Sunday, February 26, 2023

विहाय कामान्यः सर्वान्

 2/71

अध्याय २

विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः।।

निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति।।७१।।

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अष्टावक्र गीता,

अध्याय ९

वासना एव संसार इति सर्वा विमुञ्चताः।।

तत्त्यागो वासना-त्यागात् स्थितिरद्य यथा तथा।।९।।

अध्याय १०

विहाय वैरिणं काममर्थं चानर्थसंकुलम्।।

धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रानादरं कुरु।।१।।

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अपने

manoyaana/मनो.यान blog

में अष्टावक्र गीता के ९ वें अध्याय का अंतिम और ९ वाँ श्लोक लिखने के बाद कल सुबह अध्याय १० का प्रथम श्लोक पोस्ट करते समय श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २ के उपरोक्त श्लोक की पंक्ति याद आई।

अष्टावक्र गीता के ९ वें अध्याय के ९ वें श्लोक में जो शिक्षा दी गई उस की फलश्रुति श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २ के उपरोक्त उद्धृत श्लोक में कही गई है, ऐसा कहना उचित प्रतीत हुआ। 

क्योंकि जब अष्टावक्र गीता के दसवें अध्याय के प्रथम श्लोक को पढ़ा तो विस्मित रह गया। इस श्लोक में यह कहा गया, कि काम के साथ साथ उस "धर्म" का भी परित्याग कर दिया जाना चाहिए, जो समस्त अर्थ और अनर्थसंकुल दोनों का हेतु है। चूँकि मेरी जानकारी में अंग्रेजी में 'धर्म' के लिए मुझे कोई ऐसा उपयुक्त शब्द नहीं दिखाई दिया, इसलिए इस श्लोक का अंग्रेजी भाषा में अर्थ लिखते समय मैंने "Sense of duty" का प्रयोग किया है। 

वास्तविक "धर्म" प्रचार का विषय नहीं हो सकता बल्कि उसकी खोज की जानी होती है, इसलिए जैसे ही कोई "धर्म" को प्रचार का विषय बना लेता है, वह महत्वाकांक्षा का शिकार हो जाता है और वह उस कार्य में गौरव अनुभव करने लगता है। तब अनेक, विभिन्न प्रकार के धार्मिक संगठन पैदा हो जाते हैं जो कामना से ही प्रेरित उपद्रव होते हैं। शायद इसीलिए उक्त श्लोक में कामना से प्रेरित ऐसे "धर्म" को भी त्याग देने के बारे में शिक्षा दी गई है, जो सम्पूर्ण अर्थ और अनर्थों का समूह / मूल है।

इसलिए हमारे समय के एक अत्यन्त प्रसिद्ध दार्शनिक (न कि बुद्धिजीवी दर्शनशास्त्री / intellectual philosopher) जब ऐसे संगठनों (organized religions), सम्प्रदायों के लिए collective ignorance शब्द का प्रयोग करते हैं, तो आश्चर्य नहीं होता।

प्रचार सदैव किसी वस्तु, विचार, आदर्श या उद्देश्य का विस्तार करने की महत्वाकांक्षा से प्रेरित एक कामना / प्रपञ्च ही होता है, और इसलिए अज्ञान (ignorance) और नये नये उपद्रवों के जन्म का ही कारण भी होता है। 

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Tuesday, February 21, 2023

निर्वेदम्

नाना मतं महर्षीणां... 

मेरे मनोयान ब्लॉग में अष्टावक्र गीता का एक श्लोक प्रतिदिन मैं पोस्ट कर रहा हूँ। आज अध्याय ९ का निम्न श्लोक पोस्ट करते हुए, मुझे श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २ का श्लोक ५२ याद आया ।

दोनों श्लोकों का भाव भी समान ही है --

नाना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा।।

दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नः को न शाम्यति मानवः।।५।।

इसी आशय से युक्त यह श्लोक भी जान पड़ता है --

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।

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Wednesday, February 8, 2023

जाति और वर्ण

मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

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3/27,

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

3/28,

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।२८।।

3/29,

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।।

तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।२९।।

4/13,

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

के सन्दर्भ में मुण्डकोपनिषद् के निम्न मंत्र उल्लेखनीय हैं :

मुण्डक प्रथम

(प्रथम खण्ड-) 

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव

विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठा-

मथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।१।।

अथर्वणे यां  प्रवदेत ब्रह्मा-

थर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।।

स भारद्वाजाय सत्यवहाय

प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्।।२।।

शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्न पप्रच्छ :

कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति।।३।।

तस्मै स होवाच :

द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति -- परा चैवापरा च।।४।।

शौनक ऋषि संभवतः दत्तात्रेय परंपरा के रहे होंगे, जो गौ और श्वान दोनों का ही पालन पोषण करते थे --

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।१८।।

(अध्याय ५)

इससे यही स्पष्ट होता है कि अङ्गिरस की परंपरा में ऋषि गौ के साथ श्वान भी रखते थे। अंगिरा से ही आङ्ग्ल (Angel) और आङ्ग्ल-शैक्षं (Anglo-Saxon) तथा फिर अंग्रेज "जाति" का उद्भव हुआ। तैत्तिरीय उपनिषद् में शीक्षा-वल्ली भी दृष्टव्य है।

निष्कर्ष यह कि "जाति" नामक सामाजिक विभाजन पण्डितों ने नहीं बल्कि सनातन-धर्म से विद्वेष रखनेवाले विधर्मियों ने किया।

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Friday, February 3, 2023

सिद्धानां कपिलो मुनिः

सिद्धिगीता : श्रीमद्भगवद्गीतायाम्

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2/48,

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।

(अध्याय २)

3/4,

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।

(अध्याय३)

4/12,

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता।।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।१२।।

4/22,

यदृच्छा लाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।२२।।

(अध्याय४)

7/3,

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।३।।

(अध्याय ७)

10/26,

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।। 

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।

(अध्याय १०)

11/36,

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या

जगत्हृष्यत्यनुरज्यते च।।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति

सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।३६।।

(अध्याय ११)

12/10,

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।१०।।

(अध्याय १२)

14/1,

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।।

यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।१।।

(अध्याय १४)

16/14,

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।।१४।।

16/23,

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।२३।।

(अध्याय १६)

18/13,

 पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।

18/26,

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।।

सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।२६।।

18/45,

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।४५।।

18/46,

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।४६।।

18/50,

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।५०।।

(अध्याय १८)

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पातञ्जल योगसूत्र :

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।।४५।।

(साधनपाद)

जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजा सिद्धयः।।१।।

(कैवल्यपाद)

सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तसंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषाद् भोगः परार्थत्वादन्यस्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम्।।३६।।

ततः प्रातिभश्रवणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते।।३७।।

ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः।।३८।।

(विभूतिपाद)

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इति भारद्वाजेन शास्त्रिणा विनयेन संकलिता :

श्रीमद्भगवद्गीतायाम्

।। सिद्धिगीता ।।

।।श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।

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