श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा :--
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भगवान् महर्षि श्री वेदव्यास ने इस ग्रन्थ की रचना करते समय अर्जुन की मनःस्थिति को समझते हुए इस अत्यन्त पावन और रहस्यमय ब्रह्मविद्या का उपदेश उसे उसकी पात्रता के अनुसार प्रदान किया। अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण के इस सख्य-संवाद के माध्यम से जो उपदेश इस ग्रन्थ में प्रदान किया गया है, उसे ग्रहण करने की पात्रता जिसमें होती है उसके लिए तो यह ग्रन्थ अवश्य ही बारम्बार पठनीय है ही, किन्तु जो मनुष्य कोरा और शुष्क बुद्धिजीवी ही है, वह भी यदि इसका अध्ययन करता है तो उस पर भी अन्ततः प्रभु की कृपा अवश्य ही होगी, और वह इसे ग्रहण कर अपना जीवन धन्य कर सकेगा।
अध्याय २ में साङ्ख्ययोग का उपदेश दिया है, तो इसके बाद के अध्यायों में कर्मयोग का उपदेश दिया गया है। साथ ही मनुष्य में जिन दो भिन्न प्रकारों की निष्ठा स्वाभाविक रूप से होती है, उस विषय में तीसरे अध्याय के प्रारंभ में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वे दो निष्ठाएँ कौन सी हैं :
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।
दूसरे अध्याय में साङ्ख्य के तत्त्व को स्पष्ट करने के बाद तीसरे अध्याय में उपरोक्त दोनों निष्ठाओं के बारे में कहा गया। अध्याय ४ में यह स्पष्ट किया गया कि कर्मयोग जिसका उपदेश श्रीकृष्ण परमात्मा ने प्रथम विवस्वान् को प्रदान किया था, वह विवस्वान् से मनु को प्राप्त हुआ और मनु से इक्ष्वाकु को। योग अर्थात् इस राजयोग को जिसे साङ्ख्य-योग और कर्मयोग दोनों ही निष्ठाओं से राजर्षियों ने प्राप्त किया, वह पुरातन योग जो महान काल के प्रभाव से नष्ट हो गया, उसका ही उपदेश पुनः उन्हीं परमात्मा ने भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में अर्जुन को प्रदान किया। अध्याय ५ के प्रारंभ में इसकी ही पुष्टि इस प्रकार से की गई :
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
इस प्रकार की इन दोनों निष्ठाओं से युक्त मनुष्य की बुद्धि में भी यह संशय उत्पन्न हो सकता है कि क्या श्रेयस् की प्राप्ति के लिए कर्म को त्याग दिया जाना अर्थात् कर्म-संन्यास आवश्यक है या कर्म करते हुए भी यह संभव है?
इस अध्याय ५ का प्रारंभ इसी प्रश्न से होता है :
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तुमने ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।
सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेसकरावुभौ।।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगौ विशिष्यते।।२।।
ज्ञेयः स नित्य सन्न्यासी ये न द्वेष्टि न काङ्क्षति।।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात् प्रमुच्यते।।३।।
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
संक्षिप्त गीता को यदि इन श्लोकों में व्यक्त किया जाए तो शायद इस प्रकार से कहा जा सकता है :
अर्जुन उवाच :
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।४।।
(अध्याय ४)
श्रीभगवान् उवाच :
पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा देवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।
तत्रैव सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न पश्यति स दुर्मतिः।।१६।।
(अध्याय १८)
अर्जुन के द्वारा पूछा जा रहा प्रश्न, उसकी इस कर्तृत्व-बुद्धि से उत्पन्न हुआ है, जब तक इस प्रकार की कर्तृत्व-बुद्धि मनुष्य में होती है वह कर्तव्यविमूढ़ रहेगा, उसके मन में यह द्वन्द्व बना ही रहेगा कि मैं क्या करूँ, तब तक वह इस संशय और अनिश्चय से ग्रस्त रहेगा ही कि मेरे लिए क्या करना उचित है और क्या करना अनुचित है। अपने आपके स्वतन्त्र कर्ता होने की यह मान्यता ही मौलिक अज्ञान और विभ्रम है। साङ्ख्य अथवा योग के उपाय का आलंबन लेने पर जब उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व (की भावना और यह कल्पना) ही समस्त दुःखों का मूल और एकमात्र कारण है तो उसकी प्रज्ञा स्थिर हो जाती है अर्थात् वह समत्व-योग में स्थित हो जाता है।
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