Sunday, May 23, 2021

कर्मनिष्ठा और साङ्ख्य

4.

(उत्तरगीता)

साङ्ख्य और कर्म

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भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से आगे कहा :

हे राजन्! इस प्रकार अपनी स्वाभाविक निष्ठा को जानने के अन्तर ही मनुष्य या तो साङ्ख्य अर्थात् उस ज्ञान में स्थित रहते हुए शान्ति में निमग्न रहता है, या कर्ताभाव से युक्त हुआ उस  निष्ठा के अनुसार स्वयं को कर्ता मान बैठता है। 

इसी प्रकार से कर्ता-बुद्धि सहित कर्म का अनुष्ठान करते हुए वह अवश्य और अनायास ही प्रमाद अर्थात् अनवधानता से ग्रस्त होने से स्वयं को भोक्ता, स्वामी एवं ज्ञाता की तरह ग्रहण करने लगता है। यही चारों अहंकार के एकमात्र आभासी प्रकार होते हैं, जबकि अहंकार तमोगुण मात्र है। 

जब मनुष्य की बुद्धि तेजस्वी होती है और नित्य-अनित्य को देखने में परिपक्व हो जाती है तो ही उसमें आत्म-जिज्ञासा पैदा होती है। 

हे युधिष्ठिर! ऐसा मनुष्य ही साङ्ख्यनिष्ठा से युक्त कहा जाता है। 

कर्म को स्वरूपतः न तो ग्रहण किया जा सकता है,  न उसका आचरण अथवा त्याग ही किया जा सकता है क्योंकि समस्त कर्म अर्थात् कर्म-समष्टि प्रकृति से ही होते हैं। 

अध्याय ३

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।। २७

इसलिए कर्मनिष्ठ में स्थित हुए मनुष्य को चाहिए कि पहले वह कर्म, विकर्म और अकर्म के तत्व को जान ले। 

अध्याय ४

किं कर्म किमकर्मेतिकवयोऽप्यत्र मोहिताः। 

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।१६

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। 

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।। १७

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। 

स बुद्धिमान मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत ।। १८

इस प्रकार कर्म में सम्यक् रूप से निष्ठित मनुष्य अनायास ही साङ्ख्य का अधिकारी होता है। 

जब तक मनुष्य कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व और ज्ञातृत्व बुद्धि से संलग्न रहता है, कर्म से बद्ध होता है अतः साङ्ख्य के तत्व में तथा उस निष्ठा में स्थित न हो पाने से ही उसे समस्त कर्म और कर्म के फल का त्याग करने की शिक्षा दी जाती है। 

हे राजन! ऐसा पुरुष जब तक मुझ परमात्मा को अपनी आत्मा से अन्य मानता है तब तक उसे चाहिए कि वह कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व तथा ज्ञातृत्व इत्यादि को मुझे समर्पित कर दे ।

इस प्रकार से सब कुछ मुझे अर्पित कर देने पर मैं अपने आप को उसके प्रति प्रकट कर देता हूँ। 

तब वह अनन्यत्व से मुझ से एक हुआ, सर्वत्र समदर्शी हो जाता है।

इस प्रकार साङ्ख्य और कर्म (अर्थात् योग) के अनुष्ठान से एक ही फल प्राप्त होता है, इसलिए स्वरूपतः दोनों अभिन्न हैं और ऐसा ही पण्डितों के द्वारा जाना भी जाता है। 

अध्याय ४

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।। ५

अध्याय १३

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।

तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः।। २५

***

क्रमशः 

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Friday, May 21, 2021

पुनः अभ्यासयोग

3.

इस प्रकरण के क्रमांक 2 में अभ्यासयोग का वर्णन किया गया था। उसे ही आगे बढ़ाते हुए पुनः क्रमशः अध्याय १२ के उसी श्लोक १२ पर यह क्रम निम्न तरीके से पूर्ण होता है :

भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से आगे कहा :

युधिष्ठिर! अर्जुन को जिस प्रकार से मेरे स्वरूप (अर्थात् आत्मा) का दर्शन हुआ उसमें यद्यपि तत्वतः उसे अखिल विश्व का दर्शन हुआ, किन्तु उससे यह भी कहा गया कि वह जो कुछ और भी देखना चाहता है, उस सबको मुझमें देख सकता है।

चेतना के जिस तल पर अर्जुन को मेरे स्वरूप का दर्शन हुआ,  उसके विस्तार में जाना तुम्हारे लिए अनावश्यक है। अर्जुन ने मेरे उस स्वरूप का दर्शन किया क्योंकि यह उसकी अभिलाषा थी, किन्तु किसी भी मनुष्य का सामर्थ्य नहीं कि मेरे ऐसे दर्शन कर वह व्याकुल, व्यथित और भयभीत न हो। तब मैंने उसके भय को दूर करते हुए उससे कहा :

(अध्याय ११)

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।

व्यपेतभीः प्रीतमना पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ।। ४९

सञ्जय उवाच :

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।

आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ।। ५०

अर्जुन उवाच :

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन। 

इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतौ।। ५१

तब मैंने अर्जुन से पुनः यह कहा :

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम। 

देवाऽप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।। ५२

क्यों? 

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन चेज्यया। 

शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।। ५३

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।। ५४

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। 

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।। ५५

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अध्याय ११ यहाँ पूर्ण हुआ। 

इसी क्रम में, अगले अध्याय १२ के पहले श्लोक में अर्जुन ने जिज्ञासा प्रस्तुत की :

अर्जुन उवाच :

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

ये चाप्यमक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।। १

तब मैंने अर्जुन से कहा :

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।। २

ये त्वमक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। 

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।३

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। 

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।। ४

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।। ५

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि  सन्न्यस्य मत्पराः। 

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।। ६

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।। ७

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिः निवेशय ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।। ८

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरं ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।। ९

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्म परमं भव।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१०

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। 

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।। ११

क्यों? 

क्योंकि, 

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२

क्रमशः

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Tuesday, May 18, 2021

2. अभ्यास-योग

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
हे युधिष्ठिर! 
वैसे तो प्राणिमात्र पर ही मेरी सदा अत्यन्त कृपा रहती है, किन्तु मेरी ही त्रिगुणात्मिका माया का आवरण बुद्धि पर होने से किसी को भी मेरी इस कृपा का आभास तक नहीं होता। किन्तु इसमें
किसी का कोई दोष भी नहीं, क्योंकि जैसे बुद्धि माया से प्रेरित होती है, उसी तरह यह त्रिगुणात्मिका माया स्वयं भी मुझ पर ही आश्रित, मुझसे ही प्रेरित होकर अपने असंख्य कार्य करती रहती है। यह सारा प्रपञ्च मेरी ही लीला है और इसलिए न तो कोई पतित है, न पापी और न पुण्यवान। सभी मेरे ही व्यक्त प्रकार हैं। विभिन्न नाम-रूपों से वे अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करते हुए दिखाई देते हैं, किन्तु वस्तुतः न कोई कर्ता, न भोक्ता, न स्वामी और न ज्ञाता होता है। व्यक्त देह से संबद्ध बुद्धि में ही कर्म की कल्पना प्रस्फुटित होती है और देह, तथा देह का जिस जगत में आभास होता है, वह जगत तथा वह चेतना जिसमें देह और जगत की प्रतीति उत्पन्न होती है, मेरा ही प्रकाश और प्रकाश का विस्तार है। 
इसी पृष्ठभूमि में मैंने अर्जुन के लिए अभ्यास-योग का उपदेश इस प्रकार से किया था। :
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानात्-ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।। १२ 
(अध्याय १२)
किन्तु इस श्लोक का सन्दर्भ जिन दूसरे श्लोकों से है, वे क्रमशः  (अध्याय ११ में) इस प्रकार से हैं :
अर्जुन उवाच :
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव। 
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ।। ४६
श्री भगवानुवाच :
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मेत्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।। ४७
इस प्रकार स्पष्ट है कि अर्जुन की ऐसी विशिष्ट इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसे मैंने अपना विश्वरूपदर्शन दिखलाया था। उसे इसलिए जिस प्रकार से मेरे इस रूप का दर्शन हुआ था, वैसा दर्शन कर पाना उसके सिवा अन्य किसी दूसरे के लिए संभव नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि इस प्रकार के विश्वरूपदर्शन में अर्जुन ने यद्यपि समस्त चर-अचर, जड-चेतन, भूत-समष्टि को एकमेव नित्य विद्यमान चेतनामात्र की तरह अनुभव कर लिया था, न कि अक्षरशः अपने चर्म-चक्षुओं से देखा था, किन्तु यह अनुभव भी अस्थायी और इसलिए अनित्य होने से यह परमात्मा का वास्तविक दर्शन था ऐसा कहना उचित न होगा। 
अर्जुन से मैंने आगे कहा :
न वेदाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः। 
एवं रूप शक्य अहं नृलोके द्रष्टुत्वदन्येन कुरुप्रवीर।। ४८
इस प्रकार मैंने पुनः इसकी पुष्टि की, कि मेरे जिस स्वरूप का दर्शन उसे हुआ, उसे उसके अतिरिक्त न तो कोई अन्य पुरुष देख सकता है, और न ही वेदों आदि के अध्ययन से, दान, पूजा आदि विविध पुण्यकर्मों से, उग्र तप इत्यादि क्रियाओं से, भी इस प्रकार के दर्शन कर पाना लोक में किसी के लिए संभव है।
***
क्रमशः
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Wednesday, May 12, 2021

उत्तरगीता

1.

महाभारत के युद्ध की समाप्ति के कुछ समय के बाद सर्वत्र शान्ति स्थापित हो चुकी थी । महाराज युधिष्ठिर धर्म के अनुसार पृथ्वी पर शासन कर रहे थे। तब एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण से उन्होंने निवेदन करते हुए उनसे यह जिज्ञासा की --

"भगवन्! युद्ध की भीषण स्थिति में आपने अपने सखा, और मेरे अनुज को जो उपदेश प्रदान किया, उसका यत्किञ्चित अंश मुझे भी प्रदान हो, ऐसी मेरी अभिलाषा है। यदि भगवन् मुझे इस हेतु पात्र समझें तो इसे मैं अपना परम सौभाग्य समझूँगा।"

तब भगवान् श्रीकृष्ण ने मंदस्मित के साथ उनसे कहा --

"युधिष्ठिर! यह सत्य है कि उस समय मैंने अर्जुन से जो संवाद किया, वह तात्कालिकता और प्रासंगिकता की दृष्टि से यद्यपि संक्षिप्त ही था, और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि में जाने का न तो अवसर था, न प्रश्न, परंतु अर्जुन की पात्रता उसकी वह  विषाद-पूर्ण मानसिक स्थिति ही थी, जिसके कारण वह मेरे वचनों को ध्यान और एकाग्रता से सुन, उनका तात्पर्य यथावत् ग्रहण कर पाया। युधिष्ठिर! लोक में अर्जुन जैसा, पात्र दुर्लभ ही होता है। 

तुम्हारी स्वयं की स्थिति में भी, यद्यपि तुम भी अवश्य ही अर्जुन के ही समान इस ज्ञान की प्राप्ति करने के अधिकारी हो, किन्तु अर्जुन के लिए उस समय की उसकी वह मनोदशा ही इस शिक्षा के लिए एक उपयुक्त महत्वपूर्ण कारण सिद्ध हुई। उसकी उस विषाद-पूर्ण मनःस्थिति के तथा मुझमें अपनी अगाध श्रद्धा के कारण ही वह पात्रता में तुमसे श्रेष्ठ न होते हुए भी तुमसे न्यून भी नहीं था। वैसे तो तुम्हें धर्म क्या है और अधर्म क्या है, इसका पूर्ण ज्ञान है, और तुम तदनुसार धर्म-अधर्म के विवेक से प्रेरित होकर धर्म का आचरण भी करते हो, किन्तु लौकिक धर्म अध्यात्म के धर्म से बहुत भिन्न है, इसलिए मैं तुम्हारी जिज्ञासा शान्त करने के लिए तुमसे गीता के उसी मर्म को प्रत्यक्ष कहूँगा जिसे युद्ध के समय  मैंने अर्जुन से परोक्षतः कहा था।

चूँकि यह मर्म, जो मैं तुमसे कहने जा रहा हूँ, उसे सुयोग्य भक्त,  मुमुक्षु या अधिकारी पुरुष उचित समय आने पर अपने हृदय में ही सुनता और जान लेता है :

(कालेनात्मनि विन्दति...३८, अध्याय४)  

इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह पहले चित्त को ध्यानपूर्वक शुद्ध कर संकल्प सहित भक्ति, ज्ञान  कर्मयोग (निष्काम कर्म) का आश्रय लेते हुए इसका श्रवण करे।

 इस प्रकार ध्यान से श्रवण करने के अनन्तर मनन एवं निदिध्यासन करते हुए वह अन्ततः मुझे ही प्राप्त होता है।

ऐसा ही मेरा कोई प्रिय भक्त.... "

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Sunday, May 9, 2021

3/15, 3/16, एवं प्रवर्तितं चक्रं

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् .... 

Yajna in Corona Times:

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First let us narrate the above stanzas :

पहले हम इन दो श्लोकों का वाचन करें। 

ये क्रमशः इस प्रकार से हैं :

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्। 

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।। १५

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।। १६

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इस कोरोना-काल में  O2, प्राणवायु (आक्सीजन) का महत्व अत्यन्त बढ़ गया है। 

पानी के इलेक्ट्रोलिसिस से  आक्सीजन का उत्पादन औद्योगिक स्तर किया जा सकता है। इसके ही साथ अनायास ही हाइड्रोजन H2 भी प्राप्त हो जाती है। 

इस प्रकार से इन दोनों गैसों को प्राप्त करने के लिए सौर-विद्युत का प्रयोग किया जा सकता है। 

सौर-विद्युत को पैदा करने के लिए जिन फ़ोटो-वोल्टैइक सेल का प्रयोग किया जाता है, उनके मूल घटकों को रिसायकल किया जा सकता है। आजकल प्रचलन में आ रही ईवी (EV) के साथ वही समस्या है, जो कि मोबाइल की बेट्रियों में होती है। उन्हें रिसायकल करना शायद कठिन है। वे धरती को और अधिक विषाक्त करते हैं। 

किन्तु यदि ईवी (EV) के स्थान पर यदि प्रदूषण-रहित हाइड्रोजन से चलने वाले वाहन विकसित किए जाएँ, तो इससे वातावरण में प्रदूषण भी नहीं फैलेगा ।

इस प्रकार यह कर्म यज्ञ का ही एक प्रकार होगा। 

यह हुआ सिद्धान्त ।

यह कितना व्यावहारिक है इसे तो वैज्ञानिक प्रयोग और परीक्षण से ही तय किया जा सकता है।

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The idea is :

Oxygen could be generated through the electro-lysis of water. Thereby we also get hydrogen as yet another useful by-product or rather a fuel. 

This electrolysis could be done by means of the solar electricity. 

The solar electricity is produced by means of photi-voltaic cells, which (as in the case of mobile batteries) creates junk lithium or other such materials.

But when the solar electricity is produced by such a means,  we could recycle ♻ the same.

The hydrogen could replace the fuels used in vehicals. This way there will be zero pollution and carbon-emission as well. 

Of course this is only a suggestion.

The idea could be translated into reality if the scientists and technicians find out how this could meet the criteria of feasibility, viability and cost factors.

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Wednesday, May 5, 2021

मयाध्यक्षेण, संशयात्मनः

प्रासंगिक

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गीता के दो श्लोक प्रासंगिक हैं :

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। ४०

(अध्याय २)

तथा --

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। 

हेतुनानेन  कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। १०

(अध्याय ९)

इनसे ही संबद्ध, इसी अध्याय ९ के अगले दो श्लोक इस प्रकार से हैं --

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।। ११

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। 

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।। १२

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इनके अर्थ इस ब्लॉग में अन्यत्र उपलब्ध हैं। 

यहाँ इन्हें उद्धृत करने का प्रयोजन यही है कि यदि हमारी रुचि, उत्सुकता तथा जिज्ञासा हो तो ये सारे श्लोक हमारे समस्त संसार और पूरी पृथ्वी की समस्याओं और कष्टों और संभावित समाधानों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर सकते हैं ।

न तो इस ब्लॉग का लेखक बहुत विद्वान, ज्ञानी या सक्षम है, न वे सारे विचारक, चिंतक, बुद्धिजीवी, दार्शनिक, महात्मा, महापुरुष, वैज्ञानिक, गणितज्ञ, राजनेता, संत या धर्मोपदेशक आदि, जो इस दुनिया के बारे में बहुत चिन्तित, उद्विग्न हैं और इसे सुधारना या बदलना चाहते हैं, या इस बारे में एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं।

मूल प्रश्न यह है कि क्या वे संसार, दुनिया, आत्मा, या परमात्मा, और अपने आप (के वास्तविक स्वरूप) को ठीक ठीक जानते भी हैं या नहीं! 

यह हो सकता है कि मनुष्य और दूसरे सभी प्राणियों के प्रति उनके हृदय में अत्यन्त करुणा हो, किन्तु जब तक वे संसार, आत्मा, सत्य, परमात्मा और प्रमुखतः तो स्वयं अपने-आपकी वास्तविकता से अनभिज्ञ (अज्ञ) हैं, इस बारे में जानने और खोजबीन करने के महत्व के प्रति उनमें श्रद्धा तक न हो, इतना ही नहीं, इस विषय में संशयग्रस्त भी हों कि क्या ऐसा कोई सत्य, कोई आत्मा, ब्रह्म या ईश्वर है या नहीं, जो समस्त वैश्विकरण और जागतिक उपक्रम का संचालनकर्ता है, तब तक वे अपनी उसी बुध्दि से प्रेरित हुए अपने अपने उद्देश्यों की सिद्धि में संलग्न रहते हैं जो उन्हें प्रकृति से मिली होती है। 

इस प्रकार वे उन परिस्थितियों के दास (यंत्र) होते हैं, जो उन्हें विशिष्ट शुभ-अशुभ कर्मों में संलग्न करती है।

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(अध्याय १०)