~~~~~~~~~ईश्वर -3 ~~~~~~~~~~
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............जीव, जगत, और ईश्वर..........
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जीव और जगत शुद्धत: विषयपरक सत्ताएँ हैं । वे इन्द्रिय-ग्राह्य तत्त्व हैं । उनका ग्रहण इन्द्रियों के माध्यम से हीहोता है । किन्तु इन्द्रियों का ग्रहण किस माध्यम से होता है, और 'किसके' द्वारा किया जाता है ? सामान्य शब्दों मेंकहें तो जीव के द्वारा, या यदि कहें कि एक चेतन तत्त्व द्वारा, तो वह अधिक उपयुक्त होगा । चेतन-तत्त्व भी पुन:, किसी देह-विशेष से संयुक्त है, यह भी मानना ही होगा । वह चेतन-तत्त्व किसी देह-विशेष को प्रथमत: और ऐसी दूसरी देहों सहित समूचे जगत को इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण करता है । वह चेतन जगत को 'विषय-रूप' में, और'अपने-आप' को 'मैं' के रूप में स्वीकार करता है । इस प्रकार प्रत्येक देह से संलग्न चेतन-तत्त्व अपने-आपको एक विशिष्ट देह से बद्ध, जगत को विषयपरक रूप से जाननेवाली सत्ता की रूप में अनुभव करता है । उसे यह भी ज्ञातहोता है कि वह देह नहीं, बल्कि देह को 'जाननेवाला' है, किन्तु वह इस सरल से स्वभाव से ही ज्ञात सत्य को भूलजाता है, और चूँकि जगत में उसे निरंतर देह के ही माध्यम से व्यवहार करना होता है, इसलिए वह देह को ही 'मैं' केविकल्प की भाँति प्रयोग करने लगता है । दूसरी ओर, स्वयं अपने सन्दर्भ में, वह देह को अपनी 'देह' कहते हुए उसेअपने स्वामित्त्व की एक वस्तु की तरह 'विषयपरक' रीति से भी जानता है । क्योंकि वह अपनी देह को भी इन्द्रियों के माध्यम से ही तो जानता है । 'अपने-आप' को वह विषयपरक रीति से कभी नहीं जान सकता, क्योंकि उस स्थिति में उसे स्वयं को विषय और विषयी (known and know-er, 'object' and 'subject') में विभाजित करनाहोगा । जो कि, स्पष्ट ही है कि असंभव है । कोई भी चेतन सत्ता, अपने-आपको 'दो' की भाँति अनुभव नहीं कर सकती । अपना ज्ञान तो उसे प्रथमत: है ही, किन्तु वह ज्ञान बौद्धिक जानकारी, निश्चय-परक, निष्कर्षात्मकस्मृति, या अनुभव नहीं होता । वह ज्ञान एक प्रकार का स्वाभाविक बोध है, जिसमें इन्द्रियों के द्वारा विषय का ज्ञान होता है । किन्तु बाद में विषयों के सन्दर्भ में अपना एक और द्वैतीयिक (secondary) ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । चूँकि चेतन तत्त्व मूलत: एक ही है, अत: इस द्वैतीयिक ज्ञान की भूमिका के रूप में यह 'एकत्व-बुद्धि' जगत से अपने 'एक' भिन्न 'ज्ञाता' होने का आग्रह उत्पन्न करती है । यह बुद्धि मूलत: त्रुटिपूर्ण ज्ञान अथवा मोहबुद्धि है, इसलिएदेह से संयुक्त चेतन तत्त्व के आश्रय से यह देह के रूप में अपना अस्तित्त्व चेतन तत्त्व पर आरोपित कर लेती है । इसप्रकार की भावनारूपी मिथ्या तादात्म्य को ही देहात्म-बुद्धि, अर्थात् मैं देह हूँ ऐसी बुद्धि कहा जाता है । बाद में कुछ अन्य भावनाओं से, स्मृति में स्थापित की गयी अपनी मिथ्या पहचान से यह भावना अधिक दृढ होने लगती है । फिर '' कर्त्ता कौन है ?'', इस प्रश्न पर चिंतन किये बिना ही अपने आपको कर्त्ता, और इसी प्रकार भोक्ता भी स्वीकार कर लिया जाता है ।
इस प्रकार चेतन तत्त्व एक ओर तो इन्द्रियों, मन, बुद्धि, भावना आदि को जानता है, वहीं वह उन सबके माध्यम से ही जगत को भी जानता है । उसके द्वारा जगत के बारे में प्राप्त किया गया जगत का ऐसा ज्ञान, निश्चित ही है किअत्यंत त्रुटिपूर्ण और संशययुक्त होगा । देहगत चेतन तत्त्व इस प्रकार से जगत के संबंध में जो कुछ भी जानता है, वह सब उसकी स्मृति पर आधारित होता है। और स्मृति, जो कि स्वयं भी सदैव बनती-मिटती रहती है, एक सतत परिवर्त्तनशील वस्तु होती है । उसमें संचित ज्ञान, जगत का यथार्थ ज्ञान कैसे हो सकता है ।
दूसरी ओर यह भी स्पष्ट है कि चूँकि यह चेतन तत्त्व अपने आपको विषयपरक तथा विषयी-परक रूप से 'दो' में विभाजित नहीं कर सकता, अत: उसके यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए, मन-बुद्धि का कोई प्रयास किसी प्रयोजनकी प्राप्ति नहीं करा सकता ।
इस प्रकार उस चेतन के स्वरूप को जानने समझने के लिए या तो हमें परोक्ष साधनों की सहायता लेनी होगी, या उसका स्वरूप कैसा है, इसकी खोजबीन करनी होगी । परोक्ष साधनों में हैं, : चित्त-शुद्धि, पात्रता-प्राप्ति, और उसेजानने की उत्कंठा, 'तादात्म्य' का निवारण । अपरोक्ष साधनों में है,
'' ईश्वर-चेतना और जीव-चेतना स्वरूपत: एक ही है, केवल अपने कार्य करने के स्तरों पर भिन्न-भिन्न हैं । ''
इस सत्य को ग्रहण करने का प्रयास ।
समष्टि के स्तर पर कार्यरत 'समष्टि-चेतना', 'समष्टि-प्रज्ञा' ही चेतना का 'ईश्वरीय-पक्ष' है,
और,
किसी देह-विशिष्ट से संलग्न होने के स्तर पर कार्यरत 'जीव-चेतना' ही उसका 'जीव-पक्ष' है,
और,
एक ही चेतना इन दोनों रूपों में कार्यरत है,
इसे समझकर अपने ही अंतर्हृदय में नित्य अवस्थित उस चेतन तत्त्व को समझने, उसमें निमग्न होने का प्रयास ।
यह इसलिए भी अपरोक्ष है, क्योंकि इसके लिए किसी दूसरे पर निर्भर नहीं होना पड़ता ।
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>>>>>>> ईश्वर / 4 >>>>>>>>
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