Thursday, May 22, 2025

Ego and Alter-ego.

Wherefrom comes the Thought?

विचार कहाँ से आते हैं?

इस प्रश्न को सुधारकर इस रूप में पूछा जा सकता है -

विचार / संकल्प कहाँ से उठता है?

और फिर यह देखा जा सकता है कि समस्त विचार और संकल्प भी समष्टि से ही उठते और विलीन होते हैं और पुनः समष्टि में ही विलीन भी हो जाया करते हैं। मनुष्य का मन जितना ही अधिक बहिर्मुख, अव्यवस्थित और अराजक होगा विचारों और संकल्पों की शक्ति उतनी ही अधिक विभाजित हो जाएगी, और उनमें से जो विचार या संकल्प उस समय सर्वाधिक शक्तिशाली होगा वह शेष सभी को अभिभूत कर चित्त की सतह पर सबसे ऊपर उमर आएगा। विचार संकल्पयुक्त या संकल्परहित भी हो सकता है। यह इस पर निर्भर है कि मन का ध्यान किस विषय पर और कितना संलग्न है। संकल्प का अर्थ है - कामना, जबकि विचार का अर्थ है - बुद्धि की सक्रियता।

कामना का आगमन व्यक्ति की स्मृति से होता है, जबकि बुद्धि की सक्रियता एक शुद्धतः यांत्रिक गतिविधि होती है। एक कंप्यूटर भी कामनारहित होकर कार्य करता है, जबकि मनुष्य प्रायः किसी न किसी कामना से ही प्रेरित होता है और उसकी बुद्धि कामना को पूर्ण करने के लिए ही उस समय सक्रिय होती है।

इस प्रकार विचार और कामना के संयोग से ही मनुष्य के द्वारा कोई "कर्म" घटित होता है। यह जानना भी इतना भी महत्वपूर्ण और रोचक है कि केवल अज्ञान से मोहित बुद्धि में ही अहंकार नामक वस्तु को कामना और बुद्धि से संयुक्त कर "मैं चाहता हूँ" और "मैं सोचता हूँ" जैसी कल्पनाएँ चित्त में पैदा होती हैं। दूसरे शब्दों में - मनुष्य में अपने स्वयं के स्वतंत्र रूप से कामना और कर्म के कर्ता होने का भ्रम उत्पन्न होता है। और इससे भी अधिक बड़ा आश्चर्य यह कि मनुष्य का ध्यान इस पर कभी नहीं जाता है कि "अपने स्वयं" के अस्तित्व को वह किस प्रकार से, किस रूप में होने को जानता है और स्वयं के 'वह' होने का दावा करता है! स्पष्ट है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि अहंकार सदैव किसी न किसी वस्तु, विचार, कामना या विषय के संबंध में ही अस्तित्व ग्रहण कर सकता है और विषयमात्र के अभाव में सुषुप्ति या मूर्च्छा में चला जाता है। जब यह सुषुप्त नहीं होता उस समय यह जागृत या स्वप्न की स्थिति में होता है। यही व्यक्ति की अपनी स्मृति और विशिष्ट पहचान भी होती है और स्मृति और पहचान एक ही वस्तु के दो नाम ही हैं। पहचान और स्मृति दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं। स्मृति है तो ही किसी भी विषय की या 'अपने आप' की पहचान हो सकती है, और पहचान है, तो ही स्मृति हो सकती है।

इसी आधार पर विचार और संकल्प, कामना, बुद्धि और 'कर्म' को भी परिभाषित किया जा सकता है।

अब हम एक वेदमन्त्र और गीता के अध्याय ९ के एक श्लोक के संदर्भ में इसे समझें -

आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः।।

और,

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाऽहमहमौषधम्।

मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निः अहं हुतम्।।१६।।

Gita Chapter 9, verse 16,

इन दोनों उद्धरणों में "क्रतुः:" शब्द का प्रयोग है।

अब मन्त्र को इस रूप में देखें -

भद्रा क्रतवः नो यन्तु आविश्वतः।।

विश्व का अर्थ है समष्टि, सब ओर। भद्रा अर्थात् शुभ। आ उपसर्ग का प्रयोग 'संपूर्ण' के अर्थ में होता है।

"नो" या "नः" अस्मद् पद की द्वितीया विभक्ति बहुवचन। क्रतवः, क्रतु पद का प्रथमा विभक्ति बहुवचन है।

प्रथम विभक्ति  - संज्ञासूचक - Nominative Case,

द्वितीया विभक्ति  - कर्मकारक - Accusative Case,

बहुवचन - plural,

आ - उपसर्ग - Prefix - meaning - form all directions.

अस्मद् - उत्तम पुरुष - First Person,

विचार / वृत्ति - Thought,  Feeling,  emotion, sentiment, thinking, any state and / or mode of the conscious mind.

क्रतुः / संकल्प - Will, Desire, Intention.

भद्रा - भद्राः - शुभ - Auspicious / noble,

यन्तु - या - याति धातु, लोट् लकार (आज्ञार्थ), अन्य पुरुष बहुवचन रूप -

"May" - for expressing the wish :

For example such as in : 

"May God Bless you!" 

The simple meaning is :

May auspicious / noble thoughts come to us from all directions.

अहं  as in Gita Chapter 10, verse 20,

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।

अहमादिश्च मध्यश्च भूतानामन्त एव च।।२०।। 

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