मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।
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3/27,
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।
3/28,
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।२८।।
3/29,
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।२९।।
4/13,
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
के सन्दर्भ में मुण्डकोपनिषद् के निम्न मंत्र उल्लेखनीय हैं :
मुण्डक प्रथम
(प्रथम खण्ड-)
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव
विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठा-
मथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।१।।
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा-
थर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।।
स भारद्वाजाय सत्यवहाय
प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्।।२।।
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्न पप्रच्छ :
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति।।३।।
तस्मै स होवाच :
द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति -- परा चैवापरा च।।४।।
शौनक ऋषि संभवतः दत्तात्रेय परंपरा के रहे होंगे, जो गौ और श्वान दोनों का ही पालन पोषण करते थे --
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।१८।।
(अध्याय ५)
इससे यही स्पष्ट होता है कि अङ्गिरस की परंपरा में ऋषि गौ के साथ श्वान भी रखते थे। अंगिरा से ही आङ्ग्ल (Angel) और आङ्ग्ल-शैक्षं (Anglo-Saxon) तथा फिर अंग्रेज "जाति" का उद्भव हुआ। तैत्तिरीय उपनिषद् में शीक्षा-वल्ली भी दृष्टव्य है।
निष्कर्ष यह कि "जाति" नामक सामाजिक विभाजन पण्डितों ने नहीं बल्कि सनातन-धर्म से विद्वेष रखनेवाले विधर्मियों ने किया।
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