2/49, 3/27, 4/13, 5/14, 5/15, 5/16, 15/15
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अध्याय २
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।
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अध्याय ३
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।२७।।
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अध्याय ४
श्रीभगवानुवाच :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान् अहं अव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।
स एव मया तेऽद्य योगो प्रोक्तः पुरातनम्।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।
अर्जुन उवाच :
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।
श्रीभगवानुवाच :
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तानि अहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्यापि कर्तारं मां विद्धि अकर्तारमव्ययम्।।१३।।
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अध्याय ५
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।
नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।
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अध्याय १५
सर्वस्य च अहं हृदि संनिविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैः अहम् एव वेद्यो
वेदान्तकृत् वेदविदेव च अहम्।।१५।।
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अध्याय १८
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।
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उपरोक्त सभी श्लोकों में दृष्टव्य है कि संस्कृत भाषा का प्रयोग इस कुशलता से किया गया है कि किसी भी अन्य भाषा में वह तात्पर्य आँखों से ओझल हो जाता है। सभी श्लोकों में अहं पद का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन में उसकी भिन्न भिन्न विभक्तियों में है जबकि क्रियापद वहाँ दिखाई नहीं देता। जैसे कि हिन्दी भाषा में :
'मैं हूँ' और 'मैं था' जैसे वाक्यों में सहायक क्रिया :
'हूँ' या 'था' से वर्तमान काल या भूतकाल का बोध होता है, संस्कृत भाषा के इन श्लोकों में इस अर्थ का द्योतक कोई शब्द ही नहीं दिखाई देता है और इसलिए इनका अनुवाद किसी दूसरी भाषा में करते ही संस्कृत श्लोक के मूल अर्थ पर ध्यान तक नहीं जा पाता।
इस बारे में इस या दूसरे ब्लॉग्स में भी विस्तार से लिख चुका हूँ। संक्षेप में यदि इस ओर ध्यान न दिलाया जाए तो कभी यह किसी को सूझता ही नहीं कि 'अहं' पद का प्रयोग उत्तम पुरुष और अन्य पुरुष एकवचन दोनों प्रकार से ग्राह्य हो सकता है।
उदाहरण के लिए -
तानि अहं वेद सर्वाणि
में अहं शब्द "मैं" (अर्थात् आत्म / आत्मा) या "वह" (अर्थात् आत्म / आत्मा) के रूप में :
उत्तम पुरुष एकवचन या अन्य पुरुष एकवचन दोनों ही दृष्टियों से व्याकरण-सम्मत है।
क्योंकि "वेद" शब्द 'विद्' धातु के लट् लकार का यही रूप है। तात्पर्य यह कि :
अहं वेद
का अर्थ "मैं जानता हूँ।" तथा "आत्मा जानता है।" इन दोनों रूपों में ग्रहण किया जा सकता है। तो, "हूँ" के साथ साथ या अतिरिक्त "है" शब्द भी पूर्णतः उपयुक्त है।
अध्याय ४ के १३वें तथा अध्याय ५ के तीनों ही श्लोकों का अभिप्राय और निहितार्थ भी यही है कि "कर्म" (तथा कर्ता एवं कर्तृत्व भी) केवल मान्यता या कल्पना हैं, और उनकी कोई पारमार्थिक सत्यता नहीं हो सकती है।
अध्याय ५ के श्लोकों में एक ही आत्मा के लिए क्रमशः "प्रभुः" और "विभु:" के प्रयोग से स्पष्ट है कि "ईश्वर" तथा "जीव" का भेद भी मानसिक कल्पना में ही संभव है, न कि वास्तविक है।
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