कुम्भ के बहाने!
What I'm Affraid of!
श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ इस प्रकार से होता है -
धृतराष्ट्र उवाच -
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।
शायद इससे अधिक उपयुक्त और प्रासंगिक कोई अन्य सन्दर्भ इस ग्रन्थ को प्रारंभ करने के लिए नहीं हो सकता है। जीवन को अर्थात् पुरुषार्थ को हम जिन चार रूपों में जान सकते हैं उनमें से धर्म प्रथम है -
धर्मः वस्तुस्वभावः।
धर्म अस्तित्व का स्वभाव है इसलिए जड चेतन हर वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है जिसका अनुष्ठान अनायास हुआ करता है। जीवनरूपी सरिता के इस स्वाभाविक और सरल प्रवाह में न तो कहीं कोई कर्ता, कर्म या कर्म का उद्देश्य हो सकता है। और जैसे ही इस प्रवाह में कोई रुकावट या बाधा आती है, तो उसकी प्रतिक्रिया के रूप में कर्ता, कर्म और कर्म का कोई उद्देश्य प्रकट हो उठते हैं। ये तीनों ही चेतना की गतिविधि हैं, जिनमें चेतना ही स्वयं को इन तीनों रूपों में विभाजित कर लेती है, और कर्ता के रूप में किसी व्यक्ति-सत्ता का प्राकट्य हो जाता है, अर्थात् वह सत्ता अहं-प्रत्यय की तरह इदं प्रत्यय से पृथक् और भिन्न रूप में भासित होती है। "किसे भासित होती है?" -यह पूछना एक अतिप्रश्न होगा। क्योंकि यह अद्वितीय चेतना ही विषय और विषयी, दृक् और दृश्य की तरह भी, दो की तरह से अस्तित्वमान और प्रतीत भी होती है।
धर्म से अर्थ की उत्पत्ति होने पर ही उस अर्थ को उद्दिष्ट के रूप में ग्रहण किया जाता है। और इसके बाद ही उस अर्थ की सिद्धि के लिए उपयुक्त प्रतीत होनेवाला समुचित और वाञ्छित कर्म किया जाता है।
"कुरु" पद, "कृ" उभयपदी धातु का युष्मद् सूचक लुट् लकार एकवचन परस्मैपदी रूप है, जबकि आत्मनेपदी धातु की तरह यही "कुरुष्व" हो जाता है।
प्रस्तुत श्लोक में यहाँ परस्मैपदी प्रयोग है।
किसी चेतन वस्तु में कर्तव्य की प्राप्ति उठने का भाव ही उसे कर्म करने के लिए होनेवाली प्रेरणा होता है। उसमें उठनेवाली यही भाव तत्क्षण कर्तृत्व का रूप ग्रहण कर लेता है और "मैं कर्ता हूँ" इस मूलतः त्रुटिपूर्ण कल्पना के उत्पन्न होने का कारण होता है। इस प्रकार, संपूर्ण जीवन वस्तु-मात्र के लिए "धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र" हो जाता है। "मामकाः" / "मेरे", और "पाण्डवाः" / "पाण्डु" नामक किसी दूसरे के पुत्रों के बीच तब भिन्न भिन्न उद्देश्यों की सिद्धि हेतु किया जानेवाला "कर्म" परस्पर विपरीत और विरुद्ध होने से "युद्ध" का रूप ले लेता है।
धर्म, अर्थ और काम का यह क्षेत्र तब धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र हो जाता है। और चेतन सत्ता का जीवन ऐसा ही युद्धस्थल होता है। कामना के बने रहने तक यह युद्ध सतत चलता रहता है। सतत युद्ध करता हुआ युद्ध में विजयी होने तक या मृत्यु की प्राप्ति होने तक, या युद्ध की निरर्थकता और भयावहता से पलायन कर लेने के विचार से प्रेरित होकर वह "चेतन" द्वन्द्व से ग्रस्त रहता है।
कुम्भ महापर्व शीघ्र ही संपन्न होने की ओर अग्रसर है। बहुत से भाग्यवान और पुण्यवान संगम स्नान कर चुके हैं। मुझसे भी उनकी अपेक्षा थी कि मैं भी करता या मुझे भी करना चाहिए था। मैं नहीं जानता कि मैं इस बारे में क्या कहें! कोई निश्चय कर पाने के लिए मैं स्वतंत्र हूँ भी या नहीं, या कि मैं कितना स्वतंत्र हूँ! और, क्या स्वतंत्रता आंशिक भी हो सकती है? यह भी मुझे नहीं पता है। मेरे कुम्भस्नान न कर पाने से न तो मुझे डर लगता है, और न मुझमें कोई अपराध-बोध ही उठता है, किन्तु किसी दूसरे की भावनाओं को मुझसे कहीं चोट न लग जाए इसका कुछ डर मुझे अवश्य है। और इसलिए उनका सामना कर पाने में भी!
कुम्भस्नान कर पाना या न कर पाना तो मेरे वश में नहीं है, किन्तु धर्म-रूपी गंगा, कर्म-रूपी यमुना, और दर्शन-रूपी अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी के इस पावन संगम में स्नान करते रहना मुझे अपेक्षाकृत सरल, और मेरा और भी अधिक बड़ा सौभाग्य अनुभव होता है।
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