Tuesday, March 9, 2010

ईश्वर -4 .

~~~~~~~~~~~ईश्वर -4~~~~~~~~
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गीता में जिसे ईश्वर-तत्त्व कहा गया है, उसकी दो प्रकृतियों का निरूपण हैवे दो प्रकृतियाँ हैं,
- अपरा
-परा
इन्हें हम क्रमश:
1. Manifest Reality,
2. Transcendent Reality
कह सकते हैं
अपरा प्रकृति के अंतर्गत जगत और असंख्य जीवों की सृष्टि, परिपालन और प्रलय होता रहता है, जबकि ईश्वर की परम अवस्थिति, परम धाम, इससे परे है
इस सन्दर्भ में गीता के निम्न दो श्लोक विचारणीय हैं :
अध्याय , श्लोक ,
भूमिरापोSनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
तथा,
अध्याय , श्लोक ,
अपरेयमिस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परां
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत
इस प्रकार गीता में यह स्पष्ट है, कि 'जीव' (अहंकार) भी, भूमि, आप (जल), वायु, आकाश, मन, बुद्धि और ईश्वर की ही आठ प्रकार की प्रकृति की एक अभिव्यक्ति है
पुन: अध्याय १०, श्लोक २२ में,
वेदानां सामवेदोSस्मि देवानामस्मि वासव: ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना
एवं अध्याय १३, श्लोक में,
इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृति: ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतं
उस एकमात्र कड़ी का उल्लेख है, जिसके माध्यम से ईश्वर और जीव परस्पर अनन्य अर्थात् अभिन्न हैंवह कड़ी है --चेतनाजहाँ जीव में यह कड़ी (चेतना) अहंकार, मन, बुद्धि, आदि से संयुक्त होने से उसमें अपने एक पृथकअस्तित्त्व होने का भ्रम उत्पन्न कर देती है, वहीं ईश्वर इस भ्रम से रहित हैउसकी चेतना और जीव की चेतना का प्रधान भेद यही है
यह भी देखना होगा कि जैसे हम 'चेतना' शब्द का प्रयोग प्राय: और अनजाने ही मन तथा बुद्धि के लिए भी करते हैं, वह वास्तव में त्रुटिपूर्ण है, और वह हमारे अज्ञान को और भी दृढ़ बनाए रखता हैजीव (से जुडी चेतना) तो मन-बुद्धि, धृति और अहंकार (अहं-बुद्धि) से संपन्न है, जबकि ईश्वर में निहित चेतना इन सब अवयवों से रहित है
इस प्रकार से जब हम 'चेतना' के स्वरूप को समझ लेते हैं और उसे ही ईश्वर के तत्त्व को जानने के एकमात्र माध्यम की तरह देखने लगते हैं, तो एक प्रश्न और सामने आता है
'चेतना' विषयपरक यथार्थ (Objective Reality) है, या 'स्वपरक' यथार्थ (Subjective Reality) है ?
या वह एक साथ दोनों है ?
जीव की बुद्धि इस संबंध में आदि 'माया' के आवरण से ग्रस्त होने से संशयग्रस्त रहती है, और 'अहंकार' से प्रेरित होकर अपने को जन्म-मृत्यु, सुख-दु: जरा-व्याधि से ग्रस्त अनुभव करती हैइस अहंकार को भी चेतना ही प्रकाशित करती है, और जीव स्वयं को आभासी अज्ञान के बंधन में जकड़ा पाता हैयदि वह चेतना के शुद्ध स्वरूप पर ध्यान दे, तो उसका संशय दूर हो जाता हैचूँकि जन्म से ही मनुष्य 'मोहबुद्धि' लेकर संसार में आता है, इसलिए उसे यह सब सूझता ही नहींअत: एक बार पुन: हम इस श्लोक पर आयें :
अध्याय७, श्लोक २७,
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत: ।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥
इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि अज्ञान ही जन्म का एकमात्र कारण है
किन्तु, मोहबुद्धि के कारण इस अज्ञान का निवारण बहुत कठिन होता हैइसलिए 'पात्रता' की प्राप्ति हेतु पहले चित्त-शुद्धि होना आवश्यक है
चित्त-शुद्धि जहाँ एक ओर अपरिहार्यत: आवश्यक है, वहीं संसार के समस्त पदार्थों और उनमें प्रतीत होनेवाले समस्त सुखों की अनित्यता और नित्य क्या है इस जिज्ञासा का उत्पन्न होना भी उतना ही आवश्यक है
और स्पष्ट है कि यदि ये योग्यताएँ हममें हैं तो हम दु:खों की आत्यंतिक निवृत्ति की आकांक्षा से प्रवृत्त होकर, या 'नित्य क्या है ?', इसकी जिज्ञासा से प्रेरित होकर गीता से मार्गदर्शन पाने का प्रयास करेंगे

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>>>>> सांख्य और योग के अनुसार मनुष्य की पात्रता >>>>>

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