मानसपुत्र
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।१६।।
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।१७।।
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।१६।।
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते।।६२।।
क्रोधाद्भवति सम्मोहं सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्-बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।६३।।
वह अविनाशी जिससे और जिसमें कि समस्त अस्तित्व ओत-प्रोत है, उसे ही निरपेक्ष ब्रह्म कहा जाता है। और यह जो कहनेवाला है वह सापेक्ष ब्रह्म है। इस प्रकार उस निरपेक्ष ब्रह्म की अभिव्यक्ति सापेक्ष ब्रह्म में और सापेक्ष ब्रह्म का विलय निरपेक्ष ब्रह्म में पुनः पुनः होता रहता है।चूँकि दोनों ही स्थितियों में ब्रह्म ही वह अविनाशी तत्व है जिससे और जिसमें वह स्वयं व्याप्त है इसलिए सापेक्ष ब्रह्म को ब्रह्मा (आ-ब्रह्म) कहते हैं और इसलिए यही वह व्यक्त ब्रह्म है जिसका आगमन उस निरपेक्ष अव्यक्त ब्रह्म से, तथा फिर विलय भी पुनः उसी निरपेक्ष अव्यक्त ब्रह्म में होता रहता है। (और लगता है "अब्राहम" शायद इसी "आ-ब्रह्म" का अपभ्रंश होगा। क्योंकि यह भी तो कहा जाता है कि अब्राहम ही सबसे पहले Prophet थे! और यदि ऐसा न हो और यह शब्द कहीं अन्यत्र से आया हो तो इसकी जानकारी मुझे नहीं है।)
ब्रह्मा शुद्ध बोध अर्थात् वह चेतना है वह बहिर्मुख चित्त-रूपी-ध्यान (attention) है जो अपने हृदयान्तर में स्थित परमात्मा से निःसृत होकर और अपने से बहिर्मुख होकर बाहर की (कल्पित) दिशा में चला गया है। इसी बहिर्मुख चेतना का नाम ब्रह्मा है जिससे चेतन जीवसृष्टि हुई, जिसमें असंख्य चेतना-युक्त वे देहधारी जन्म लेते हैं, जो जीवन व्यतीत करते हुए अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। और इन सभी चेतना-युक्त देहधारियों में (मूलतः अन्तर्मुख) चेतना के बहिर्मुख हो जाने से उन्हें स्वयं अपने आपका सबसे भिन्न एक स्वतंत्र अस्तित्व है यह आभास होने लगता है।
ब्रह्मा के मानस से उद्भूत मन-रूपी इन्हीं चार मानसपुत्रों के नाम क्रमशः सनक्, सनन्दन, सनत् और सनत् कुमार हैं। सनक हैं बुद्धि का उन्मेष जिसे अंग्रेजी में cynic कहा जाता है और प्रचलित भाषा में साधारणतः उसे ही 'सनक' भी कहते हैं।
अपने शुद्ध रूप में यही 'अहं-स्फुर्णा' भी है जिसमें अपने से भिन्न किसी बाह्य वस्तु के अस्तित्व का भान तक नहीं उत्पन्न हुआ होता है। अपने शुद्ध अस्तित्व में रमण करता हुआ उसमें मग्न यही वह मन है जो कि गहरी सुषुप्ति की दशा में इस आनन्द का उपभोग किया करता है। यही है - आनन्दमय कोष। इसे ही नन्दन भी कह सकते हैं। इसी का तीसरा रूप है सनत् अर्थात् "होता हुआ"। "गच्छत्" शब्द का अर्थ जिस प्रकार से - "जाता हुआ" है, वैसे ही "सनत्" सन् धातु का "शतृ" प्रत्यय से बना रूप है। और सनत् कुमार उसका ही विकास और विस्तार है।
इसे हम "ध्यान" के बहिर्मुख होने और बाह्य विषयों के चिन्तन में संलग्न होने के अर्थ में "ध्यायन्" के "ध्यायतः" संज्ञारूप में समझ सकते हैं जिसका अर्थ है ध्यान करते हुए मनरूपी - पुंसः -पुरुष का। अर्थात् जैसे ही ध्यान या वृत्ति बहिर्मुख हो जाती है, किसी विषय के संग होते ही उससे संलग्न हो जाती है। फिर कामना उत्पन्न होती है क्योंकि तब उस आनन्द की प्रतीति होना बन्द हो जाता है जिसका उपभोग सुषुप्ति के समय हो रहा था। बाह्य विषयों में सुख की प्राप्ति होने की कल्पना और आशा ही "काम" या कामना अर्थात् इच्छा कहलाती है, और जब किसी विषय से सुख प्राप्त होने के स्थान पर दुःख प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता है तो उस विषय से द्वेष उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार, इच्छा और द्वेष काम के ही पर्याय हैं और उन दोनों की उत्पत्ति के साथ उनके इस द्वन्द्व से प्रत्येक ही जीव की बुद्धि उसके जन्म से ही मोहग्रस्त हो जाया करती है। और कोई भी जीवधारी इसका अपवाद नहीं होता है। यही सनत् कुमार हैं।
सनक, सनन्दन, सनत् और सनत् कुमार यही ब्रह्मा के चार मानसपुत्र हैं।
कामना के पूर्ण हो जाने पर दूसरी कोई कामना उठती है और कामना अपूर्ण रह जाने पर विषाद उत्पन्न होता है। विषाद ही क्रोध बन जाता है और तब बुद्धि संमोहित या अत्यन्त मोहित utterly confused) हो जाती है। ऐसी स्थिति में स्मृति गड़बड़ा जाती है, विवेक नष्ट हो जाता है और बुद्धि कार्य करना बन्द कर देती है।
यह भी कहा जाता है कि एक बार ब्रह्मा (जी) के ये चारों पुत्र कहीं जा रहे थे। रास्ता जिस वन से गुजरता था वहाँ पार्वती जी भगवान् शिव के साथ विराजित थीं। ये चारों ऊपर सिर उठाए आकाश को देखते हुए अभिमानपूर्वक चले जा रहे थे और भगवान् शिव तथा पार्वती की तरफ उन्होंने दृष्टि तक नहीं डाली। भगवान् शिव तो समाधि में डूबने थे इसलिए इन चारों पर उनका ध्यान ही नहीं गया, किन्तु माता पार्वती से भगवान् शिव की उपेक्षा देखी नहीं गयी। उन्होंने उन चारों को शाप दिया कि तुम इस तरह उद्धत होकर सिर उठाए ऊँट की तरह चले जा रहे हो, तो जाओ ऊँट ही हो जाओ! और वे चारों ऊँट हो गए। बहुत समय तक वन में चरते चरते उन्होंने पूरा वन चर लिया और संयोगवश एक बार फिर उसी स्थान पर आ पहुँचे। माता पार्वती ने उन्हें देखा तो कौतूहलपूर्वक पूछा -
"ऊँट की तरह जीना कैसा लग रहा है?"
वे बोले -
"मजा ही मजा है, जब धरती पर घास पत्ते समाप्त हो जाते हैं तो दूसरे पशु भूख से मरने लगते हैं, किन्तु हमें तब भी खाने के लिए भरपेट मिल जाता है!"
तब माता पार्वती ने करुणा करते हुए उन्हें पुनः मनुष्य हो जाने का आशीर्वाद दे दिया।
(यह कथा अभी कुछ दिनों पहले ही पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी के किसी वीडियो में सुनी थी।)
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