (शर्तें) पूर्ण होने पर हम अधिकारी और सर्वथा सुयोग्य पात्र होते हैं .
संक्षेप में :
अधिकारी तु विधिवदधीतवेद्वेदांगत्त्वेना... ... प्रमाता ."
अर्थात् ,
अधिकारी तो वह है, जिसने विधिपूर्वक वेद और वेदांगों का अध्ययन किया हो,
उनके वास्तविक आशय को जिसने इस अथवा पूर्व जन्म में हृदयंगम किया हो,
कर्मों का काम्य, निषिद्ध, वर्जनायुक्त आदि स्वरूप जानकर तदनुसार नित्य,
नैमित्तिक, प्रायश्चित्त, उपासना आदि कर्मों का अनुष्ठान किया हो, जिससे उसके
अंत:करण का सारा कल्मष धुल गया हो, और उसका चित्त अत्यंत सरल, शुद्ध और
निर्मल हो चुका होने से जो साधन-संपन्न ऐसा 'प्रमाता' हो चुका हो जो विषय को
ठीक-ठीक समझकर बुद्धि में स्थिरता से धारण कर सके, .
काम्य-कर्म : कामनाओं की पूर्ति के लिए किये जानेवाले, स्वर्ग इत्यादि इष्ट
साधनस्वरूप कर्म .
निषिद्ध-कर्म : नरक आदि का कारण बनानेवाले अनिष्ट कर्म .
नित्य-कर्म : जिनके न करने से जीवन में कष्ट उत्पन्न होते हों . जैसे मन और शरीर
की शुद्धि, संध्यावंदन, आदि कर्म .
नैमित्तिक-कर्म : पुत्र के जन्म होने पर उसके निमित्त किये जानेवाले संस्कार रूपी
प्रासंगिक कर्म .
प्रायश्चित्त्त-कर्म : जाने-अनजाने किये गए दोषयुक्त कर्मों से उत्पन्न पापों के क्षय
हेतु किये जानेवाले कर्म .
उपासना-आदि-कर्म : सगुण-ब्रह्म-विषयक पूजा-पाठ इत्यादि .
इस प्रकार कर्मों के स्वरूप को ठीक से समझने के बाद, और उनके विधिवत अनुष्ठान
से, अर्थात् सम्यक-रीति से विहित कर्म करने से तथा अविहित के त्याग से चित्त
अत्यंत शुद्ध, बुद्धि विवेक-वैराग्य एवं एकाग्र, तथा मान बहुत शांत और प्रसान रहने
लगता है . तब वह सुख की प्राप्ति के लिए इन्द्रिय-गम्य विषयों की ओर से मुंह मोड़
लेता है, और दूसरे शब्दों में कहें तो, '' अंतर्मुख'' होने लगता है .
अब साधनों के बारे में -
१)नित्य-अनित्य-वस्तु विवेक,
२)इस लोक तथा मृत्यु के बाद प्राप्त होनेवाले समस्त लोकों के सारे भोगों के प्रति
विराग-बुद्धि होना,
३)मुमुक्षा के लिए उपयोगी शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान, श्रद्धा आदि ६
संपत्तियां होना .
४)इस प्रकार की संपत्ति से संपन्न साधक को शांत-दांत 'प्रमाता' कहा जाता है .
इसे ही अधिकारी भी कहा जाता है .
विषय : ग्रन्थ में जिसका विस्तार से विवेचन किया जाता है . अपनी बुद्धि के अनुसार
मनुष्य निश्चय कर सकता है कि गीता में किस विषय की शिक्षा दी गयी है, इसे वह
ईश्वर-प्राप्ति, मोक्ष, आदि कोई व्यक्तिगत रुचिप्रद लक्ष्य के रूप में भी चिन्हित कर
सकता है .
संबंध : जिस लक्ष्य की प्राप्ति ग्रन्थ से अभीष्ट है, उसके बोध के लिए ग्रन्थ का किस
प्रकार से अध्ययन किया जाए . तात्पर्य यह कि हम गीता या अन्य कोई ग्रन्थ
पढ़ते तो हैं, किन्तु उससे हमें उचित बोध नहीं प्राप्त हो पाता .ग्रन्थ के अंतर्गत जिस
प्रमाण को दिया गया है, उसे ग्रहण कर, उसमें बोध्य(सत्य) तथा बोधक (विवेचना)
का पारस्परिक संबंध .
प्रयोजन :
ग्रन्थ के अध्ययन द्वारा इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति होना .
इस रीति से इन चारों (विषय, संबंध, अधिकारी तथा प्रयोजन) की स्पष्टता होने पर
शिक्षा सार्थक और सफल होती है .
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