~~प्रवृत्ति तथा निवृत्तिपरक दो प्रकार की बुद्धियाँ ~~
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गीता के भगवान् शंकराचार्य लिखित भाष्य अध्याय ३, के प्रारंभ में कहा गया है,
''शास्त्रस्य प्रवृत्ति-निवृत्तिभूते द्वे बुद्धी भगवता निर्दिष्टे, सांख्ये बुद्धि: योगे बुद्धि: इति च । ''
अर्थात्, इस गीताशास्त्र के द्वितीय अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा जिन दो प्रकार की बुद्धियों का उल्लेख
किया गया है, वे हैं;
प्रवृत्तिपरक योगबुद्धि, एवं
निवृत्तिपरक सांख्यबुद्धि ।
ये दोनों अभ्यास के लिए पूर्व-निष्ठा के अनुसार साधकों की पात्रता के अनुसार हैं ।
जब तक मनुष्य का आग्रह यह रहता है कि मैं एक स्वतंत्र कर्त्ता हूँ, मैं अपनी बुद्धि, विवेक या इच्छा के अनुसार कर्मकरने के लिए स्वतंत्र हूँ, तब तक उसे चाहिए कि वह यथासंभव चित्तशुद्धि के लिए उपाय करे । और इसके लिएसहायक हैं, विविध प्रकार की उपासनाएँ । जिसमें भी उसकी रुचि हो, श्रद्धापूर्वक उसे करने से क्रमश: चित्त की शुद्धिहो जाती है । इस प्रकार उसे क्या करूँ क्या न करूँ, इस द्वंद्व से भी मुक्ति मिल जाती है ।
अध्याय ३ श्लोक ८ में कहा गया है,
''नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण: ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण: ॥ ''
फिर अध्याय ३ में ही श्लोक ९ श्लोक में सावधान करते हुए यह भी कहा है,
'' यज्ञार्थात्कर्मणोSन्यत्र लोकोSयं कर्मबंधन: ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर ॥ ''
यज्ञ का तात्पर्य है, जिससे संपूर्ण विश्व का कल्याण अर्थात् हित हो । इसे ही अगले ही श्लोक में स्पष्ट करते हुए,
''सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोSस्त्विष्टकामधुक ॥ ''
सृष्टि के आदिकाल में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर प्रजापति ने कहा, कि इस यज्ञ से तुम वृद्धि को प्राप्त करो ।
यह यज्ञ तुम लोगों को इष्ट कामनाओं की प्राप्ति में साधन होगा । तात्पर्य स्पष्ट है कि यज्ञ कर्मस्वरूप है ।
इस समय पात्रता के संबंध से आवश्यक उल्लेख किया गया ।
चित्त-शुद्धि पूर्ण हो जाने पर मनुष्य में आत्म-जिज्ञासा का उद्भव होता है । तब उसके चित्त में बुद्धि से प्रेरित,
'' मैं स्वतंत्र कर्त्ता हूँ । '' अपने इस निष्कर्ष पर प्रश्न उठता है, और जिसे 'मैं' कहा जा रहा है, वह वस्तु क्या है, याउसका यथार्थ तत्त्व क्या है, इस बारे में वह खोज-बीन करता है । तब उसे ज्ञात होता है कि
१/जिसे बुद्धि 'मैं' कहती है, वह तत्त्व, यद्यपि देह से सदैव संयुक्त रहनेवाली कोई वस्तु है, किन्तु देह उसे नहींजानती, बल्कि वही देह को जानता है । क्योंकि देह 'जड' है, जबकि 'मैं' चेतन है ।
२/जिसे बुद्धि 'मैं' कहती है, वह तत्त्व, यद्यपि मन से सदैव संयुक्त रहनेवाली कोई वस्तु है, किन्तु 'मन' उसे नहींजानता, बल्कि वही 'मन' को जानता है । क्योंकि जिसे 'मन' कहा जाता है, अर्थात् भाव, भावनाएँ, स्मृति, आदि मनकी विभिन्न और समस्त चित्तवृत्तियाँ, मनुष्य की बुद्धि अपने-आपको उनसे अलग जानती है, और मनुष्य स्पष्ट रूपसे इसे भी जानता है, कि उसका मन सतत बदलता रहता है, जबकि मन को जाननेवाली बुद्धि, मन की अपेक्षास्थिर होती है ।
३/ किन्तु जिसे बुद्धि 'मैं' कहती है, स्वयं बुद्धि भी उसके ही आश्रय से कार्यरत होती है, या कार्य नहीं करती । वहचेतन तत्त्व बुद्धि को भी जानता है, और उसके ही आश्रय से मनुष्य 'मेरी बुद्धि' कहता है । तात्पर्य यह, कि मनुष्य मेंयह बोध स्वाभाविक रूप से होता है कि 'मैं' बुद्धि को जाननेवाला तत्त्व 'है', न कि बुद्धि ।
४/इस प्रकार जिसे बुद्धि 'मैं' कहती है, वह उस 'मैं' की शक्ति से ही ऐसा कह पाती है । और वह शक्ति, बुद्धि जिसे 'मैं' कहती है, चेतन तत्त्व है, जिसकी तुलना में बुद्धि अपेक्षाकृत 'जड' है ।
५/ बुद्धि तथा देह में स्थित अन्य सभी अवयवों के कार्य प्राण की शक्ति से ही संपन्न होते हैं . एक ओर जहाँ बुद्धि केसचालन में भी प्राण (शक्ति) का होना आवश्यक है, वहीं प्राणों के द्वारा होने के सत्य को बुद्धि में ही ग्रहण क्या जाताहै । इस प्रकार प्राण और बुद्धि, तथा प्राण और दूसरे सारे अवयव परस्पर अन्योन्याश्रित हैं । फिर भी सूक्ष्मता कीदृष्टि से, वे सभी जड हैं और एक 'चेतन' तत्त्व की विद्यमानता में ही उनके क्रियाकलाप संभव और प्रमाणित भी होसकते हैं ।
क्या उस चेतन तत्त्व के अतिरिक्त कोई दूसरा 'मैं' हो सकता है ? अर्थात्,
६ / क्या मनुष्य में 'दो' 'मैं' होते हैं ?
प्रत्येक मनुष्य सहज रूप से जानता ही है, कि वह सदैव वही-एक है ।
यह बोध उसे दूसरों से नहीं प्राप्त होता । और वह ऐसी कल्पना स्वप्न तक में भी नहीं कर सकता कि वह 'दो' या, 'एक से अधिक' कुछ है ।
इस प्रकार सामान्य वैचारिक विवेचना से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि यह 'चेतन' तत्त्व ही वह वस्तु है, जिसे मनुष्यमैं' कहता है । किन्तु देह तथा दूसरे अवयवों के द्वारा इससे शक्ति प्राप्त कर इसके ही अंतर्गत कार्यरत रहने से बुद्धिमें यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि 'मैं', -'यह' अथवा 'वह' हूँ ।
यदि यह प्रश्न करें कि उस चेतन का प्रमाण क्या ? तो हम एक अंतहीन और विसंगत प्रश्नक्रम में फँस जाते हैं ।
इस प्रकार यह स्पष्ट ही है कि वह चेतन तत्त्व अपना प्रमाण आप ही है ।
इस प्रकार मनुष्य में विद्यमान चेतन तत्त्व, जो निराकार है, सदैव एकमेव है, और उस निराकार चेतनता के हीप्रकाश में, उसकी ही शक्ति से बुद्धि, मन इन्द्रियाँ, और स्थूल देह आदि कार्य में प्रवृत्त हो सकते हैं । यद्यपि वह तत्त्वउनकी किसी भी क्रिया में भाग नहीं लेता, और सदैव एक दृष्टा की भाँति उपस्थित रहता है, देह, मन, बुद्धि, इन्द्रियोंतथा प्राण भी, इन विविध अवयवों के समुच्चय से हम व्यावहारिक जगत के अंतर्गत अपनी और इसी प्रकार से'दूसरों' की भी एक आभासी स्वतंत्र सत्ता है, इस मान्यता से ग्रस्त हो जाते हैं ।
कर्मप्रवृत्ति से प्रेरित साधक योगबुद्धि वाला होने से योगमार्ग का साधक होने का पात्र होता है, जबकि उपरोक्तविवेचन से ग्रहण किये जानेवाले एकमात्र चेतन तत्त्व को ही 'मैं' के यथार्थ स्वरूप की तरह ग्रहण करनेवाला सांख्यअर्थात् ज्ञानमार्ग का साधक होने का पात्र होता है ।
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Geetaa : The Song Celestial. Inspirations, and Aspirations.
Friday, March 19, 2010
Tuesday, March 9, 2010
ईश्वर -4 .
~~~~~~~~~~~ईश्वर -4~~~~~~~~
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गीता में जिसे ईश्वर-तत्त्व कहा गया है, उसकी दो प्रकृतियों का निरूपण है । वे दो प्रकृतियाँ हैं,
१- अपरा
२-परा
इन्हें हम क्रमश:
1. Manifest Reality,
2. Transcendent Reality
कह सकते हैं ।
अपरा प्रकृति के अंतर्गत जगत और असंख्य जीवों की सृष्टि, परिपालन और प्रलय होता रहता है, जबकि ईश्वर की परम अवस्थिति, परम धाम, इससे परे है ।
इस सन्दर्भ में गीता के निम्न दो श्लोक विचारणीय हैं :
अध्याय ७, श्लोक ४,
भूमिरापोSनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
तथा,
अध्याय ७, श्लोक ५,
अपरेयमिस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परां ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत ॥
इस प्रकार गीता में यह स्पष्ट है, कि 'जीव' (अहंकार) भी, भूमि, आप (जल), वायु, आकाश, मन, बुद्धि और ईश्वर की ही आठ प्रकार की प्रकृति की एक अभिव्यक्ति है ।
पुन: अध्याय १०, श्लोक २२ में,
वेदानां सामवेदोSस्मि देवानामस्मि वासव: ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥
एवं अध्याय १३, श्लोक ६ में,
इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृति: ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतं ॥
उस एकमात्र कड़ी का उल्लेख है, जिसके माध्यम से ईश्वर और जीव परस्पर अनन्य अर्थात् अभिन्न हैं । वह कड़ी है --चेतना । जहाँ जीव में यह कड़ी (चेतना) अहंकार, मन, बुद्धि, आदि से संयुक्त होने से उसमें अपने एक पृथकअस्तित्त्व होने का भ्रम उत्पन्न कर देती है, वहीं ईश्वर इस भ्रम से रहित है । उसकी चेतना और जीव की चेतना का प्रधान भेद यही है ।
यह भी देखना होगा कि जैसे हम 'चेतना' शब्द का प्रयोग प्राय: और अनजाने ही मन तथा बुद्धि के लिए भी करते हैं, वह वास्तव में त्रुटिपूर्ण है, और वह हमारे अज्ञान को और भी दृढ़ बनाए रखता है । जीव (से जुडी चेतना) तो मन-बुद्धि, धृति और अहंकार (अहं-बुद्धि) से संपन्न है, जबकि ईश्वर में निहित चेतना इन सब अवयवों से रहित है ।
इस प्रकार से जब हम 'चेतना' के स्वरूप को समझ लेते हैं और उसे ही ईश्वर के तत्त्व को जानने के एकमात्र माध्यम की तरह देखने लगते हैं, तो एक प्रश्न और सामने आता है ।
'चेतना' विषयपरक यथार्थ (Objective Reality) है, या 'स्वपरक' यथार्थ (Subjective Reality) है ?
या वह एक साथ दोनों है ?
जीव की बुद्धि इस संबंध में आदि 'माया' के आवरण से ग्रस्त होने से संशयग्रस्त रहती है, और 'अहंकार' से प्रेरित होकर अपने को जन्म-मृत्यु, सुख-दु:ख जरा-व्याधि से ग्रस्त अनुभव करती है । इस अहंकार को भी चेतना ही प्रकाशित करती है, और जीव स्वयं को आभासी अज्ञान के बंधन में जकड़ा पाता है । यदि वह चेतना के शुद्ध स्वरूप पर ध्यान दे, तो उसका संशय दूर हो जाता है । चूँकि जन्म से ही मनुष्य 'मोहबुद्धि' लेकर संसार में आता है, इसलिए उसे यह सब सूझता ही नहीं । अत: एक बार पुन: हम इस श्लोक पर आयें :
अध्याय७, श्लोक २७,
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत: ।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥
इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि अज्ञान ही जन्म का एकमात्र कारण है ।
किन्तु, मोहबुद्धि के कारण इस अज्ञान का निवारण बहुत कठिन होता है । इसलिए 'पात्रता' की प्राप्ति हेतु पहले चित्त-शुद्धि होना आवश्यक है ।
चित्त-शुद्धि जहाँ एक ओर अपरिहार्यत: आवश्यक है, वहीं संसार के समस्त पदार्थों और उनमें प्रतीत होनेवाले समस्त सुखों की अनित्यता और नित्य क्या है इस जिज्ञासा का उत्पन्न होना भी उतना ही आवश्यक है ।
और स्पष्ट है कि यदि ये योग्यताएँ हममें हैं तो हम दु:खों की आत्यंतिक निवृत्ति की आकांक्षा से प्रवृत्त होकर, या 'नित्य क्या है ?', इसकी जिज्ञासा से प्रेरित होकर गीता से मार्गदर्शन पाने का प्रयास करेंगे ।
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>>>>> सांख्य और योग के अनुसार मनुष्य की पात्रता >>>>>
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गीता में जिसे ईश्वर-तत्त्व कहा गया है, उसकी दो प्रकृतियों का निरूपण है । वे दो प्रकृतियाँ हैं,
१- अपरा
२-परा
इन्हें हम क्रमश:
1. Manifest Reality,
2. Transcendent Reality
कह सकते हैं ।
अपरा प्रकृति के अंतर्गत जगत और असंख्य जीवों की सृष्टि, परिपालन और प्रलय होता रहता है, जबकि ईश्वर की परम अवस्थिति, परम धाम, इससे परे है ।
इस सन्दर्भ में गीता के निम्न दो श्लोक विचारणीय हैं :
अध्याय ७, श्लोक ४,
भूमिरापोSनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
तथा,
अध्याय ७, श्लोक ५,
अपरेयमिस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परां ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत ॥
इस प्रकार गीता में यह स्पष्ट है, कि 'जीव' (अहंकार) भी, भूमि, आप (जल), वायु, आकाश, मन, बुद्धि और ईश्वर की ही आठ प्रकार की प्रकृति की एक अभिव्यक्ति है ।
पुन: अध्याय १०, श्लोक २२ में,
वेदानां सामवेदोSस्मि देवानामस्मि वासव: ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥
एवं अध्याय १३, श्लोक ६ में,
इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृति: ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतं ॥
उस एकमात्र कड़ी का उल्लेख है, जिसके माध्यम से ईश्वर और जीव परस्पर अनन्य अर्थात् अभिन्न हैं । वह कड़ी है --चेतना । जहाँ जीव में यह कड़ी (चेतना) अहंकार, मन, बुद्धि, आदि से संयुक्त होने से उसमें अपने एक पृथकअस्तित्त्व होने का भ्रम उत्पन्न कर देती है, वहीं ईश्वर इस भ्रम से रहित है । उसकी चेतना और जीव की चेतना का प्रधान भेद यही है ।
यह भी देखना होगा कि जैसे हम 'चेतना' शब्द का प्रयोग प्राय: और अनजाने ही मन तथा बुद्धि के लिए भी करते हैं, वह वास्तव में त्रुटिपूर्ण है, और वह हमारे अज्ञान को और भी दृढ़ बनाए रखता है । जीव (से जुडी चेतना) तो मन-बुद्धि, धृति और अहंकार (अहं-बुद्धि) से संपन्न है, जबकि ईश्वर में निहित चेतना इन सब अवयवों से रहित है ।
इस प्रकार से जब हम 'चेतना' के स्वरूप को समझ लेते हैं और उसे ही ईश्वर के तत्त्व को जानने के एकमात्र माध्यम की तरह देखने लगते हैं, तो एक प्रश्न और सामने आता है ।
'चेतना' विषयपरक यथार्थ (Objective Reality) है, या 'स्वपरक' यथार्थ (Subjective Reality) है ?
या वह एक साथ दोनों है ?
जीव की बुद्धि इस संबंध में आदि 'माया' के आवरण से ग्रस्त होने से संशयग्रस्त रहती है, और 'अहंकार' से प्रेरित होकर अपने को जन्म-मृत्यु, सुख-दु:ख जरा-व्याधि से ग्रस्त अनुभव करती है । इस अहंकार को भी चेतना ही प्रकाशित करती है, और जीव स्वयं को आभासी अज्ञान के बंधन में जकड़ा पाता है । यदि वह चेतना के शुद्ध स्वरूप पर ध्यान दे, तो उसका संशय दूर हो जाता है । चूँकि जन्म से ही मनुष्य 'मोहबुद्धि' लेकर संसार में आता है, इसलिए उसे यह सब सूझता ही नहीं । अत: एक बार पुन: हम इस श्लोक पर आयें :
अध्याय७, श्लोक २७,
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत: ।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥
इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि अज्ञान ही जन्म का एकमात्र कारण है ।
किन्तु, मोहबुद्धि के कारण इस अज्ञान का निवारण बहुत कठिन होता है । इसलिए 'पात्रता' की प्राप्ति हेतु पहले चित्त-शुद्धि होना आवश्यक है ।
चित्त-शुद्धि जहाँ एक ओर अपरिहार्यत: आवश्यक है, वहीं संसार के समस्त पदार्थों और उनमें प्रतीत होनेवाले समस्त सुखों की अनित्यता और नित्य क्या है इस जिज्ञासा का उत्पन्न होना भी उतना ही आवश्यक है ।
और स्पष्ट है कि यदि ये योग्यताएँ हममें हैं तो हम दु:खों की आत्यंतिक निवृत्ति की आकांक्षा से प्रवृत्त होकर, या 'नित्य क्या है ?', इसकी जिज्ञासा से प्रेरित होकर गीता से मार्गदर्शन पाने का प्रयास करेंगे ।
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>>>>> सांख्य और योग के अनुसार मनुष्य की पात्रता >>>>>
Sunday, March 7, 2010
ईश्वर / 3.
~~~~~~~~~ईश्वर -3 ~~~~~~~~~~
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............जीव, जगत, और ईश्वर..........
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जीव और जगत शुद्धत: विषयपरक सत्ताएँ हैं । वे इन्द्रिय-ग्राह्य तत्त्व हैं । उनका ग्रहण इन्द्रियों के माध्यम से हीहोता है । किन्तु इन्द्रियों का ग्रहण किस माध्यम से होता है, और 'किसके' द्वारा किया जाता है ? सामान्य शब्दों मेंकहें तो जीव के द्वारा, या यदि कहें कि एक चेतन तत्त्व द्वारा, तो वह अधिक उपयुक्त होगा । चेतन-तत्त्व भी पुन:, किसी देह-विशेष से संयुक्त है, यह भी मानना ही होगा । वह चेतन-तत्त्व किसी देह-विशेष को प्रथमत: और ऐसी दूसरी देहों सहित समूचे जगत को इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण करता है । वह चेतन जगत को 'विषय-रूप' में, और'अपने-आप' को 'मैं' के रूप में स्वीकार करता है । इस प्रकार प्रत्येक देह से संलग्न चेतन-तत्त्व अपने-आपको एक विशिष्ट देह से बद्ध, जगत को विषयपरक रूप से जाननेवाली सत्ता की रूप में अनुभव करता है । उसे यह भी ज्ञातहोता है कि वह देह नहीं, बल्कि देह को 'जाननेवाला' है, किन्तु वह इस सरल से स्वभाव से ही ज्ञात सत्य को भूलजाता है, और चूँकि जगत में उसे निरंतर देह के ही माध्यम से व्यवहार करना होता है, इसलिए वह देह को ही 'मैं' केविकल्प की भाँति प्रयोग करने लगता है । दूसरी ओर, स्वयं अपने सन्दर्भ में, वह देह को अपनी 'देह' कहते हुए उसेअपने स्वामित्त्व की एक वस्तु की तरह 'विषयपरक' रीति से भी जानता है । क्योंकि वह अपनी देह को भी इन्द्रियों के माध्यम से ही तो जानता है । 'अपने-आप' को वह विषयपरक रीति से कभी नहीं जान सकता, क्योंकि उस स्थिति में उसे स्वयं को विषय और विषयी (known and know-er, 'object' and 'subject') में विभाजित करनाहोगा । जो कि, स्पष्ट ही है कि असंभव है । कोई भी चेतन सत्ता, अपने-आपको 'दो' की भाँति अनुभव नहीं कर सकती । अपना ज्ञान तो उसे प्रथमत: है ही, किन्तु वह ज्ञान बौद्धिक जानकारी, निश्चय-परक, निष्कर्षात्मकस्मृति, या अनुभव नहीं होता । वह ज्ञान एक प्रकार का स्वाभाविक बोध है, जिसमें इन्द्रियों के द्वारा विषय का ज्ञान होता है । किन्तु बाद में विषयों के सन्दर्भ में अपना एक और द्वैतीयिक (secondary) ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । चूँकि चेतन तत्त्व मूलत: एक ही है, अत: इस द्वैतीयिक ज्ञान की भूमिका के रूप में यह 'एकत्व-बुद्धि' जगत से अपने 'एक' भिन्न 'ज्ञाता' होने का आग्रह उत्पन्न करती है । यह बुद्धि मूलत: त्रुटिपूर्ण ज्ञान अथवा मोहबुद्धि है, इसलिएदेह से संयुक्त चेतन तत्त्व के आश्रय से यह देह के रूप में अपना अस्तित्त्व चेतन तत्त्व पर आरोपित कर लेती है । इसप्रकार की भावनारूपी मिथ्या तादात्म्य को ही देहात्म-बुद्धि, अर्थात् मैं देह हूँ ऐसी बुद्धि कहा जाता है । बाद में कुछ अन्य भावनाओं से, स्मृति में स्थापित की गयी अपनी मिथ्या पहचान से यह भावना अधिक दृढ होने लगती है । फिर '' कर्त्ता कौन है ?'', इस प्रश्न पर चिंतन किये बिना ही अपने आपको कर्त्ता, और इसी प्रकार भोक्ता भी स्वीकार कर लिया जाता है ।
इस प्रकार चेतन तत्त्व एक ओर तो इन्द्रियों, मन, बुद्धि, भावना आदि को जानता है, वहीं वह उन सबके माध्यम से ही जगत को भी जानता है । उसके द्वारा जगत के बारे में प्राप्त किया गया जगत का ऐसा ज्ञान, निश्चित ही है किअत्यंत त्रुटिपूर्ण और संशययुक्त होगा । देहगत चेतन तत्त्व इस प्रकार से जगत के संबंध में जो कुछ भी जानता है, वह सब उसकी स्मृति पर आधारित होता है। और स्मृति, जो कि स्वयं भी सदैव बनती-मिटती रहती है, एक सतत परिवर्त्तनशील वस्तु होती है । उसमें संचित ज्ञान, जगत का यथार्थ ज्ञान कैसे हो सकता है ।
दूसरी ओर यह भी स्पष्ट है कि चूँकि यह चेतन तत्त्व अपने आपको विषयपरक तथा विषयी-परक रूप से 'दो' में विभाजित नहीं कर सकता, अत: उसके यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए, मन-बुद्धि का कोई प्रयास किसी प्रयोजनकी प्राप्ति नहीं करा सकता ।
इस प्रकार उस चेतन के स्वरूप को जानने समझने के लिए या तो हमें परोक्ष साधनों की सहायता लेनी होगी, या उसका स्वरूप कैसा है, इसकी खोजबीन करनी होगी । परोक्ष साधनों में हैं, : चित्त-शुद्धि, पात्रता-प्राप्ति, और उसेजानने की उत्कंठा, 'तादात्म्य' का निवारण । अपरोक्ष साधनों में है,
'' ईश्वर-चेतना और जीव-चेतना स्वरूपत: एक ही है, केवल अपने कार्य करने के स्तरों पर भिन्न-भिन्न हैं । ''
इस सत्य को ग्रहण करने का प्रयास ।
समष्टि के स्तर पर कार्यरत 'समष्टि-चेतना', 'समष्टि-प्रज्ञा' ही चेतना का 'ईश्वरीय-पक्ष' है,
और,
किसी देह-विशिष्ट से संलग्न होने के स्तर पर कार्यरत 'जीव-चेतना' ही उसका 'जीव-पक्ष' है,
और,
एक ही चेतना इन दोनों रूपों में कार्यरत है,
इसे समझकर अपने ही अंतर्हृदय में नित्य अवस्थित उस चेतन तत्त्व को समझने, उसमें निमग्न होने का प्रयास ।
यह इसलिए भी अपरोक्ष है, क्योंकि इसके लिए किसी दूसरे पर निर्भर नहीं होना पड़ता ।
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>>>>>>> ईश्वर / 4 >>>>>>>>
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............जीव, जगत, और ईश्वर..........
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जीव और जगत शुद्धत: विषयपरक सत्ताएँ हैं । वे इन्द्रिय-ग्राह्य तत्त्व हैं । उनका ग्रहण इन्द्रियों के माध्यम से हीहोता है । किन्तु इन्द्रियों का ग्रहण किस माध्यम से होता है, और 'किसके' द्वारा किया जाता है ? सामान्य शब्दों मेंकहें तो जीव के द्वारा, या यदि कहें कि एक चेतन तत्त्व द्वारा, तो वह अधिक उपयुक्त होगा । चेतन-तत्त्व भी पुन:, किसी देह-विशेष से संयुक्त है, यह भी मानना ही होगा । वह चेतन-तत्त्व किसी देह-विशेष को प्रथमत: और ऐसी दूसरी देहों सहित समूचे जगत को इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण करता है । वह चेतन जगत को 'विषय-रूप' में, और'अपने-आप' को 'मैं' के रूप में स्वीकार करता है । इस प्रकार प्रत्येक देह से संलग्न चेतन-तत्त्व अपने-आपको एक विशिष्ट देह से बद्ध, जगत को विषयपरक रूप से जाननेवाली सत्ता की रूप में अनुभव करता है । उसे यह भी ज्ञातहोता है कि वह देह नहीं, बल्कि देह को 'जाननेवाला' है, किन्तु वह इस सरल से स्वभाव से ही ज्ञात सत्य को भूलजाता है, और चूँकि जगत में उसे निरंतर देह के ही माध्यम से व्यवहार करना होता है, इसलिए वह देह को ही 'मैं' केविकल्प की भाँति प्रयोग करने लगता है । दूसरी ओर, स्वयं अपने सन्दर्भ में, वह देह को अपनी 'देह' कहते हुए उसेअपने स्वामित्त्व की एक वस्तु की तरह 'विषयपरक' रीति से भी जानता है । क्योंकि वह अपनी देह को भी इन्द्रियों के माध्यम से ही तो जानता है । 'अपने-आप' को वह विषयपरक रीति से कभी नहीं जान सकता, क्योंकि उस स्थिति में उसे स्वयं को विषय और विषयी (known and know-er, 'object' and 'subject') में विभाजित करनाहोगा । जो कि, स्पष्ट ही है कि असंभव है । कोई भी चेतन सत्ता, अपने-आपको 'दो' की भाँति अनुभव नहीं कर सकती । अपना ज्ञान तो उसे प्रथमत: है ही, किन्तु वह ज्ञान बौद्धिक जानकारी, निश्चय-परक, निष्कर्षात्मकस्मृति, या अनुभव नहीं होता । वह ज्ञान एक प्रकार का स्वाभाविक बोध है, जिसमें इन्द्रियों के द्वारा विषय का ज्ञान होता है । किन्तु बाद में विषयों के सन्दर्भ में अपना एक और द्वैतीयिक (secondary) ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । चूँकि चेतन तत्त्व मूलत: एक ही है, अत: इस द्वैतीयिक ज्ञान की भूमिका के रूप में यह 'एकत्व-बुद्धि' जगत से अपने 'एक' भिन्न 'ज्ञाता' होने का आग्रह उत्पन्न करती है । यह बुद्धि मूलत: त्रुटिपूर्ण ज्ञान अथवा मोहबुद्धि है, इसलिएदेह से संयुक्त चेतन तत्त्व के आश्रय से यह देह के रूप में अपना अस्तित्त्व चेतन तत्त्व पर आरोपित कर लेती है । इसप्रकार की भावनारूपी मिथ्या तादात्म्य को ही देहात्म-बुद्धि, अर्थात् मैं देह हूँ ऐसी बुद्धि कहा जाता है । बाद में कुछ अन्य भावनाओं से, स्मृति में स्थापित की गयी अपनी मिथ्या पहचान से यह भावना अधिक दृढ होने लगती है । फिर '' कर्त्ता कौन है ?'', इस प्रश्न पर चिंतन किये बिना ही अपने आपको कर्त्ता, और इसी प्रकार भोक्ता भी स्वीकार कर लिया जाता है ।
इस प्रकार चेतन तत्त्व एक ओर तो इन्द्रियों, मन, बुद्धि, भावना आदि को जानता है, वहीं वह उन सबके माध्यम से ही जगत को भी जानता है । उसके द्वारा जगत के बारे में प्राप्त किया गया जगत का ऐसा ज्ञान, निश्चित ही है किअत्यंत त्रुटिपूर्ण और संशययुक्त होगा । देहगत चेतन तत्त्व इस प्रकार से जगत के संबंध में जो कुछ भी जानता है, वह सब उसकी स्मृति पर आधारित होता है। और स्मृति, जो कि स्वयं भी सदैव बनती-मिटती रहती है, एक सतत परिवर्त्तनशील वस्तु होती है । उसमें संचित ज्ञान, जगत का यथार्थ ज्ञान कैसे हो सकता है ।
दूसरी ओर यह भी स्पष्ट है कि चूँकि यह चेतन तत्त्व अपने आपको विषयपरक तथा विषयी-परक रूप से 'दो' में विभाजित नहीं कर सकता, अत: उसके यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए, मन-बुद्धि का कोई प्रयास किसी प्रयोजनकी प्राप्ति नहीं करा सकता ।
इस प्रकार उस चेतन के स्वरूप को जानने समझने के लिए या तो हमें परोक्ष साधनों की सहायता लेनी होगी, या उसका स्वरूप कैसा है, इसकी खोजबीन करनी होगी । परोक्ष साधनों में हैं, : चित्त-शुद्धि, पात्रता-प्राप्ति, और उसेजानने की उत्कंठा, 'तादात्म्य' का निवारण । अपरोक्ष साधनों में है,
'' ईश्वर-चेतना और जीव-चेतना स्वरूपत: एक ही है, केवल अपने कार्य करने के स्तरों पर भिन्न-भिन्न हैं । ''
इस सत्य को ग्रहण करने का प्रयास ।
समष्टि के स्तर पर कार्यरत 'समष्टि-चेतना', 'समष्टि-प्रज्ञा' ही चेतना का 'ईश्वरीय-पक्ष' है,
और,
किसी देह-विशिष्ट से संलग्न होने के स्तर पर कार्यरत 'जीव-चेतना' ही उसका 'जीव-पक्ष' है,
और,
एक ही चेतना इन दोनों रूपों में कार्यरत है,
इसे समझकर अपने ही अंतर्हृदय में नित्य अवस्थित उस चेतन तत्त्व को समझने, उसमें निमग्न होने का प्रयास ।
यह इसलिए भी अपरोक्ष है, क्योंकि इसके लिए किसी दूसरे पर निर्भर नहीं होना पड़ता ।
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>>>>>>> ईश्वर / 4 >>>>>>>>
Tuesday, March 2, 2010
ईश्वर -2.
~~~~~~~~~जड़ - चेतन ~~~~~~~~
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संपूर्ण अस्तित्त्व में दो निर्विवाद रूप से प्रकट तथ्य हैं, 'जड़', तथा 'चेतन' । वस्तुत: वे स्वयंसिद्ध ही हैं । कोई भी मनुष्य स्वयं को सदैव चेतन ही स्वीकार करता है । जीवन का अर्थ है, कोई अनुभूति, जिसका बोध किसी चेतन-सत्ता को ही हो सकता है । यह बोध होने से ही वह सत्ता चेतन कहलाती है । और समस्त अनुभूत विषयों की समष्टि को प्रकृति कहा जाता है । यह चेतन-सत्ता, जिसे विषयी कहा जाता है, विषय को अपने बोध के अंतर्गत अनुभव करती है । इस प्रकार चेतन-सत्ता को, विषयी को ही जड का, अर्थात् 'प्रकृति' का संवेदन या बोध होता है । जिस प्रकार संपूर्ण जड़-समष्टि को प्रकृति कहा जाता है, उसी प्रकार संपूर्ण चेतन-समष्टि को पुरुष कहा जाता है । चूँकि चेतन ही जड़ की अनुभूति करता है, इसलिए चेतन ही जड़ के अस्तित्त्व का प्रमाण है । दूसरी ओर, चेतन को जड़ का बोध होने से भी पूर्व अपना बोध होना तो अपरिहार्य ही है । इस प्रकार जड़-चेतन के रूप में समष्टि-अस्तित्त्व का आभासी विभाजन होने से पूर्व जो चेतन-समष्टि है, वह अखंड चैतन्य-मात्र है । जिस प्रकार हमें जिन वस्तुओं का ज्ञान होता है, और जैसे हम ही जड वस्तुओं को प्रमाणित करते हैं, वैसे ही हमें अपने-आपके, शुद्ध अस्तित्त्व का सहज-बोध होना भी एक अपरिहार्य सत्य है । किन्तु जिस प्रकार हम जड़ वस्तुओं के बारे में कोई शाब्दिक वक्तव्य दे सकते हैं, वैसा कोई वक्तव्य हमारे अपने स्वरूप के बारे में शाब्दिक रूप से कभी नहीं दे सकते । क्योंकि जड वस्तुएँ इन्द्रिय-ग्राह्य सत्य होती हैं, जबकि हमारा अपना स्वरूप, जो कि शुद्ध चेतन-सत्ता मात्र है, इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं हो सकता । और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है, कि हमारे चेतन-सत्ता रूपी स्वरूप में बोध का तत्त्व तो सम्मिलित है ही । सरल शब्दों में कहें, तो अपने-आपको बिना इन्द्रियों की सहायता के जिस प्रकार से हम जानते हैं, हमारा वह स्वरूप चैतन्यमय, बोधमय ही है । शुद्ध बोध ही है वह, क्योंकि वह कोई जानकारी नहीं है, जिसे कालक्रम में मन द्वारा एकत्र किया गया हो । आभासी रूप में, हम अपने-आपको एक शरीर-विशेष, आकृति-विशेष, व्यक्ति-विशेष ही मान बैठते हैं । हमारी वैसी मान्यता स्मृति पर आधारित होती है, किन्तु अपने एक होने का सहज, अनायास बोध भी हममें अखंड रूप से निरंतर बना रहने से स्मृति के माध्यम से हम भूलवश अपना एक स्वतंत्र, और दूसरों से अलग व्यक्तित्त्व है, ऐसे भ्रम से ग्रस्त हो जाते हैं । यह भ्रम भी पुन: स्मृति के ही अंतर्गत होता है ।
जिस प्रकार हम जड-समष्टि को प्रकृति और चेतन को पुरुष कहते हैं, यदि हम :
"चेतन-समष्टि का स्वरूप क्या है ?"
इस प्रश्न पर ध्यान दें तो हमें :
"ईश्वर क्या है ?"
यह स्पष्ट होगा ।
भूलवश हम अपने-आपको एक देह-विशेष तक सीमित मानकर, अपने चेतन-स्वरूप को भी देह से सीमित मानने की भूल बस प्रमादवश ही कर बैठते हैं, किन्तु यदि हम उस चेतन-तत्त्व के निराकार, अमूर्त्त होने के तथ्य पर ध्यान दें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि चेतना अर्थात् बोध के ही अंतर्गत, इन्द्रियाँ, बुद्धि, देह और संपूर्ण जगत भी है । अर्थात् जगत इन्द्रियों की इन्द्रियगम्यता का विषय होने से उन तक सीमित है, उनके अंतर्गत है । इन्द्रियाँ, इसी प्रकार बुद्धि का विषय होने से बुद्धि से सीमित हैं, बुद्धि उसके ज्ञाता अर्थात् विषयी का विषय होने से उस ज्ञातृत्त्व के अंतर्गत होकर उससे अर्थात् चेतन-सत्ता से सीमित है ।
इस सन्दर्भ में हम निम्न श्लोक उद्धृत कर सकते हैं :
अध्याय १३, श्लोक ३२ -
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥
एवं अध्याय १३, श्लोक ३३-
यथा प्रकाशयति एक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि: ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥
समस्त चराचर भूत, आकाश में अवस्थित हैं, किन्तु आकाश भी जड होने से अपने अस्तित्त्व को स्वयं प्रमाणित नहीं कर सकता । उसके अस्तित्त्व को प्रमाणित करने के लिए एक चेतन-सत्ता का होना उससे भी पहले आवश्यक है । इस प्रकार एक चेतन सत्ता, अर्थात् समष्टि अस्तित्त्व के सन्दर्भ में एक चेतन-समष्टि सत्ता के अस्तित्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । उसी चेतन समष्टि सत्ता से असंख्य देहों, और मन-बुद्धियों में अपने-होने का भाव ही व्यक्त-स्वरूप ग्रहण करता है, और फिर मन-बुद्धि और इन्द्रिय-अनुभवों के आधार पर अपने को एक स्वतंत्र देह-विशेष की तरह मानकर अपने को कोई एक व्यक्ति-विशेष भी मान लेता है ।
इस प्रकार हम जगत, जीव तथा ईश्वर की परस्पर अविभाज्यता के सत्य को फिलहाल बौद्धिक रूप से ही सही, समझ सकते हैं । हम यह भी देख सकते हैं कि जहाँ एक ओर ईश्वर बाह्य-स्तर पर अनुभव की जानेवाली, विषय के रूप में जगत-सत्ता है, एक (Objective Reality) है, वहीं दूसरी ओर वह हमारी स्वरूपगत-सत्ता, (Subjective Reality) आत्यंतिक चेतन-सत्ता (Ultimate Supreme, Absolute Reality) भी है । इस प्रकार ईश्वर वह चैतन्य-सत्ता, वैश्विक-प्रज्ञा (Universal Cosmic Intelligence) भी है, जिसके अंतर्गत जगत के संपूर्ण क्रियाकलाप घटते हैं । ऐसा वह ईश्वर, इन समस्त क्रियाकलापों का प्रेरक होते हुए भी इन सारे क्रियाकलापों से सर्वथा अलिप्त और असंलग्न है ।
दूसरी ओर यह भी समझना अतीव उपयोगी होगा कि हम एक चेतन-सत्ता की तरह, अपने चेतन-स्वरूप की तरह से किस प्रकार वस्तुत: उस ईश्वर या परमेश्वर से सर्वथा अभिन्न और अनन्य हैं ही ।
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>>>>>>>>>> ईश्वर - 3/>>>>>>>>
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संपूर्ण अस्तित्त्व में दो निर्विवाद रूप से प्रकट तथ्य हैं, 'जड़', तथा 'चेतन' । वस्तुत: वे स्वयंसिद्ध ही हैं । कोई भी मनुष्य स्वयं को सदैव चेतन ही स्वीकार करता है । जीवन का अर्थ है, कोई अनुभूति, जिसका बोध किसी चेतन-सत्ता को ही हो सकता है । यह बोध होने से ही वह सत्ता चेतन कहलाती है । और समस्त अनुभूत विषयों की समष्टि को प्रकृति कहा जाता है । यह चेतन-सत्ता, जिसे विषयी कहा जाता है, विषय को अपने बोध के अंतर्गत अनुभव करती है । इस प्रकार चेतन-सत्ता को, विषयी को ही जड का, अर्थात् 'प्रकृति' का संवेदन या बोध होता है । जिस प्रकार संपूर्ण जड़-समष्टि को प्रकृति कहा जाता है, उसी प्रकार संपूर्ण चेतन-समष्टि को पुरुष कहा जाता है । चूँकि चेतन ही जड़ की अनुभूति करता है, इसलिए चेतन ही जड़ के अस्तित्त्व का प्रमाण है । दूसरी ओर, चेतन को जड़ का बोध होने से भी पूर्व अपना बोध होना तो अपरिहार्य ही है । इस प्रकार जड़-चेतन के रूप में समष्टि-अस्तित्त्व का आभासी विभाजन होने से पूर्व जो चेतन-समष्टि है, वह अखंड चैतन्य-मात्र है । जिस प्रकार हमें जिन वस्तुओं का ज्ञान होता है, और जैसे हम ही जड वस्तुओं को प्रमाणित करते हैं, वैसे ही हमें अपने-आपके, शुद्ध अस्तित्त्व का सहज-बोध होना भी एक अपरिहार्य सत्य है । किन्तु जिस प्रकार हम जड़ वस्तुओं के बारे में कोई शाब्दिक वक्तव्य दे सकते हैं, वैसा कोई वक्तव्य हमारे अपने स्वरूप के बारे में शाब्दिक रूप से कभी नहीं दे सकते । क्योंकि जड वस्तुएँ इन्द्रिय-ग्राह्य सत्य होती हैं, जबकि हमारा अपना स्वरूप, जो कि शुद्ध चेतन-सत्ता मात्र है, इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं हो सकता । और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है, कि हमारे चेतन-सत्ता रूपी स्वरूप में बोध का तत्त्व तो सम्मिलित है ही । सरल शब्दों में कहें, तो अपने-आपको बिना इन्द्रियों की सहायता के जिस प्रकार से हम जानते हैं, हमारा वह स्वरूप चैतन्यमय, बोधमय ही है । शुद्ध बोध ही है वह, क्योंकि वह कोई जानकारी नहीं है, जिसे कालक्रम में मन द्वारा एकत्र किया गया हो । आभासी रूप में, हम अपने-आपको एक शरीर-विशेष, आकृति-विशेष, व्यक्ति-विशेष ही मान बैठते हैं । हमारी वैसी मान्यता स्मृति पर आधारित होती है, किन्तु अपने एक होने का सहज, अनायास बोध भी हममें अखंड रूप से निरंतर बना रहने से स्मृति के माध्यम से हम भूलवश अपना एक स्वतंत्र, और दूसरों से अलग व्यक्तित्त्व है, ऐसे भ्रम से ग्रस्त हो जाते हैं । यह भ्रम भी पुन: स्मृति के ही अंतर्गत होता है ।
जिस प्रकार हम जड-समष्टि को प्रकृति और चेतन को पुरुष कहते हैं, यदि हम :
"चेतन-समष्टि का स्वरूप क्या है ?"
इस प्रश्न पर ध्यान दें तो हमें :
"ईश्वर क्या है ?"
यह स्पष्ट होगा ।
भूलवश हम अपने-आपको एक देह-विशेष तक सीमित मानकर, अपने चेतन-स्वरूप को भी देह से सीमित मानने की भूल बस प्रमादवश ही कर बैठते हैं, किन्तु यदि हम उस चेतन-तत्त्व के निराकार, अमूर्त्त होने के तथ्य पर ध्यान दें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि चेतना अर्थात् बोध के ही अंतर्गत, इन्द्रियाँ, बुद्धि, देह और संपूर्ण जगत भी है । अर्थात् जगत इन्द्रियों की इन्द्रियगम्यता का विषय होने से उन तक सीमित है, उनके अंतर्गत है । इन्द्रियाँ, इसी प्रकार बुद्धि का विषय होने से बुद्धि से सीमित हैं, बुद्धि उसके ज्ञाता अर्थात् विषयी का विषय होने से उस ज्ञातृत्त्व के अंतर्गत होकर उससे अर्थात् चेतन-सत्ता से सीमित है ।
इस सन्दर्भ में हम निम्न श्लोक उद्धृत कर सकते हैं :
अध्याय १३, श्लोक ३२ -
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥
एवं अध्याय १३, श्लोक ३३-
यथा प्रकाशयति एक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि: ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥
समस्त चराचर भूत, आकाश में अवस्थित हैं, किन्तु आकाश भी जड होने से अपने अस्तित्त्व को स्वयं प्रमाणित नहीं कर सकता । उसके अस्तित्त्व को प्रमाणित करने के लिए एक चेतन-सत्ता का होना उससे भी पहले आवश्यक है । इस प्रकार एक चेतन सत्ता, अर्थात् समष्टि अस्तित्त्व के सन्दर्भ में एक चेतन-समष्टि सत्ता के अस्तित्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । उसी चेतन समष्टि सत्ता से असंख्य देहों, और मन-बुद्धियों में अपने-होने का भाव ही व्यक्त-स्वरूप ग्रहण करता है, और फिर मन-बुद्धि और इन्द्रिय-अनुभवों के आधार पर अपने को एक स्वतंत्र देह-विशेष की तरह मानकर अपने को कोई एक व्यक्ति-विशेष भी मान लेता है ।
इस प्रकार हम जगत, जीव तथा ईश्वर की परस्पर अविभाज्यता के सत्य को फिलहाल बौद्धिक रूप से ही सही, समझ सकते हैं । हम यह भी देख सकते हैं कि जहाँ एक ओर ईश्वर बाह्य-स्तर पर अनुभव की जानेवाली, विषय के रूप में जगत-सत्ता है, एक (Objective Reality) है, वहीं दूसरी ओर वह हमारी स्वरूपगत-सत्ता, (Subjective Reality) आत्यंतिक चेतन-सत्ता (Ultimate Supreme, Absolute Reality) भी है । इस प्रकार ईश्वर वह चैतन्य-सत्ता, वैश्विक-प्रज्ञा (Universal Cosmic Intelligence) भी है, जिसके अंतर्गत जगत के संपूर्ण क्रियाकलाप घटते हैं । ऐसा वह ईश्वर, इन समस्त क्रियाकलापों का प्रेरक होते हुए भी इन सारे क्रियाकलापों से सर्वथा अलिप्त और असंलग्न है ।
दूसरी ओर यह भी समझना अतीव उपयोगी होगा कि हम एक चेतन-सत्ता की तरह, अपने चेतन-स्वरूप की तरह से किस प्रकार वस्तुत: उस ईश्वर या परमेश्वर से सर्वथा अभिन्न और अनन्य हैं ही ।
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