4.
(उत्तरगीता)
साङ्ख्य और कर्म
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भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से आगे कहा :
हे राजन्! इस प्रकार अपनी स्वाभाविक निष्ठा को जानने के अन्तर ही मनुष्य या तो साङ्ख्य अर्थात् उस ज्ञान में स्थित रहते हुए शान्ति में निमग्न रहता है, या कर्ताभाव से युक्त हुआ उस निष्ठा के अनुसार स्वयं को कर्ता मान बैठता है।
इसी प्रकार से कर्ता-बुद्धि सहित कर्म का अनुष्ठान करते हुए वह अवश्य और अनायास ही प्रमाद अर्थात् अनवधानता से ग्रस्त होने से स्वयं को भोक्ता, स्वामी एवं ज्ञाता की तरह ग्रहण करने लगता है। यही चारों अहंकार के एकमात्र आभासी प्रकार होते हैं, जबकि अहंकार तमोगुण मात्र है।
जब मनुष्य की बुद्धि तेजस्वी होती है और नित्य-अनित्य को देखने में परिपक्व हो जाती है तो ही उसमें आत्म-जिज्ञासा पैदा होती है।
हे युधिष्ठिर! ऐसा मनुष्य ही साङ्ख्यनिष्ठा से युक्त कहा जाता है।
कर्म को स्वरूपतः न तो ग्रहण किया जा सकता है, न उसका आचरण अथवा त्याग ही किया जा सकता है क्योंकि समस्त कर्म अर्थात् कर्म-समष्टि प्रकृति से ही होते हैं।
अध्याय ३
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।। २७
इसलिए कर्मनिष्ठ में स्थित हुए मनुष्य को चाहिए कि पहले वह कर्म, विकर्म और अकर्म के तत्व को जान ले।
अध्याय ४
किं कर्म किमकर्मेतिकवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।१६
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।। १७
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत ।। १८
इस प्रकार कर्म में सम्यक् रूप से निष्ठित मनुष्य अनायास ही साङ्ख्य का अधिकारी होता है।
जब तक मनुष्य कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व और ज्ञातृत्व बुद्धि से संलग्न रहता है, कर्म से बद्ध होता है अतः साङ्ख्य के तत्व में तथा उस निष्ठा में स्थित न हो पाने से ही उसे समस्त कर्म और कर्म के फल का त्याग करने की शिक्षा दी जाती है।
हे राजन! ऐसा पुरुष जब तक मुझ परमात्मा को अपनी आत्मा से अन्य मानता है तब तक उसे चाहिए कि वह कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व तथा ज्ञातृत्व इत्यादि को मुझे समर्पित कर दे ।
इस प्रकार से सब कुछ मुझे अर्पित कर देने पर मैं अपने आप को उसके प्रति प्रकट कर देता हूँ।
तब वह अनन्यत्व से मुझ से एक हुआ, सर्वत्र समदर्शी हो जाता है।
इस प्रकार साङ्ख्य और कर्म (अर्थात् योग) के अनुष्ठान से एक ही फल प्राप्त होता है, इसलिए स्वरूपतः दोनों अभिन्न हैं और ऐसा ही पण्डितों के द्वारा जाना भी जाता है।
अध्याय ४
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।। ५
अध्याय १३
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः।। २५
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क्रमशः
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