Thursday, May 8, 2025

THE ACTION.

2/49, 3/27, 4/13, 5/14, 5/15, 5/16, 15/15

--

अध्याय २

सञ्जय उवाच 

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप। 

योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।  

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

--

अध्याय ३

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।२७।।

--

अध्याय ४

श्रीभगवानुवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान् अहं अव्ययम्। 

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एव मया तेऽद्य योगो प्रोक्तः पुरातनम्। 

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच :

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच :

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तानि अहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्यापि कर्तारं मां विद्धि अकर्तारमव्ययम्।।१३।।

--

अध्याय ५

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः। 

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

--

अध्याय १५

सर्वस्य अहं हृदि संनिविष्टो

मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। 

वेदैश्च सर्वैः अहम्  एव वेद्यो

वेदान्तकृत् वेदविदेव च अहम्।।१५।।

--

अध्याय १८

यदहङ्कारमाश्रित्य  योत्स्य इति मन्यसे।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

--

उपरोक्त सभी श्लोकों में दृष्टव्य है कि संस्कृत भाषा का प्रयोग इस कुशलता से किया गया है कि किसी भी अन्य भाषा में वह तात्पर्य आँखों से ओझल हो जाता है। सभी श्लोकों में अहं पद का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन में उसकी भिन्न भिन्न विभक्तियों में है जबकि क्रियापद वहाँ दिखाई नहीं देता। जैसे कि हिन्दी भाषा में :

'मैं हूँ' और 'मैं था' जैसे वाक्यों में सहायक क्रिया :

'हूँ' या 'था' से वर्तमान काल या भूतकाल का बोध होता है, संस्कृत भाषा के इन श्लोकों में इस अर्थ का द्योतक कोई शब्द ही नहीं दिखाई देता है और इसलिए इनका अनुवाद किसी दूसरी भाषा में करते ही संस्कृत श्लोक के मूल अर्थ पर ध्यान तक नहीं जा पाता। 

इस बारे में इस या दूसरे ब्लॉग्स में भी विस्तार से लिख चुका हूँ। संक्षेप में यदि इस ओर ध्यान न दिलाया जाए तो कभी यह किसी को सूझता ही नहीं कि 'अहं' पद का प्रयोग उत्तम पुरुष और अन्य पुरुष एकवचन दोनों प्रकार से ग्राह्य हो सकता है।

उदाहरण के लिए -

तानि अहं  वेद सर्वाणि 

में अहं शब्द "मैं" (अर्थात् आत्म / आत्मा) या "वह" (अर्थात् आत्म / आत्मा) के रूप में :

उत्तम पुरुष एकवचन या अन्य पुरुष एकवचन दोनों ही दृष्टियों से व्याकरण-सम्मत है।

क्योंकि "वेद" शब्द 'विद्'  धातु  के लट् लकार का यही रूप है। तात्पर्य यह कि :

अहं वेद 

का अर्थ "मैं जानता हूँ।"  तथा "आत्मा जानता है।" इन दोनों रूपों में ग्रहण किया जा सकता है। तो,  "हूँ" के साथ साथ या अतिरिक्त "है" शब्द भी पूर्णतः उपयुक्त है।

अध्याय ४ के १३वें तथा अध्याय ५ के तीनों ही श्लोकों का अभिप्राय और निहितार्थ भी यही है कि "कर्म" (तथा कर्ता एवं कर्तृत्व भी) केवल मान्यता या कल्पना हैं, और उनकी कोई पारमार्थिक सत्यता नहीं हो सकती है।

अध्याय ५ के श्लोकों में एक ही आत्मा के लिए क्रमशः "प्रभुः" और "विभु:" के प्रयोग से स्पष्ट है कि "ईश्वर" तथा "जीव" का भेद भी मानसिक कल्पना में ही संभव है, न कि वास्तविक है।

***




  







Monday, April 28, 2025

2/50, 2/55, 3/43

अध्याय २

बुद्धियुक्तो जहाति इह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।५०।।

श्री भगवानुवाच --

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।५५।।

अध्याय ३

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।४३।।

क्या आशय है इन श्लोकों का? 

***

  


Sunday, April 20, 2025

8/12, 8/13 मुक्ति / मोक्ष

Self-Delivery

आत्ममुक्ति

स्वेच्छा से मृत्यु का वरण 

यहाँ आवश्यकता होने पर स्वेच्छा मृत्यु का वरण कैसे किया जा सकता है इस बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ८ के श्लोक क्रमांक १२ और १३ के संदर्भ में स्पष्ट निर्देश है —

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।१२।।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।१३।।

उपरोक्त श्लोकों में इस प्रकार से स्वेच्छा मृत्यु को वरण करने की विधि स्पष्ट की गई है –

जो भी इस प्रकार से अभ्यासपूर्वक इस क्रम को अच्छी तरह से कर सकता है उसे परम गति अर्थात् मोक्ष की या ईश्वर की प्राप्ति होती है।

इसके लिए इसके प्रत्येक भाग को ठीक से समझकर उसमें दक्षता प्राप्त होने पर ही यह संभव हो पाता है। यदि पहले से पर्याप्त अभ्यास न किया गया हो तो यह संभव नहीं हो पाता।

Here Gita categorically describes that an aspirant having well-practiced the four key-instructions – namely :

1.Having withdrawn attention from the outgoing senses,

2.Having mind / consciousness / attention fixed firmly in the “heart” / sense of :

Being and Knowing,

3.Having the vital breath established in the 

मूर्ध्नि आधाय (मूर्ध्ना सप्तमी एकवचन)

प्राणम् (द्वितीया एकवचन) 

4.  व्याहरन्  contemplating about / of

ॐ इति एकाक्षरम् ब्रह्म

Thus : The single letter Brahman “Om”

5.मामनुस्मरन् – माम् अनुस्मरन्

And remembering accordingly

“I-AM” / The Self,

One who relinquishes the body,

Attains the State Supreme.

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 

उपरोक्त आलेख मेरे वर्डप्रेस ब्लॉग के उस पोस्ट से लिया गया है जहाँ मैंने अहं ब्रह्मास्मि के अध्याय 91 का पॉडकास्ट शेयर किया है। इसलिए इसे उस संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

स्वेच्छामृत्यु की अवधारणा इस भ्रम पर आधारित है कि मनुष्य अपनी मृत्यु का चुनाव और वरण करने के लिए स्वतंत्र है। प्रायः आत्महत्या को भय, कायरता से प्रेरित कृत्य समझा जाता है और सामान्य मनुष्य ही नहीं बल्कि बहुत बड़े बड़े बुद्धिजीवी और विद्वान् भी यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि प्रत्येक उस जन्म लेनेवाले प्राणी की मृत्यु - वह किस प्रकार से और आयु के किस मोड़ पर होगी, उसके जन्म लेने के समय पर ही विधाता के द्वारा सुनिश्चित हो जाती है और कोई भी आत्महत्या करने या न करने के लिए स्वतंत्र नहीं है।

फिर भी औपचारिक रूप से और प्रसंगवश श्रीमद्भगवद्गीता में योगसाधना करनेवाले मनुष्य के लिए यह निर्देश दिया गया है कि वह किस प्रकार अपने जीवन के अंतिम समय का सदुपयोग इस प्रकार से कर सकता है जिससे कि उसे मृत्यु के बाद परम गति प्राप्त हो।

***


Sunday, March 23, 2025

Finding Out!

त्रिविधा भवति श्रद्धा 

पिछले पोस्ट को पब्लिश करते ही इस पर ध्यान गया कि इसी अध्याय के प्रारंभ में कहीं किसी श्लोक में :

"त्रिविधा भवति श्रद्धा"

से प्रारंभ होनेवाला कोई श्लोक है।

इसी अध्याय १७ के इस प्रथम श्लोक पर दृष्टि पड़ी -

अर्जुन उवाच --

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः। 

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्वमाहो रजस्तमः।।१।।

और इससे मुझे दिशानिर्देश प्राप्त हो गया। तात्पर्य यह कि मनुष्य की श्रद्धा भी निष्ठा के आधार पर ही सात्विक, राजसी और तामसिक इन तीनों में से किसी एक प्रकार की होती है, जिसका उल्लेख इसके तुरंत बाद के श्लोक में इस प्रकार से है -

श्रीभगवानुवाच --

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।

सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।।२।।

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।

जिसके उल्लेख से पिछले पोस्ट को प्रारंभ किया था। 

इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि यहाँ "श्रद्धा" शब्द का अर्थ "निष्ठा" / conviction समझा जा सकता है।

इसमें सन्देह नहीं कि प्रथमतः तो भौतिक जगत् में अपने अस्तित्व के भान के बाद ही अपने और अपने आसपास प्रतीत होनेवाले अस्तित्व को क्रमशः अपने शरीर के रूप में "स्वयं" तथा "स्वयं" से भिन्न "संसार" की तरह समझ लिया जाता है।

ऐसा लगता है कि अवश्य ही यह आभासी विभाजन भी उसी चेतना में उत्पन्न होता है, जो कि इन्द्रियानुभूतियों से या जिससे कि इन्द्रियानुभूतियाँ उत्पन्न होती हैं।

दूसरे शब्दों में :

शरीर में चेतना के जागृत होने पर ही इन्द्रियों का कार्य, और इन्द्रियों का कार्य प्रारंभ होने के बाद ही शरीर तथा आसपास के अस्तित्व का "भान" होता है। और ध्यान से देखें तो कहा जा सकता है कि शरीर और जगत् का भान होने से भी पहले ही इन्द्रियों का भान भी, चेतना जागृत होने पर ही संभव होता है।

इसलिए भान और चेतना उस एक ही वस्तु के द्योतक हैं, जिसमें अस्तित्व को जाना तो जाता है, किन्तु इस प्रकार से "जानना" इन्द्रियों, मन, स्मृति या बुद्धि के माध्यम से नहीं, बल्कि स्वतंत्र रूप में अस्तित्व में ही अन्तर्निहित है।

चेतना (या भान) के जागृत होने पर ही अपने या "स्वयं के" तथा अपने से अन्य प्रतीत होनेवाले उस बाह्य जगत् की भिन्नता अनुभव होती है जिसे कि चेतना (या भान) के जागृत होने से पहले नहीं जाना जाता है। अस्तित्व की नित्यता यद्यपि तब भी होती तो है किन्तु ऐसा कह पाना भी चेतना (या भान) के जागृत होने पर ही संभव है। इस प्रकार से अपने-आप या "स्वयं" को जगत् से भिन्न एक "चेतन" या "मन" के रूप में जगत् से स्वतंत्र और भिन्न सत्ता मान लिया जाता है।

यह है वह निष्ठा जिसे स्वभावजा श्रद्धा भी कह सकते हैं।चेतना (या भान) के जागृत होने से पहले की सुप्त दशा में, जिसमें अपने और अपने आसपास के किसी जगत् का भान, और इसलिए इस प्रकार का कोई विभाजन भी नहीं रह जाता, क्या "मन" नामक किसी वस्तु की स्वतंत्र सत्ता हो सकती है?

अभी हम "श्रद्धात्रयी" पर आगे विचार करें तो स्पष्ट है कि "तामसी" श्रद्धा उस स्थिति को कह सकते हैं जब चेतना (या भान) के जागृत होने पर "अपने" से भिन्न किसी जगत् की प्रतीति उत्पन्न होती है, यद्यपि "अपने" से वह किस प्रकार से भिन्न और स्वतंत्र है यह भी स्पष्ट नहीं होता। प्रत्येक ही चेतन सत्ता जो "अपने" स्वयं और अपने से भिन्न जगत् को इस प्रकार से अनुभव करती है, चेतना (या भान) के जागृत होने से पहले एक ऐसी दशा में होती है जिसमें चेतना सुषुप्तप्राय होती है। फिर भी जागृत होने पर उसका नये की तरह जन्म हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। सुषुप्त होने या जागृत होने के समय में अपने अस्तित्वमान होने के तथ्य को हर कोई अनायास जानता ही है और इस पर सन्देह उठाना तक हास्यास्पद ही है।

अपने "स्वयं" के होने के स्वाभाविक भान में ही "स्वयं" से भिन्न फिर भी अपरिहार्यतः जुड़े अर्थात् "अभिन्न" भी उस जगत् को भी वैसे ही अनायास ही नित्य और जन्म तथा मृत्यु से रहित मान लिया जाता है।

यह चेतना (या भान) का "धर्म" हुआ। 

चेतना (या भान) के जागृत होने के बाद किसी प्रकार का अभाव अनुभव होने पर उसकी पूर्ति के लिए चेष्टा होती या की जाती है। यदि उस चेष्टा से अभाव दूर हो जाता है तो उसे "सार्थक" कहा जाता है। दूसरी ओर, अभाव को दूर करने की आवश्यकता अनुभव होने और अभाव को दूर करने की चेष्टा को ही "काम" कहा जा सकता है।

इस प्रकार "अर्थ" और "काम" परस्पर जुड़े हुए हैं।

अभाव के दूर होने को ही समस्या से मुक्ति या मोक्ष कहा जा सकता है।

पुनः शारीरिक कष्ट उत्पन्न होने पर उनसे मुक्ति होने की आवश्यकता अनुभव होना और उन्हें दूर करने के उद्देश्य से की जानेवाली चेष्टा भी "कर्म" ही है।

किन्तु, और इसीलिए शरीर के जीवित रहने तक "कर्म" से "मुक्ति" हो पाना असंभव ही है।

"काम" या कामना के जागृत होने के बाद "काम" ही केवल राग, द्वेष, लोभ, भय, आशा, अपेक्षा, आशंका ही नहीं, बल्कि स्मृति के रूप में अतीत या भूत और कल्पना के रूप में अज्ञात भविष्य का सृजन कर लेता है।

और इसके बाद तुरन्त ही "जगत्" की रचना करनेवाली किसी ऐसी कल्पित अदृश्य सत्ता और उसकी शक्ति का विचार जन्म लेता है जो "स्वयं" को सदा सुरक्षित, संतुष्ट और प्रसन्न बनाए रखे।

फिर उसे "ईश्वर" या कोई दूसरा नाम दे दिया जाता है। रोचक यह भी है कि यह सब बौद्धिक ऊहापोह "मनुष्य" में ही होता है।

गीता में अध्याय ५ में इस "चेतन" सत्ता को शायद जगत् के स्वामी के रूप में तो "प्रभु" तथा असंख्य चेतन शरीरों के रूप में "विभु" कहा गया होगा, और जहाँ पर "कर्म" और  "कर्मफल" तक की अवधारणा भी सत्यता पर भी शंका की गई है। 

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः। 

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

और इसीलिए "बुद्धियोग" को "कर्मयोग" से श्रेष्ठ भी कहा गया है :

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। 

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।। 

किन्तु किसी का चित्त या मन इतना परिपक्व न हो कि वह इस सरल सत्य को ग्रहण कर सके तो वह समस्त कर्मों का अनुष्ठान निष्काम भाव से करते हुए, कर्तृत्व की भावना से युक्त रहते हुए भी उन्हें "ईश्वर" को समर्पित भी कर सकता है :

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्-ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागः त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।

***







The Conviction.

श्रद्धात्रयी

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। 

श्रद्धामयः अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।

(अध्याय १७)

ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः गीता में आगे चलकर श्रद्धा को श्रद्धात्रयी के रूप में क्रमशः तामसी, राजसी और सात्विकी कहा गया हो।

मनुष्य नामक प्राणियों के अन्तःकरण में जो प्रकृतिप्रदत्त निष्ठा या ईश्वरप्रदत्त स्वाभाविक श्रद्धा होती है वह तीन प्रकार की होती है।

पहली है पशुतुल्य तामसी श्रद्धा जिसमें क्षण क्षण बदलते हुए और इस बदलते रूप में भी सतत अनुभव किए जा रहे संसार को ही एकमात्र सत्यता मान लिया जाता है और मन स्वयं को इसके केन्द्र की तरह शरीर विशेष के रूप में सुरक्षित बनाए रखने की कामना के पूर्ण होने की आशा तथा शरीर के नष्ट होने की कल्पना से आशंकित और भयभीत रहा करता है।

दूसरी है मनुष्य-तुल्य राजसी श्रद्धा जिसमें अपनी क्षमता और ज्ञान की मर्यादा को अनुभव करते हुए किसी ऐसी सत्ता की कल्पना की जाती है जो कि तुलना में असीम क्षमता और ज्ञान से संपन्न हो सकती है और उसे प्रसन्न करने की चेष्टा की जाती है जिसकी कृपा प्राप्त कर हम सदैव सुखी और संपन्न रहें। 

तीसरी है विवेकशील वह सात्विक श्रद्धा जिसमें संसार की प्रत्येक वस्तु और मनुष्य के अनित्य होने की कल्पना होने से ऐसी किसी भी वस्तु में आसक्ति न हो पाना और किसी ऐसी वस्तु की खोज ओर उसे जानने की चेष्टा जो कि अनश्वर और इसलिए नित्य हो, और जो जन्म तथा मृत्यु से रहित भी हो। और यह भी कि ...

यहीं तक यह विवेचना है।

इसे लिखना प्रारम्भ करते समय विचार यह था कि जिसे यहाँ श्रद्धा कहा है उसके स्थान पर निष्ठा शब्द का प्रयोग करूँ किन्तु मेरे पास कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है न कोई और दूसरा उपाय जिसकी सहायता से मैं सुनिश्चित रूप से जान सकूँ कि क्या गीता में निष्ठात्रयी के बारे में और कहीं कुछ कहा गया है या नहीं।

अस्तु!

***

Friday, March 21, 2025

The Big Crunch

यदा संहरते चायं

--

2/58

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। 

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।

यहाँ हृ - हरति / हरते

का आत्मनेपदी धातु के रूप में प्रयोग दृष्टव्य है।

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति (Manifestation) तथा प्रलय (Dissolution) इस अर्थ में सृजन और विलय है न कि निर्माण और विनाश।

यह न केवल व्यष्टि बल्कि समष्टि ब्रह्माण्ड के लिए भी सत्य है।

गीता 2/58 

***



Saturday, February 22, 2025

My Only Fear.

कुम्भ के बहाने! 

What I'm Affraid of!

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ इस प्रकार से होता है -

धृतराष्ट्र उवाच -

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।

शायद इससे अधिक उपयुक्त और प्रासंगिक कोई अन्य सन्दर्भ इस ग्रन्थ को प्रारंभ करने के लिए नहीं हो सकता है। जीवन को अर्थात् पुरुषार्थ को हम जिन चार रूपों में जान सकते हैं उनमें से धर्म प्रथम है -

धर्मः वस्तुस्वभावः।

धर्म अस्तित्व का स्वभाव है इसलिए जड चेतन हर वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है जिसका अनुष्ठान अनायास हुआ करता है। जीवनरूपी सरिता के इस स्वाभाविक और सरल प्रवाह में न तो कहीं कोई कर्ता, कर्म या कर्म का उद्देश्य हो सकता है। और जैसे ही इस प्रवाह में कोई रुकावट या बाधा आती है, तो उसकी प्रतिक्रिया के रूप में कर्ता, कर्म और कर्म का कोई उद्देश्य प्रकट हो उठते हैं। ये तीनों ही चेतना की गतिविधि हैं, जिनमें चेतना ही स्वयं को इन तीनों रूपों में विभाजित कर लेती है, और कर्ता के रूप में किसी व्यक्ति-सत्ता का प्राकट्य हो जाता है, अर्थात् वह सत्ता अहं-प्रत्यय की तरह इदं प्रत्यय से पृथक् और भिन्न रूप में भासित होती है। "किसे भासित होती है?" -यह पूछना एक अतिप्रश्न होगा। क्योंकि यह  अद्वितीय चेतना ही विषय और विषयी, दृक् और दृश्य की तरह भी, दो की तरह से अस्तित्वमान और प्रतीत भी होती है।

धर्म से अर्थ की उत्पत्ति होने पर ही उस अर्थ को उद्दिष्ट के रूप में ग्रहण किया जाता है। और इसके बाद ही उस अर्थ की सिद्धि के लिए उपयुक्त प्रतीत होनेवाला समुचित और वाञ्छित कर्म किया जाता है।

"कुरु" पद, "कृ" उभयपदी धातु का युष्मद् सूचक लुट् लकार एकवचन परस्मैपदी रूप है, जबकि आत्मनेपदी  धातु की तरह यही "कुरुष्व" हो जाता है।

प्रस्तुत श्लोक में यहाँ परस्मैपदी प्रयोग है। 

किसी चेतन वस्तु में कर्तव्य की प्राप्ति उठने का भाव ही उसे कर्म करने के लिए होनेवाली प्रेरणा होता है। उसमें उठनेवाली यही भाव तत्क्षण कर्तृत्व का रूप ग्रहण कर लेता है और "मैं कर्ता हूँ" इस मूलतः त्रुटिपूर्ण कल्पना के उत्पन्न होने का कारण होता है। इस प्रकार, संपूर्ण जीवन वस्तु-मात्र के लिए "धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र" हो जाता है। "मामकाः" / "मेरे", और "पाण्डवाः" / "पाण्डु" नामक किसी दूसरे के पुत्रों के बीच तब भिन्न भिन्न उद्देश्यों की सिद्धि हेतु किया जानेवाला "कर्म" परस्पर विपरीत और विरुद्ध होने से "युद्ध" का रूप ले लेता है।

धर्म, अर्थ और काम का यह क्षेत्र तब धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र हो जाता है। और चेतन सत्ता का जीवन ऐसा ही युद्धस्थल होता है। कामना के बने रहने तक यह युद्ध सतत चलता रहता है। सतत युद्ध करता हुआ युद्ध में विजयी होने तक या मृत्यु की प्राप्ति होने तक, या युद्ध की निरर्थकता और भयावहता से पलायन कर लेने के विचार से प्रेरित होकर वह "चेतन" द्वन्द्व से ग्रस्त रहता है।

कुम्भ महापर्व शीघ्र ही संपन्न होने की ओर अग्रसर है। बहुत से भाग्यवान और पुण्यवान संगम स्नान कर चुके हैं। मुझसे भी उनकी अपेक्षा थी कि मैं भी करता या मुझे भी करना चाहिए था। मैं नहीं जानता कि मैं इस बारे में क्या कहें! कोई निश्चय कर पाने के लिए मैं स्वतंत्र हूँ भी या नहीं, या कि मैं कितना स्वतंत्र हूँ! और, क्या स्वतंत्रता आंशिक भी हो सकती है? यह भी मुझे नहीं पता है। मेरे कुम्भस्नान न कर पाने से न तो मुझे डर लगता है, और न मुझमें कोई अपराध-बोध ही उठता है, किन्तु किसी दूसरे की भावनाओं को मुझसे कहीं चोट न लग जाए इसका कुछ डर मुझे अवश्य है। और इसलिए उनका सामना कर पाने में भी! 

कुम्भस्नान कर पाना या न कर पाना तो मेरे वश में नहीं है, किन्तु धर्म-रूपी गंगा, कर्म-रूपी यमुना, और दर्शन-रूपी अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी के इस पावन संगम में स्नान करते रहना मुझे अपेक्षाकृत सरल, और मेरा और भी अधिक बड़ा सौभाग्य अनुभव होता है।

***




Sunday, December 8, 2024

मयाध्यक्षेण

9/10

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।। 

हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।१०।।

(अध्याय १०)

आत्मा स्वयं ही अस्तित्वमान सत्य है, जो स्वयं ही और स्वयं से ही स्वयं को ही जानता है।

Self is the Existential Reality, Conscious of Being, Knowing It-Self through Self.

Being Conscious implies Existence, and Existence implies Being the Self.

यह अद्वैत सत्य है। आत्मा की अध्यक्षता में ही उसकी ही शक्ति / क्षमता से स्फूर्त होकर उसकी ही प्रकृति सम्पूर्ण चर और अचर जगत् को जन्म देती है, अर्थात् जगत् की सृष्टि करती है और इसीलिए यह जगत् सतत परिवर्तित होता है। परिवर्तन ही काल है और काल ही परिवर्तन है। इस प्रकार आभासी-स्थान और आभासी-काल पुनः पुनः व्यक्त और अव्यक्त होते हैं स्थूल, सूक्ष्म और कारणगत आत्मा ही तब द्रव्य और ऊर्जा का रूप ग्रहण करता है। आत्मा भी तब स्वयं ही और स्वयं से ही अनेक, असंख्य पिण्डों में जीवभाव के रूप में परस्पर पृथक् और स्वतंत्र "अहंकार" के रूप में जगत् और जगत्सापेक्ष्य चेतन के रूप में असंख्य जीवों का रूप लेता है। और इसीलिए जन्म और मृत्यु आभासी और कल्पित घटनाएँ हैं, न कि वे वस्तुतः घटित होती हैं। इसलिए जीव के परिप्रेक्ष्य में न तो जन्म और न ही मृत्यु का अस्तित्व संभव है। जीव के परिप्रेक्ष्य और सन्दर्भ में, जन्म और मृत्यु सदैव ही किसी और के ही होते हैं। चेतन आत्मा, जीव और जड जगत् के परिप्रेक्ष्य में जन्म और मृत्यु नामक कुछ नहीं होता है।

***



प्रत्याहार

विषय - (Object), विषयी - (Subject),

और चित्त - (attention) 

--

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिने।। 

रसोऽपि रसवर्जं तं परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।

(श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय २)

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।५४।।

(पातञ्जल योगसूत्र - साधनपाद)

।।2.54।।

शांकरभाष्य 

--

स्वविषयसंप्रयोगाभावे चित्तस्वरूपानुकार इवेति चित्तनिरोधे चित्तवन्निरुद्धानीन्द्रियाणि नेतरेन्द्रियजयवदुपायान्तरमपेक्षन्ते। यथा मधुकरराजं मक्षिका उत्पतन्तमनूत्पतन्ति निविशमानमनुनिविशन्ते तथेन्द्रियाणि चित्तनिरोधे निरुद्धानीत्येष प्रत्याहारः।।

स्वविषय-असम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इव इन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।

स्वविषय-संप्रयोग अभावे चित्त-स्वरूप-अनुकार इव इति चित्त-निरोधे चित्तवत् निरुद्धानि इन्द्रियाणि न इतर इन्द्रिय-जयवत् उपायान्तरम् अपेक्षन्ते। यथा मधुकरराजं मक्षिका उत्पतन्तं अनु उत्पत्ति निविशमानं अनुनिविशन्ते तथा इन्द्रियाणि चित्त-निरोधे निरुद्धानि इति एषः प्रत्याहारः।। 

ततः परमावश्यता इन्द्रियाणाम्।।५५।।

ततः परमा वक्रता इन्द्रियाणाम्।।

--

विषयी के चित्त का इन्द्रियों के विषय से संपर्क होने पर वृत्ति-विशेष सक्रिय होती है। चित्त के निरुद्ध हो जाने पर चित्त की तरह से इन्द्रियाँ भी निरुद्ध हो जाती हैं। और  तब विषयी के रूप में विद्यमान अहं-वृत्ति भी अपने स्रोत में विलीन होकर शान्त हो जाती है। तब इन्द्रियाँ पूर्णतः परम वश में हो जाती हैं।

व्यवहार में ऐसा संभव नहीं होता। इसलिए सबसे पहले तो ध्यान (attention) को विषयों से हटाकर सिर्फ "मैं" / "स्वयं" पर लाया जाना होता है।

दूसरी रीति में ध्यान का विषय इष्ट / ईश्वर होता है, जिसका चिन्तन करते हुए अन्य सभी आते-जाते विचारों में लिप्त हुए बिना, उनकी उपेक्षा कर दी जाती है, और ध्यान को इष्ट / ईश्वर पर लौटाया जाता है। स्पष्ट है कि तब "मैं" ध्यानकर्ता के रूप में प्रच्छन्न (छिपा हुआ) रहता है। इसलिए प्रायः होता यह है कि मन विभाजित होकर एक साथ दो कार्यों में संलग्न होता है और दो ही क्या दो से अधिक भागों में भी उसकी गतिविधि जारी रहती है। यह एक बहुत संकटपूर्ण स्थिति होती है जिससे सावधान रहना चाहिए। अधिकतर लोगों का मन इस प्रकार इतना अधिक विभाजित (fragmented) हो जाता है कि यद्यपि वह एक ही समय में एक से अधिक कार्य (multitasking) तो कर सकता है किन्तु एक समय पर केवल किसी एक ही कार्य को कर पाना उसके लिए कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए आप ड्राइविंग सीखते समय जितना सावधान होते हैं और आपका मन तब जितना शून्य होता है, ड्राइविंग सीख लेने के बाद वैसे सावधान नहीं रह पाते और दूसरा कोई कार्य जैसे कि संगीत सुनना, किसी से फोन पर या वैसे ही बातचीत करने आदि कार्य में संलग्न हो जाते हैं। जैसा कभी सरकस में किसी को करते हुए देखा होगा।

इसका एक कारण यह होता है कि जिस विषय में हमारी स्वाभाविक रुचि होती है, उस विषय पर मन सरलता से एकाग्र हो जाता है और हमें एकाग्रता का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु कभी कभी विचित्र स्थिति ऐसी भी हो जाती है जब हमारी रुचि एक साथ दो या अधिक विषयों में होती है। परिस्थिति के अनुसार भी ऐसा आवश्यक हो जाता है जब हम दुविधा में कुछ तय नहीं कर पाते। 

तीसरी रीति से, जब ध्यान को इन्द्रियों से लौटाकर ब्रह्म के स्वरूप पर स्थिर किया जाता है तो अहं-वृत्ति ब्रह्म से पृथक् न रहकर ब्रह्म से उसका तादात्म्य हो जाता है। अर्थात् तब इसे ही ब्रह्माकार वृत्ति कहा जाता है। इस स्थिति में जो अनुभव होता है उसे "अहं ब्रह्मास्मि" कहा जा सकता है। किन्तु यह अपरोक्षानुभूति (आत्मज्ञान) नहीं है।

अपरोक्षानुभूति वह है जिसका उल्लेख "रसवर्जं" के रूप में प्रारंभ में किया गया है।

इन तीनों विधियों में योग के बहिरङ्ग उपायों :

निरोध, एकाग्रता, समाधि से प्राप्त "समापत्ति" के साथ साथ प्रत्याहार का प्रयोग अपरिहार्यतः आवश्यक है।

इससे यह स्पष्ट है कि प्रत्याहार (withdrawing of attention from external objects) कितना महत्वपूर्ण है।

यतो यतो हि निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। 

ततो ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।

***

 


Wednesday, November 20, 2024

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा

1/20

अध्याय १,

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।।

प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।२०।।

--

श्रीमद्भगवद्गीता में श्री हनुमानजी की क्या भूमिका है, इस एक श्लोक से अनुमान लगाया जा सकता है!

--