ज्ञान और विज्ञान
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अध्याय ९
श्री भगवानुवाच --
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्नसूयवे।।
ज्ञानं विज्ञानसहितं
यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१।।
संसार में और प्रकृति में अर्थात् अपरा प्रकृति में दो ही प्रकार के लक्षणवाली वस्तुएँ तत्व हैं। जड और चेतन। यह अनुभव / ज्ञान जिसे है -- वह तो चेतन है, और उसमें स्वयं अपना संवेदन जिस भी "मैं" भाव, विचार, अथवा भावना के माध्यम से होता है उसे अहंकार, अहं-वृत्ति, अहं-संकल्प, अहं-प्रत्यय आदि कहा जाता है। अहंकार का अस्तित्व भी क्रमशः अव्यक्त और व्यक्त इन दो प्रकारों में एक ही चेतना (consciousnesses) के सुप्त और जाग्रत प्रकार हैं। जब किसी जैव-प्रणाली में चेतना अभिव्यक्त होती है, तो चेतना इन्हीं दोनों रूपों में अप्रकट और प्रकट होती है। एक ऐसी चेतन जैव-प्रणाली में ही अपने स्वयं के चेतन होने का ज्ञान जाग्रत होता है और इस ज्ञान से अपने संसार में कुछ वस्तुओं को वह अपने ही जैसा चेतन, जबकि शेष को अपने से भिन्न प्रकार का अर्थात् अचेतन या जड समझने लगता है। इस प्रकार जीवन सदा और अपरिहार्यतः भी इस ज्ञान का एक और नाम है। किन्तु जीवन उस प्रकृति अर्थात् समस्त जगत् को भी कहा जाता है जिसमें अपने जैसी अनेक जड और चेतन वस्तुएँ भी हैं। इस प्रकार प्रत्येक चेतन वस्तु में अहंकार होता है, जो कि उसे प्रतीत होनेवाली समस्त जड वस्तुओं को जड प्रकृति, और चेतन वस्तुओं को चेतन प्रकृति में विभाजित कर लेता है।
बुद्धि का प्रस्फुटन और फिर विकास होने पर अहंकार-युक्त उस चेतन में भाषा की उत्पत्ति होती है। विभिन्न अनुभवों को स्मृति में क्रमबद्ध करने पर काल / समय का आभास भी इस ज्ञान में गौण / आनुषंगिक रूप से विद्यमान होता है।
यद्यपि वह काल के स्वरूप को नहीं समझ पाता है, फिर भी वह विभिन्न प्रत्यक्ष घटनाओं में काल के किसी स्वाभाविक क्रम की पहचान कर उसे स्मृति से समायोजित कर लेता है जो कि उसे उसका अपना जीवन परिभाषित करने में और उसे जीने के लिए पर्याप्त सहायक होता है।
भाषा की उत्पत्ति के बाद वह इस प्रणाली को अपनी बुद्धि की सहायता से और भी व्यवस्थित परिष्कृत और क्रमबद्ध कर लेता है। यह ज्ञान है। यह ज्ञान मनुष्य में अन्य जीवों की तुलना में कुछ भिन्न प्रकार से विकसित होता है और वह निरन्तर इसे और भी अधिक परिवर्धित करते हुए कल्पना कर लेता है कि किसी समय वह ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँचकर किसी ऐसी वस्तु को प्राप्त कर लेगा जिसे वह परम सत्य कहता है।
इस ज्ञान में अन्तर्निहित इसके तीन तत्व वैसे तो ज्ञाता, ज्ञेय तथा उनको परस्पर संबंधित करनेवाली जानकारी हैं, किन्तु सामान्य रूप से "ज्ञान" शब्द को जानकारी के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। यह जानकारी जिसे होती है उसे ज्ञाता कहा जाता है। जिस विषय में यह जानकारी होती है उस विषय को ज्ञेय कहा जाता है तथा इस जानकारी को ज्ञान।
प्रकृति में जो असंख्य घटनाएँ घटती हैं, और वे किसकी प्रेरणा से घटित होती हैं इसे जानना ही विज्ञान है। विज्ञान के अन्तर्गत जिन विषयों को जाना जाता है और उनके मध्य कारण-कार्य का क्या संबंध है यह इस मान्यता पर आधारित है कि चूँकि इन असंख्य घटनाओं में एक अत्यन्त सुचारु व्यवस्था है, इसलिए उनके मूल में अवश्य ही कोई प्रखर प्रज्ञा (Intelligence) है। विज्ञान इसलिए कारण-कार्य के जिन वैश्विक, सार्वत्रिक और सार्वकालिक सिद्धान्तों का आविष्कार करता है, उन्हें निरन्तर ही और आगे बढ़ाया जाना होता है और शायद यह एक अन्तहीन प्रयास है।
यह प्रयास भी, जो कि कर्म ही है, उन्हीं कारणों से प्रारंभ होता है, जिनसे सभी प्रकार के कर्मों का प्रारंभ होता है और जिसके बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १८ में इस प्रकार से कहा है :
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः।।१८।।
इस प्रकार चेतन ज्ञानयुक्त अहंकार में कर्तृत्व का विचार उत्पन्न होता है और तब उसकी बुद्धि में अपने स्वयं के स्वतंत्र कर्ता होने का विचार जन्म लेता है। चूँकि किसी कर्म के संपन्न हो सकने में मूलतः पाँच निमित्त संयुक्तरूप से मिलकर ही उसे पूर्ण करते हैं इसलिए इसी अध्याय १८ के पिछले श्लोक १६ में अपने स्वयं के स्वतंत्र कर्ता होने की बुद्धि को दुर्मति कहा गया है :
तत्रैव सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।।
पश्यत्कृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति।।१६।।
अतः यह तथाकथित विज्ञान जो कि केवल विषयपरक ज्ञान (objective knowledge / information) के अन्तर्गत ही परम ज्ञान की प्राप्ति करने की आशा रखता है, अध्यात्म के उस विज्ञान से अनभिज्ञ रह जाता है जो कि चेतनता और चेतना के स्वरूप का अन्वेषण करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा इस अर्थ में सरल और विशिष्ट है कि यह मनुष्य की दो प्रकार की स्वाभाविक निष्ठाओं, साङ्ख्य-योग और कर्म-योग की निष्ठाओं के अनुसार मनुष्य के उसके अपने लिए अनुकूल आध्यात्मिक मार्ग को दर्शाती है।
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।
(अध्याय ३)
चूँकि इन दोनों निष्ठाओं से प्राप्त होनेवाला फल एक है, इसलिए उनमें परस्पर विरोध भी नहीं है।
सङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।
एकः साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।
अध्याय ५ से भी यही सिद्ध होता है।
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