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अध्याय २
विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः।।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति।।७१।।
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अष्टावक्र गीता,
अध्याय ९
वासना एव संसार इति सर्वा विमुञ्चताः।।
तत्त्यागो वासना-त्यागात् स्थितिरद्य यथा तथा।।९।।
अध्याय १०
विहाय वैरिणं काममर्थं चानर्थसंकुलम्।।
धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रानादरं कुरु।।१।।
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अपने
manoyaana/मनो.यान blog
में अष्टावक्र गीता के ९ वें अध्याय का अंतिम और ९ वाँ श्लोक लिखने के बाद कल सुबह अध्याय १० का प्रथम श्लोक पोस्ट करते समय श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २ के उपरोक्त श्लोक की पंक्ति याद आई।
अष्टावक्र गीता के ९ वें अध्याय के ९ वें श्लोक में जो शिक्षा दी गई उस की फलश्रुति श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २ के उपरोक्त उद्धृत श्लोक में कही गई है, ऐसा कहना उचित प्रतीत हुआ।
क्योंकि जब अष्टावक्र गीता के दसवें अध्याय के प्रथम श्लोक को पढ़ा तो विस्मित रह गया। इस श्लोक में यह कहा गया, कि काम के साथ साथ उस "धर्म" का भी परित्याग कर दिया जाना चाहिए, जो समस्त अर्थ और अनर्थसंकुल दोनों का हेतु है। चूँकि मेरी जानकारी में अंग्रेजी में 'धर्म' के लिए मुझे कोई ऐसा उपयुक्त शब्द नहीं दिखाई दिया, इसलिए इस श्लोक का अंग्रेजी भाषा में अर्थ लिखते समय मैंने "Sense of duty" का प्रयोग किया है।
वास्तविक "धर्म" प्रचार का विषय नहीं हो सकता बल्कि उसकी खोज की जानी होती है, इसलिए जैसे ही कोई "धर्म" को प्रचार का विषय बना लेता है, वह महत्वाकांक्षा का शिकार हो जाता है और वह उस कार्य में गौरव अनुभव करने लगता है। तब अनेक, विभिन्न प्रकार के धार्मिक संगठन पैदा हो जाते हैं जो कामना से ही प्रेरित उपद्रव होते हैं। शायद इसीलिए उक्त श्लोक में कामना से प्रेरित ऐसे "धर्म" को भी त्याग देने के बारे में शिक्षा दी गई है, जो सम्पूर्ण अर्थ और अनर्थों का समूह / मूल है।
इसलिए हमारे समय के एक अत्यन्त प्रसिद्ध दार्शनिक (न कि बुद्धिजीवी दर्शनशास्त्री / intellectual philosopher) जब ऐसे संगठनों (organized religions), सम्प्रदायों के लिए collective ignorance शब्द का प्रयोग करते हैं, तो आश्चर्य नहीं होता।
प्रचार सदैव किसी वस्तु, विचार, आदर्श या उद्देश्य का विस्तार करने की महत्वाकांक्षा से प्रेरित एक कामना / प्रपञ्च ही होता है, और इसलिए अज्ञान (ignorance) और नये नये उपद्रवों के जन्म का ही कारण भी होता है।
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