Wednesday, May 28, 2025

Content of Consciousness.

15/15

सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो

मत्तः स्मृतिः ज्ञानमपोहनं च। 

वेदैः सर्वैः अहमेव वेद्यो

वेदान्तकृत् वेदविदेव चाहम्।।१५।।

Consciousness is the content of it's own.

Emptying the consciousness (mind) of it's content takes to a silence, that is neither cultivated, nor a reaction activated due to any external stimulus / Conditioning / influences. 

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Monday, May 26, 2025

2/17, 2/62, 2/63, 7/27, 8/16,

मानसपुत्र

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।१६।।

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।१७।।

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।१६।।

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते।।६२।।

क्रोधाद्भवति सम्मोहं सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद्-बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।६३।।

वह अविनाशी जिससे और जिसमें कि समस्त अस्तित्व ओत-प्रोत है, उसे ही निरपेक्ष ब्रह्म कहा जाता है। और यह जो कहनेवाला है वह सापेक्ष ब्रह्म है। इस प्रकार उस निरपेक्ष ब्रह्म की अभिव्यक्ति सापेक्ष ब्रह्म में और सापेक्ष ब्रह्म का विलय निरपेक्ष ब्रह्म में पुनः पुनः होता रहता है।चूँकि दोनों ही स्थितियों में ब्रह्म ही वह अविनाशी तत्व है जिससे और जिसमें वह स्वयं व्याप्त है इसलिए सापेक्ष ब्रह्म को ब्रह्मा (आ-ब्रह्म) कहते हैं और इसलिए यही वह व्यक्त ब्रह्म है जिसका आगमन उस निरपेक्ष अव्यक्त ब्रह्म से, तथा फिर विलय भी पुनः उसी निरपेक्ष अव्यक्त ब्रह्म में होता रहता है। (और लगता है "अब्राहम" शायद इसी "आ-ब्रह्म" का अपभ्रंश होगा। क्योंकि यह भी तो कहा जाता है कि अब्राहम ही सबसे पहले Prophet थे!  और यदि ऐसा न हो और यह शब्द कहीं अन्यत्र से आया हो तो इसकी जानकारी मुझे नहीं है।)

ब्रह्मा शुद्ध बोध अर्थात् वह चेतना है वह बहिर्मुख चित्त-रूपी-ध्यान (attention) है जो अपने हृदयान्तर में स्थित परमात्मा से निःसृत होकर और अपने से बहिर्मुख होकर बाहर की (कल्पित) दिशा में चला गया है। इसी बहिर्मुख चेतना का नाम ब्रह्मा है जिससे चेतन जीवसृष्टि हुई, जिसमें असंख्य चेतना-युक्त वे देहधारी जन्म लेते हैं, जो जीवन व्यतीत करते हुए अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। और इन सभी चेतना-युक्त देहधारियों में (मूलतः अन्तर्मुख) चेतना के बहिर्मुख हो जाने से उन्हें स्वयं अपने आपका सबसे भिन्न एक स्वतंत्र अस्तित्व है यह आभास होने लगता है।

ब्रह्मा के मानस से उद्भूत मन-रूपी इन्हीं चार मानसपुत्रों  के नाम क्रमशः सनक्, सनन्दन, सनत् और सनत् कुमार हैं। सनक हैं बुद्धि का उन्मेष जिसे अंग्रेजी में  cynic  कहा जाता है और प्रचलित भाषा में साधारणतः उसे ही  'सनक' भी कहते हैं।

अपने शुद्ध रूप में यही 'अहं-स्फुर्णा' भी है जिसमें अपने से भिन्न किसी बाह्य वस्तु के अस्तित्व का भान तक नहीं उत्पन्न हुआ होता है। अपने शुद्ध अस्तित्व में रमण करता हुआ उसमें मग्न यही वह मन है जो कि गहरी सुषुप्ति की दशा में इस आनन्द का उपभोग किया करता है। यही है - आनन्दमय कोष। इसे ही नन्दन भी कह सकते हैं। इसी का तीसरा रूप है सनत् अर्थात् "होता हुआ"। "गच्छत्" शब्द का अर्थ जिस प्रकार से - "जाता हुआ" है, वैसे ही "सनत्" सन् धातु का "शतृ" प्रत्यय से बना रूप है। और सनत् कुमार उसका ही विकास और विस्तार है।

इसे हम "ध्यान" के बहिर्मुख होने और बाह्य विषयों के चिन्तन में संलग्न होने के अर्थ में "ध्यायन्" के "ध्यायतः" संज्ञारूप में समझ सकते हैं जिसका अर्थ है ध्यान करते हुए मनरूपी - पुंसः -पुरुष का। अर्थात् जैसे ही ध्यान या वृत्ति बहिर्मुख हो जाती है, किसी विषय के संग होते ही उससे संलग्न हो जाती है। फिर कामना उत्पन्न होती है क्योंकि तब उस आनन्द की प्रतीति होना बन्द हो जाता है जिसका उपभोग सुषुप्ति के समय हो रहा था। बाह्य विषयों में सुख की प्राप्ति होने की कल्पना और आशा ही "काम" या कामना अर्थात् इच्छा कहलाती है, और जब किसी विषय से सुख प्राप्त होने के स्थान पर दुःख प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता है तो उस विषय से द्वेष उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार, इच्छा और द्वेष काम के ही पर्याय हैं और उन दोनों की उत्पत्ति के साथ उनके इस द्वन्द्व से प्रत्येक ही जीव की बुद्धि उसके जन्म से ही मोहग्रस्त हो जाया करती है। और कोई भी जीवधारी इसका अपवाद नहीं होता है। यही सनत् कुमार हैं।

सनक, सनन्दन, सनत् और सनत् कुमार यही ब्रह्मा के चार मानसपुत्र हैं।

कामना के पूर्ण हो जाने पर दूसरी कोई कामना उठती है और कामना अपूर्ण रह जाने पर विषाद उत्पन्न होता है। विषाद ही क्रोध बन जाता है और तब बुद्धि संमोहित या अत्यन्त मोहित utterly confused) हो जाती है। ऐसी स्थिति में स्मृति गड़बड़ा जाती है, विवेक नष्ट हो जाता है और बुद्धि कार्य करना बन्द कर देती है।

यह भी कहा जाता है कि एक बार ब्रह्मा (जी) के ये चारों पुत्र कहीं जा रहे थे। रास्ता जिस वन से गुजरता था वहाँ पार्वती जी भगवान् शिव के साथ विराजित थीं। ये चारों ऊपर सिर उठाए आकाश को देखते हुए अभिमानपूर्वक चले जा रहे थे और भगवान् शिव तथा पार्वती की तरफ उन्होंने दृष्टि तक नहीं डाली। भगवान् शिव तो समाधि में डूबने थे इसलिए इन चारों पर उनका ध्यान ही नहीं गया, किन्तु माता पार्वती से भगवान् शिव की उपेक्षा देखी नहीं गयी। उन्होंने उन चारों को शाप दिया कि तुम इस तरह उद्धत होकर सिर उठाए ऊँट की तरह चले जा रहे हो, तो जाओ ऊँट ही हो जाओ! और वे चारों ऊँट हो गए। बहुत समय तक वन में चरते चरते उन्होंने पूरा वन चर लिया और संयोगवश एक बार फिर उसी स्थान पर आ पहुँचे।  माता पार्वती ने उन्हें देखा तो कौतूहलपूर्वक पूछा -

"ऊँट की तरह जीना कैसा लग रहा है?"

वे बोले -

"मजा ही मजा है, जब धरती पर घास पत्ते समाप्त हो जाते हैं तो दूसरे पशु भूख से मरने लगते हैं, किन्तु हमें तब भी खाने के लिए भरपेट मिल जाता है!"

तब माता पार्वती ने करुणा करते हुए उन्हें पुनः मनुष्य हो जाने का आशीर्वाद दे दिया।

(यह कथा अभी कुछ दिनों पहले ही पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी के किसी वीडियो में सुनी थी।) 

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Thursday, May 22, 2025

Ego and Alter-ego.

Wherefrom comes the Thought?

विचार कहाँ से आते हैं?

इस प्रश्न को सुधारकर इस रूप में पूछा जा सकता है -

विचार / संकल्प कहाँ से उठता है?

और फिर यह देखा जा सकता है कि समस्त विचार और संकल्प भी समष्टि से ही उठते और विलीन होते हैं और पुनः समष्टि में ही विलीन भी हो जाया करते हैं। मनुष्य का मन जितना ही अधिक बहिर्मुख, अव्यवस्थित और अराजक होगा विचारों और संकल्पों की शक्ति उतनी ही अधिक विभाजित हो जाएगी, और उनमें से जो विचार या संकल्प उस समय सर्वाधिक शक्तिशाली होगा वह शेष सभी को अभिभूत कर चित्त की सतह पर सबसे ऊपर उमर आएगा। विचार संकल्पयुक्त या संकल्परहित भी हो सकता है। यह इस पर निर्भर है कि मन का ध्यान किस विषय पर और कितना संलग्न है। संकल्प का अर्थ है - कामना, जबकि विचार का अर्थ है - बुद्धि की सक्रियता।

कामना का आगमन व्यक्ति की स्मृति से होता है, जबकि बुद्धि की सक्रियता एक शुद्धतः यांत्रिक गतिविधि होती है। एक कंप्यूटर भी कामनारहित होकर कार्य करता है, जबकि मनुष्य प्रायः किसी न किसी कामना से ही प्रेरित होता है और उसकी बुद्धि कामना को पूर्ण करने के लिए ही उस समय सक्रिय होती है।

इस प्रकार विचार और कामना के संयोग से ही मनुष्य के द्वारा कोई "कर्म" घटित होता है। यह जानना भी इतना भी महत्वपूर्ण और रोचक है कि केवल अज्ञान से मोहित बुद्धि में ही अहंकार नामक वस्तु को कामना और बुद्धि से संयुक्त कर "मैं चाहता हूँ" और "मैं सोचता हूँ" जैसी कल्पनाएँ चित्त में पैदा होती हैं। दूसरे शब्दों में - मनुष्य में अपने स्वयं के स्वतंत्र रूप से कामना और कर्म के कर्ता होने का भ्रम उत्पन्न होता है। और इससे भी अधिक बड़ा आश्चर्य यह कि मनुष्य का ध्यान इस पर कभी नहीं जाता है कि "अपने स्वयं" के अस्तित्व को वह किस प्रकार से, किस रूप में होने को जानता है और स्वयं के 'वह' होने का दावा करता है! स्पष्ट है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि अहंकार सदैव किसी न किसी वस्तु, विचार, कामना या विषय के संबंध में ही अस्तित्व ग्रहण कर सकता है और विषयमात्र के अभाव में सुषुप्ति या मूर्च्छा में चला जाता है। जब यह सुषुप्त नहीं होता उस समय यह जागृत या स्वप्न की स्थिति में होता है। यही व्यक्ति की अपनी स्मृति और विशिष्ट पहचान भी होती है और स्मृति और पहचान एक ही वस्तु के दो नाम ही हैं। पहचान और स्मृति दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं। स्मृति है तो ही किसी भी विषय की या 'अपने आप' की पहचान हो सकती है, और पहचान है, तो ही स्मृति हो सकती है।

इसी आधार पर विचार और संकल्प, कामना, बुद्धि और 'कर्म' को भी परिभाषित किया जा सकता है।

अब हम एक वेदमन्त्र और गीता के अध्याय ९ के एक श्लोक के संदर्भ में इसे समझें -

आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः।।

और,

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाऽहमहमौषधम्।

मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निः अहं हुतम्।।१६।।

Gita Chapter 9, verse 16,

इन दोनों उद्धरणों में "क्रतुः:" शब्द का प्रयोग है।

अब मन्त्र को इस रूप में देखें -

भद्रा क्रतवः नो यन्तु आविश्वतः।।

विश्व का अर्थ है समष्टि, सब ओर। भद्रा अर्थात् शुभ। आ उपसर्ग का प्रयोग 'संपूर्ण' के अर्थ में होता है।

"नो" या "नः" अस्मद् पद की द्वितीया विभक्ति बहुवचन। क्रतवः, क्रतु पद का प्रथमा विभक्ति बहुवचन है।

प्रथम विभक्ति  - संज्ञासूचक - Nominative Case,

द्वितीया विभक्ति  - कर्मकारक - Accusative Case,

बहुवचन - plural,

आ - उपसर्ग - Prefix - meaning - form all directions.

अस्मद् - उत्तम पुरुष - First Person,

विचार / वृत्ति - Thought,  Feeling,  emotion, sentiment, thinking, any state and / or mode of the conscious mind.

क्रतुः / संकल्प - Will, Desire, Intention.

भद्रा - भद्राः - शुभ - Auspicious / noble,

यन्तु - या - याति धातु, लोट् लकार (आज्ञार्थ), अन्य पुरुष बहुवचन रूप -

"May" - for expressing the wish :

For example such as in : 

"May God Bless you!" 

The simple meaning is :

May auspicious / noble thoughts come to us from all directions.

अहं  as in Gita Chapter 10, verse 20,

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।

अहमादिश्च मध्यश्च भूतानामन्त एव च।।२०।। 

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Thursday, May 8, 2025

THE ACTION.

2/49, 3/27, 4/13, 5/14, 5/15, 5/16, 15/15

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अध्याय २

सञ्जय उवाच 

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप। 

योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।  

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

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अध्याय ३

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।२७।।

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अध्याय ४

श्रीभगवानुवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान् अहं अव्ययम्। 

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एव मया तेऽद्य योगो प्रोक्तः पुरातनम्। 

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच :

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच :

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तानि अहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्यापि कर्तारं मां विद्धि अकर्तारमव्ययम्।।१३।।

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अध्याय ५

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः। 

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

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अध्याय १५

सर्वस्य अहं हृदि संनिविष्टो

मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। 

वेदैश्च सर्वैः अहम्  एव वेद्यो

वेदान्तकृत् वेदविदेव च अहम्।।१५।।

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अध्याय १८

यदहङ्कारमाश्रित्य  योत्स्य इति मन्यसे।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

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उपरोक्त सभी श्लोकों में दृष्टव्य है कि संस्कृत भाषा का प्रयोग इस कुशलता से किया गया है कि किसी भी अन्य भाषा में वह तात्पर्य आँखों से ओझल हो जाता है। सभी श्लोकों में अहं पद का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन में उसकी भिन्न भिन्न विभक्तियों में है जबकि क्रियापद वहाँ दिखाई नहीं देता। जैसे कि हिन्दी भाषा में :

'मैं हूँ' और 'मैं था' जैसे वाक्यों में सहायक क्रिया :

'हूँ' या 'था' से वर्तमान काल या भूतकाल का बोध होता है, संस्कृत भाषा के इन श्लोकों में इस अर्थ का द्योतक कोई शब्द ही नहीं दिखाई देता है और इसलिए इनका अनुवाद किसी दूसरी भाषा में करते ही संस्कृत श्लोक के मूल अर्थ पर ध्यान तक नहीं जा पाता। 

इस बारे में इस या दूसरे ब्लॉग्स में भी विस्तार से लिख चुका हूँ। संक्षेप में यदि इस ओर ध्यान न दिलाया जाए तो कभी यह किसी को सूझता ही नहीं कि 'अहं' पद का प्रयोग उत्तम पुरुष और अन्य पुरुष एकवचन दोनों प्रकार से ग्राह्य हो सकता है।

उदाहरण के लिए -

तानि अहं  वेद सर्वाणि 

में अहं शब्द "मैं" (अर्थात् आत्म / आत्मा) या "वह" (अर्थात् आत्म / आत्मा) के रूप में :

उत्तम पुरुष एकवचन या अन्य पुरुष एकवचन दोनों ही दृष्टियों से व्याकरण-सम्मत है।

क्योंकि "वेद" शब्द 'विद्'  धातु  के लट् लकार का यही रूप है। तात्पर्य यह कि :

अहं वेद 

का अर्थ "मैं जानता हूँ।"  तथा "आत्मा जानता है।" इन दोनों रूपों में ग्रहण किया जा सकता है। तो,  "हूँ" के साथ साथ या अतिरिक्त "है" शब्द भी पूर्णतः उपयुक्त है।

अध्याय ४ के १३वें तथा अध्याय ५ के तीनों ही श्लोकों का अभिप्राय और निहितार्थ भी यही है कि "कर्म" (तथा कर्ता एवं कर्तृत्व भी) केवल मान्यता या कल्पना हैं, और उनकी कोई पारमार्थिक सत्यता नहीं हो सकती है।

अध्याय ५ के श्लोकों में एक ही आत्मा के लिए क्रमशः "प्रभुः" और "विभु:" के प्रयोग से स्पष्ट है कि "ईश्वर" तथा "जीव" का भेद भी मानसिक कल्पना में ही संभव है, न कि वास्तविक है।

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