~~~~~~~~~जड़ - चेतन ~~~~~~~~
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संपूर्ण अस्तित्त्व में दो निर्विवाद रूप से प्रकट तथ्य हैं, 'जड़', तथा 'चेतन' । वस्तुत: वे स्वयंसिद्ध ही हैं । कोई भी मनुष्य स्वयं को सदैव चेतन ही स्वीकार करता है । जीवन का अर्थ है, कोई अनुभूति, जिसका बोध किसी चेतन-सत्ता को ही हो सकता है । यह बोध होने से ही वह सत्ता चेतन कहलाती है । और समस्त अनुभूत विषयों की समष्टि को प्रकृति कहा जाता है । यह चेतन-सत्ता, जिसे विषयी कहा जाता है, विषय को अपने बोध के अंतर्गत अनुभव करती है । इस प्रकार चेतन-सत्ता को, विषयी को ही जड का, अर्थात् 'प्रकृति' का संवेदन या बोध होता है । जिस प्रकार संपूर्ण जड़-समष्टि को प्रकृति कहा जाता है, उसी प्रकार संपूर्ण चेतन-समष्टि को पुरुष कहा जाता है । चूँकि चेतन ही जड़ की अनुभूति करता है, इसलिए चेतन ही जड़ के अस्तित्त्व का प्रमाण है । दूसरी ओर, चेतन को जड़ का बोध होने से भी पूर्व अपना बोध होना तो अपरिहार्य ही है । इस प्रकार जड़-चेतन के रूप में समष्टि-अस्तित्त्व का आभासी विभाजन होने से पूर्व जो चेतन-समष्टि है, वह अखंड चैतन्य-मात्र है । जिस प्रकार हमें जिन वस्तुओं का ज्ञान होता है, और जैसे हम ही जड वस्तुओं को प्रमाणित करते हैं, वैसे ही हमें अपने-आपके, शुद्ध अस्तित्त्व का सहज-बोध होना भी एक अपरिहार्य सत्य है । किन्तु जिस प्रकार हम जड़ वस्तुओं के बारे में कोई शाब्दिक वक्तव्य दे सकते हैं, वैसा कोई वक्तव्य हमारे अपने स्वरूप के बारे में शाब्दिक रूप से कभी नहीं दे सकते । क्योंकि जड वस्तुएँ इन्द्रिय-ग्राह्य सत्य होती हैं, जबकि हमारा अपना स्वरूप, जो कि शुद्ध चेतन-सत्ता मात्र है, इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं हो सकता । और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है, कि हमारे चेतन-सत्ता रूपी स्वरूप में बोध का तत्त्व तो सम्मिलित है ही । सरल शब्दों में कहें, तो अपने-आपको बिना इन्द्रियों की सहायता के जिस प्रकार से हम जानते हैं, हमारा वह स्वरूप चैतन्यमय, बोधमय ही है । शुद्ध बोध ही है वह, क्योंकि वह कोई जानकारी नहीं है, जिसे कालक्रम में मन द्वारा एकत्र किया गया हो । आभासी रूप में, हम अपने-आपको एक शरीर-विशेष, आकृति-विशेष, व्यक्ति-विशेष ही मान बैठते हैं । हमारी वैसी मान्यता स्मृति पर आधारित होती है, किन्तु अपने एक होने का सहज, अनायास बोध भी हममें अखंड रूप से निरंतर बना रहने से स्मृति के माध्यम से हम भूलवश अपना एक स्वतंत्र, और दूसरों से अलग व्यक्तित्त्व है, ऐसे भ्रम से ग्रस्त हो जाते हैं । यह भ्रम भी पुन: स्मृति के ही अंतर्गत होता है ।
जिस प्रकार हम जड-समष्टि को प्रकृति और चेतन को पुरुष कहते हैं, यदि हम :
"चेतन-समष्टि का स्वरूप क्या है ?"
इस प्रश्न पर ध्यान दें तो हमें :
"ईश्वर क्या है ?"
यह स्पष्ट होगा ।
भूलवश हम अपने-आपको एक देह-विशेष तक सीमित मानकर, अपने चेतन-स्वरूप को भी देह से सीमित मानने की भूल बस प्रमादवश ही कर बैठते हैं, किन्तु यदि हम उस चेतन-तत्त्व के निराकार, अमूर्त्त होने के तथ्य पर ध्यान दें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि चेतना अर्थात् बोध के ही अंतर्गत, इन्द्रियाँ, बुद्धि, देह और संपूर्ण जगत भी है । अर्थात् जगत इन्द्रियों की इन्द्रियगम्यता का विषय होने से उन तक सीमित है, उनके अंतर्गत है । इन्द्रियाँ, इसी प्रकार बुद्धि का विषय होने से बुद्धि से सीमित हैं, बुद्धि उसके ज्ञाता अर्थात् विषयी का विषय होने से उस ज्ञातृत्त्व के अंतर्गत होकर उससे अर्थात् चेतन-सत्ता से सीमित है ।
इस सन्दर्भ में हम निम्न श्लोक उद्धृत कर सकते हैं :
अध्याय १३, श्लोक ३२ -
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥
एवं अध्याय १३, श्लोक ३३-
यथा प्रकाशयति एक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि: ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥
समस्त चराचर भूत, आकाश में अवस्थित हैं, किन्तु आकाश भी जड होने से अपने अस्तित्त्व को स्वयं प्रमाणित नहीं कर सकता । उसके अस्तित्त्व को प्रमाणित करने के लिए एक चेतन-सत्ता का होना उससे भी पहले आवश्यक है । इस प्रकार एक चेतन सत्ता, अर्थात् समष्टि अस्तित्त्व के सन्दर्भ में एक चेतन-समष्टि सत्ता के अस्तित्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । उसी चेतन समष्टि सत्ता से असंख्य देहों, और मन-बुद्धियों में अपने-होने का भाव ही व्यक्त-स्वरूप ग्रहण करता है, और फिर मन-बुद्धि और इन्द्रिय-अनुभवों के आधार पर अपने को एक स्वतंत्र देह-विशेष की तरह मानकर अपने को कोई एक व्यक्ति-विशेष भी मान लेता है ।
इस प्रकार हम जगत, जीव तथा ईश्वर की परस्पर अविभाज्यता के सत्य को फिलहाल बौद्धिक रूप से ही सही, समझ सकते हैं । हम यह भी देख सकते हैं कि जहाँ एक ओर ईश्वर बाह्य-स्तर पर अनुभव की जानेवाली, विषय के रूप में जगत-सत्ता है, एक (Objective Reality) है, वहीं दूसरी ओर वह हमारी स्वरूपगत-सत्ता, (Subjective Reality) आत्यंतिक चेतन-सत्ता (Ultimate Supreme, Absolute Reality) भी है । इस प्रकार ईश्वर वह चैतन्य-सत्ता, वैश्विक-प्रज्ञा (Universal Cosmic Intelligence) भी है, जिसके अंतर्गत जगत के संपूर्ण क्रियाकलाप घटते हैं । ऐसा वह ईश्वर, इन समस्त क्रियाकलापों का प्रेरक होते हुए भी इन सारे क्रियाकलापों से सर्वथा अलिप्त और असंलग्न है ।
दूसरी ओर यह भी समझना अतीव उपयोगी होगा कि हम एक चेतन-सत्ता की तरह, अपने चेतन-स्वरूप की तरह से किस प्रकार वस्तुत: उस ईश्वर या परमेश्वर से सर्वथा अभिन्न और अनन्य हैं ही ।
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>>>>>>>>>> ईश्वर - 3/>>>>>>>>
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