Thursday, November 6, 2025

2/72, 3/23, 4/11

संभव, दुष्कर, असंभव

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एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ

नैनां प्राप्य विमुह्यति। 

स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि

ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७२।।

गीता के दूसरे अध्याय में सांख्यनिष्ठा से प्रेरित बुद्धियोग के अधिकारी पुरुष और कर्म-निष्ठा से प्रेरित कर्म-योग के अधिकारी पुरुष की पात्रता की परस्पर तुलना करते हुए संकेत किया गया है कि दोनों में से किसी भी एक प्रकार की निष्ठा से युक्त पुरुष को वही फल प्राप्त होता है जो कि दूसरे प्रकार की निष्ठा से युक्त पुरुष को प्राप्त होता है किन्तु दोनों ही युक्तियों में उपासना किए जाने की विधि सिद्धान्ततः एक दूसरे से भिन्न है। सांख्य-निष्ठा की विधि से उपासना करनेवाला पुरुष द्वैत की कल्पना तक से भी रहित होता है। अर्थात् वह केवल नित्य-अनित्य के बीच विवेचना करते हुए और अनित्य का निवारण करते हुए, किसी उस नित्य को जानने का यत्न करता है कि अंततः जिसका त्याग या निवारण नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार की उपासना में मूलतः किसी ईश्वर नामक तत्व की भी कल्पना नहीं की जाती है। समस्त कल्पनाएँ वृत्तिमात्र होने से विषयात्मक स्वरूप की कोई वस्तु होती हैं और विषय-विषयी के द्वैत की सत्यता के स्वीकार पर निर्भर होती है। समस्त नित्य प्रतीत हो रही वस्तुओं में विद्यमान नित्यता पर संदेह नहीं किया जा सकता है, और सांख्य- दर्शन में उसे ही इस सत्य की तरह जान लिया जाता है कि यही वह चैतन्य है जो चेतना के रूप में जड-चेतन अस्तित्व के रूप में अव्यक्त से व्यक्त, और व्यक्त से अव्यक्त दशा में पुनः पुनः आता और जाता रहता है। चैतन्य ही अस्तित्व के प्रकट और अप्रकट रूपों में होने का अविकारी आधारभूत सत्य है।

इस सत्य का साक्षात्कार करने के लिए जो साधन है वह उसके द्वैत या अद्वैत होने की स्वीकृति के अनुसार भिन्न भिन्न है। जब इस सत्य को जानने के लिए अनुसंधान का सहारा लिया जाता है तो यह कोई कर्म न होकर जिज्ञासा का रूप ले लेता है किन्तु इस सत्य का साक्षात्कार किए बिना ही इसे किसी मान्यता या विश्वास के रूप में, किसी शाब्दिक और बौद्धिक निष्कर्ष के रूप में स्वीकार कर उसे अनुभूति के रूप में जानने का प्रयास किया जाता है तो उसके लिए कोई अभ्यास / कर्म किया जाना अपेक्षित होता है और उस सत्य की अनुभूति, "समय" के अन्तर्गत किसी "भविष्य" में होगी यह मान लिया जाता है।

और यह भी स्पष्ट नहीं होता है कि जिसे "समय" और "भविष्य" कहा जाता है वे स्वरूपतः क्या हैं? न तो उन्हें परिभाषित किया जा सकता है, न इंद्रियानुभव से और किसी भौतिक वस्तु की तरह अनुभव भी नहीं किया जा सकता है। संक्षेप में उस तरह से जैसा वैज्ञानिक आधार पर किसी "सत्य" को अकाट्यतः जाना और सिद्ध किया जाता है। इसलिए "सत्य" को उस "ईश्वरीय" / "दिव्य" सत्ता या शक्ति की तरह स्वीकार करना होता है जो इस संसार का सृष्टा, नियामक होता है और फिर अंततः इसे किसी समय मिटा देने का कार्य भी उसके आदेश से ही संपन्न होता है।

उसकी उपासना कर, उसे प्रसन्न कर उसकी कृपा प्राप्त करने के इस प्रयास में द्वैत को प्रारंभ से अंत तक "सत्य" मानना होता है। वस्तुतः द्वैत अन्योन्याश्रित ही हो सकता है और स्वयं और स्वयं के संसार के संदर्भ में ही, या स्वयं और स्वयं के उस "ईश्वर" के संदर्भ में जिसकी उपासना उसे माननेवाले करता है। यह अत्यन्त जटिल है, किन्तु इन सबमें अन्तर्निहित और आधारभूत जो वस्तु अर्थात्  "मन" है उसके अस्तित्व को किसी भी तर्क, अनुभव या उदाहरण से असत्य नहीं कहा जा सकता है। यहाँ महर्षि पतञ्जलि के योगशास्त्र का महत्व सहायक है, जिसमें "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" इस सूत्र से "मन" के स्थान पर "वृत्ति" शब्द का प्रयोग किया गया है। इसीलिए महर्षि पतञ्जलि का "योगशास्त्र" कर्म-योग का शास्त्र होने पर भी "सांख्य दर्शन" की तरह एक स्वतंत्र दर्शन है। दर्शन शब्द का अर्थ है "युक्ति"। सभी छः वेदसम्मत "दर्शन"  इसलिए विधियाँ या सिद्धान्त नहीं "युक्ति" / आगम या approach हैं। युक्ति और योग दोनों ही शब्द "युज्" युज्यते धातु से व्युत्पन्न हैं। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता को "योगशास्त्र" भी कहा जाता है जिसके प्रत्येक अध्याय के नाम में "योग" शब्द इसे ही इंगित करता है -

अर्जुन विषाद योग 

सांख्य योग

कर्म-योग

ज्ञान-कर्म-संन्यास योग

कर्म-संन्यास योग

आत्म-संयम योग

ज्ञान-विज्ञान योग

अक्षर-ब्रह्म योग

 राजविद्या-राजगुह्य योग

विभूति योग

विश्वरूपदर्शन योग 

भक्ति योग

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग

गुणकर्मविभाग योग

पुरुषोत्तम योग

दैवासुर सम्पद्विभागयोग

श्रद्धात्रयविभाग योग

मोक्षसंन्यास योग 

मोटे तौर पर श्रीमद्भगवद्गीता में योग के दो ही प्रकारों का उल्लेख किया गया है, किन्तु प्रत्येक अध्याय के शीर्षक के साथ "योग" शब्द का प्रयोग इसका द्योतक है कि हर मनुष्य अपनी पात्रता और रुझान के अनुसार उस आधार पर अपने लिए कोई विशेष तरीका तय  कर सकता है। उदाहरण के लिए कोई मनुष्य जो कि "विषादग्रस्तता" की मनःस्थिति से गुजर रहा है, पहले अध्याय को पढ़कर इससे ही और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित और उत्साहित हो सकता है। शायद उसकी रुचि अगले अध्यायों के प्रति भी जागृत हो सकती है। क्योंकि यह ग्रन्थ ऐसा नहीं है कि केवल एक बार पढ़ने से पूरी तरह से समझ में आ जाए। वास्तव में तो जितना शान्तिपूर्वक इसे पढ़ा जाए, उतना ही अच्छा है। इसका अध्ययन भी एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक साधना है, फिर इसे पुनः पुनः पढ़ते रहना तो परम श्रेयस्कर है इसमें संदेह नहीं।

प्रायः लोगों को इस ग्रन्थ का सार समझने में कठिनाई अनुभव होती है और प्रायः भी देखा जाता है कि अनेक मूर्धन्य प्रकाण्ड पंडितों तथा विद्वानों द्वारा इस पर लिखी गई विभिन्न टीकाओं और व्याख्याओं को पढ़ने से उनका अभिमान या / और भ्रम और भी बढ़ सकता है। केवल पंडितों और विद्वानों के बीच ही नहीं बल्कि अध्यात्म के मार्ग पर पथ-प्रदर्शन करनेवाले अनेक विचारकों के बीच भी कई बार मत वैभिन्न्य देखा जाता है जो कभी कभी तो उग्रता और कटुता की सीमा तक पहुँच जाता है। यह इसलिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि इससे जनसामान्य को कोई सहायता मिलना तो दूर, उनके मन में इस ग्रन्थ के प्रति अरुचि तक पैदा हो सकती है।

इसलिए होना तो यह चाहिए कि पहले तो इस ग्रन्थ का बहुत शान्ति और धैर्य से अध्ययन किया जाए। हो सके तो मूल संस्कृत भाषा में, या फिर इसके अपनी मातृभाषा में किए गए इसके सरल अनुवाद का, न कि बहुत बड़ी बड़ी विद्वतापूर्ण व्याख्याओं का। अनेक व्याख्याएँ पढ़ने से उलझन बढ़ ही सकती है। फिर स्वयं ही यह समझने का प्रयास करना उचित होगा कि आपकी जिज्ञासा और आपका मार्ग क्या हो सकता है। बहुत दीर्घ काल तक अध्ययन करते करते बहुत सी बातें स्पष्ट हो जाएगी। यदि सौभाग्य से आपको कोई सुयोग्य व्यक्ति, आचार्य या इस ग्रंथ के मर्मज्ञ इसे समझने में आपकी सहायता कर सके तो उससे अवश्य ऐसी सहायता ग्रहण करें। विवाद करने के लिए नहीं, बल्कि ध्यानपूर्वक उसकी बातें समझने की दृष्टि से।

अब इस ग्रन्थ के मुख्य विषय के बारे में -

इसमें सांख्य और योग इन दोनों पर ही दो मुख्य निष्ठाओं के रूप में जोर दिया गया है।

सांख्ययोग अर्थात् आत्मानुसंधान, और कर्मयोग का अर्थ है निष्काम कर्मयोग।

दोनों ही प्रकार की उपासना में "ईश्वर" की मान्यता का महत्व गौण है। इसका तात्पर्य यह कि दोनों ही प्रकार के आध्यात्मिक अभ्यास में "ईश्वर" को स्थान देना या कि कितना अधिक स्थान देना है, यह मनुष्य के अपने विवेक पर छोड़ दिया गया है। किन्तु क्रियायोग या भक्तियोग की दृष्टि से (स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।) ईश्वर को स्वीकार करने के पश्चात उसके साकार या निराकार, नाम रूप आदि के बारे में अनेक ऊहापोह और आग्रह उत्पन्न हो सकते हैं,  तब किसी ऐसे मार्गदर्शक की आवश्यकता अनुभव होती है जो हमें सतत मार्गदर्शन दे सके। शायद आपके सौभाग्य से आपको कोई ऐसा मार्गदर्शक मिल भी सकता है, या शायद न भी मिल पाए। किन्तु यह तो समझा जा सकता है कि गीता के अनुसार ईश्वर के नाम स्मरण से अधिक सरल और कुछ भी नहीं हो सकता है।  क्योंकि ईश्वर स्मृति का विषय नहीं है, न हो सकता है, किंतु उसका नाम और उसके जिस रूप से हम अनायास आकर्षित हैं वह रूप भी अवश्य ही स्मृति का विषय हो सकता है। गीता में ही यह भी कहा गया है कि अन्तकाल आने पर मनुष्य जिस किसी भी भाव का स्मरण करता है, मृत्यु के बाद उसकी वही गति होती है, और यह भी स्पष्ट है कि मृत्यु आने का कोई समय नियत नहीं होता। इसलिए उस नाम को यथासंभव अधिक से अधिक समय तक स्मरण किया जाए। हठपूर्वक नहीं, बल्कि उत्साह और प्रीतिपूर्वक। और यह भी देखा जाता है कि ईश्वर की भक्ति तभी होती है जब उसकी कृपा से हममें ऐसी भक्ति जागृत होती है। तो नाम-स्मरण और शुद्ध हृदय से किया जानेवाला सत्संग ही वह वस्तु हैं जिन पर हम निर्भर हो सकते हैं। यह भी सच है कि हम ही ईश्वर का भजन नहीं करते, वह भी हमारा भजन करता है -

अध्याय ३

यदि ह्यहं न वर्तेयम् जातु कर्मण्यतन्द्रितः।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।२३।।

अध्याय ४

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।११।।

*** 


 






। 

Tuesday, October 28, 2025

THE REALIZATION.

Of The Self and The God.

आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर साक्षात्कार

This post about :

The Self-realization,

And ;

The God-Realization,

Is in continuation, and a sequel to the earlier post :

The Many Past Lives.

It Deals with the importance of How in The Self-Realization, God-Realization is also attained as a consequence, though in The God-Realization, one may or may not attain The Self-Realization.

Therefore, we can say

Ultimately though The God-realization may or may not turn into :

The Self-Realization,

The God-Realization is invariably such a gift one is rewarded with, and at once, as soon as The Self-Realization is attained.

The following references given in that earlier post are relevant here also :

अध्याय २

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

अध्याय ७

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिदं स महात्मा सुदुर्लभः।।१९।।

अध्याय १०

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः।

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।७।।

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।८।।

मच्चिता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं  तुष्यन्ति च रमन्ति च।।९।।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।१०।।

Though, 

The Supreme Divine, The Ultimate 

Manifests as The 

सर्वलोकमहेश्वरः,

As The One,Who

Creates, Preserves and Dissolves The Universe as His Own Manifest Form, This Universe is only but a fraction of His The Supreme and The Ultimate Aspect, as is evident from the verse 42 of Chapter 10 :

अध्याय १०

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।४२।।

I abide as this Universe also as a part of Myself -

The Supreme and Ultimate Truth.

The Creation, The Preservation and The  Dissolution are The Actions performed by this सर्वलोकमहेश्वरः  aspect of Him.

Therefore this performing of 

His Actions  is called  योगं ऐश्वरम् 

अध्याय ११.

अर्जुन उवाच -

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।

यत् त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।१।।

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया। 

त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।।२।।

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर। 

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।३।।

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।

योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम्।।४।।

श्रीभगवानुवाच -

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशो अथ सहस्रशः।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।५।।

पश्यादित्यान् वसून् रुद्रान् अश्विनौ मरुतस्तथा।

बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याऽश्चर्याणि भारत।।६।।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। 

ममदेहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि।।७।।

पश्य मे योगमैश्वरम्।।

(Chapter 11)

***




८,९,१०


Monday, October 27, 2025

The Many Past-Lives.

अध्याय २

दूरेणह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

The culmination of this doctrine is again affirmed in the following verses of the Chapter 10 :

एतां विभूतियोगं च मम यो वेत्ति तत्वतः। 

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।७।।

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। 

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।८।।

मच्चिता मद्गतप्राणाः बोधयन्तः परस्परम्। 

कथयन्तं च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।९।।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।१०।। 

This is how the two kinds of  निष्ठा; (that are synonymous with the three kinds of  श्रद्धा ) define the eligibility of a spiritual seeker 

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

सांख्ययोगेन ज्ञानीनां कर्मयोगेन योगिनाम्।।

And, 

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।

सात्विकी राजसी चैव तामसी चैव तां शृणु।।

अध्याय ७

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिदं स महात्मा सुदुर्लभः।।१९।।

अध्याय ४

श्रीभगवानुवाच -

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययः।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परंपराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एवायं ते मयाऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच -

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच -

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

अध्याय १०

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय। 

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।३७।।

(कठोपनिषद् - उशनस् वाजश्रवसः ...)

उशनस् - उशना इति वाजश्रवा इति ज्ञातव्यम् 

अध्याय ११

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा

स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः। 

आश्वासयामास च भीतमेनं

भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।।५०।।

In this way the Manifest Existence, the world of perceptions is but a part of the Supreme Self  Who enters this Manifest Existence. The same has been declared in the following verse of Chapter 10 -

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। 

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेनस्थितो जगत्।।४२।।

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Sunday, October 12, 2025

3/27, 4/13, 7/27 18/65

संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध 

अष्टभार्या

श्रीमद्भागवद्महापुराण में प्राप्त वर्णन के अनुसार ये आठ रानियाँ, जिनके नाम : सत्यभामा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रवृन्दा आदि हैं,  भगवान् श्रीकृष्ण की आठ प्रधान रानियाँ  हैं, जो आधिभौतिक रूप से अष्टधा प्रकृति के ही प्रकार हैं और भगवान् श्रीकृष्ण के आधिभौतिक स्वरूप से संयुक्त हैं। दूसरी ओर, उनका आधिदैविक स्वरूप जो पुरुषोत्तम है, चतुर्भुज है, जबकि उनकी पराप्रकृति जो कि श्रीराधा हैं, उनसे अभिन्न और उनकी नित्यसंगिनी हैं, किन्तु जगत और जीवों के परिप्रेक्ष्य में उनकी वही माया  है जिसके बारे में भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है -

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। 

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

ये आठ रानियाँ जो अष्टधा अपरा प्रकृति हैं और भगवान् श्रीकृष्ण ही एकमात्र पुरुष हैं। अध्याय १३ में वर्णित क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ यही हैं जबकि भगवान् श्रीकृष्ण ही जीव के रूप में परमात्मा का अंशविशेष हैं जो कि व्यक्ति-भाव है अर्थात् जो मानसिक जगत् या आधिदैविक तत्व है। यही तत्व पारमार्थिक दृष्टि से राधा-कृष्ण युगल है। राधा-कृष्ण के इसी रूप को पुनः पौराणिक शैली में शिव-पार्वती या सीताराम के रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है जहाँ भगवान् शिव और माता पार्वती, भगवान् श्रीराम और माता सीता परस्पर अभिन्न हैं। उनके बीच यह अभेद ही मनुष्य के मानसिक धरातल पर व्यक्ति विशेष का देवता है जिसे अध्याय ३ के निम्न श्लोक में अहंकारविमूढात्मा कहा गया है -

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति इति मन्यते।।२७।।

जब कोई मनुष्य आध्यात्मिक अभ्यास या अनुसंधान में प्रवृत्त होता है तो उसमें विद्यमान यही देवता जो स्वयं उसका ही अहंकार / ego  है, स्वयं भी प्रकृति-पुरुष युगल होता है।

 भगवान् श्रीकृष्ण की संतानें

संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध

इसी व्यक्ति भाव से युक्त अहंकार का रूप लेकर उसमें कार्य करती हैं। 

आकर्षण शक्ति स्थूल भौतिक विज्ञान में पदार्थ से सूक्ष्म रासायनिक तथा सूक्ष्मतर तन्मात्रात्मक quantum  के रूप में कार्य करती हैं। स्थूल भौतिक विज्ञान में द्रव्य के गुणधर्म  general properties of matter, सूक्ष्म भौतिक स्तर पर प्रकाश का अंधकार की ओर होनेवाला आकर्षण, चुंबकीय उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के बीच का आकर्षण तथा वैद्युत् स्तर पर धन आवेशयुक्त और ऋण आवेशयुक्त कणों के बीच का आकर्षण यह सब इसी के प्रकार और कार्य हैं। मन के स्तर पर यही आकर्षण स्त्री रूपी प्रकृति और पुरुष रूपी अहंकार के बीच होता है और आध्यात्मिक स्तर पर यही श्रीराधा और श्रीकृष्ण के बीच है।

आध्यात्मिक अभ्यास अर्थात् उपासना के केवल दो ही  शास्त्रोक्त प्रकार हो सकते हैं -

पहला है ज्ञानयोग अर्थात् सांख्यनिष्ठा और दूसरा है कर्म अर्थात् कर्मनिष्ठा। किसी भी मनुष्य यही निष्ठा जो उसका स्वभाव है उससे अभिन्न होती है -

लोके अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन कर्मिणाम्।।

जबकि इसी निष्ठा को त्रिविधा श्रद्धा भी कहा जाता है :

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।  

श्रद्धामयो अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।

अध्याय १५ के श्लोक ७ में इसी संकर्षण या आकर्षण शक्ति के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार से किया गया है :

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतो सनातनः।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

प्रद्युम्न का अर्थ है अहं-स्फुरण। आत्मा की नित्यता और अविनाशिता का बोध अव्यय होने से कभी नष्ट नहीं होता बल्कि सतत ही उसका विस्तार होता रहता है यही सगुण या निर्गुण, साकार या निराकार, द्वैत या अद्वैत ब्रह्म है, और यही भगवान् श्रीकृष्ण का अनिरुद्ध स्वरूप है।

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Friday, September 19, 2025

Catch-22

1/21, 1/22

अध्याय १

अर्जुन उवाच 

हृषीकेशं तदावाक्यमिदमाह महीपते।

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।२१।।

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे।।२२।।

अर्थ

राजा धृतराष्ट्र (महीपति) से सञ्जय कह रहे हैं :

तब अर्जुन ने हृषीकेश (भगवान् श्रीकृष्ण) से यह वाक्य कहा - हे अच्युत्! रथ को दोनों सेनाओं के मध्य इतने समय तक खड़ा रखो।

जितने समय में मैं यह देख लूँ कि युद्ध के इस उपक्रम में युद्ध करने की इच्छा रखनेवाले किसे मेरे साथ, और मुझे किसके साथ युद्ध करना है।

कैर्मया -

कैः - कः पद, कैः - 

तत् पद, अन्य पुरुष, बहुवचन, तृतीया विभक्ति

मया - 

अस्मद् पद, उत्तम पुरुष एकवचन, तृतीया विभक्ति

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Saturday, September 13, 2025

13/29, Yoga-Sutras, Ishwara,

अहिंसा

समं पश्यन्हि सर्वत्रं समवस्थितमीश्वरम्। 

न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।२९।।

अध्याय १३ के उपरोक्त श्लोक में अहिंसा की उपरोक्त परिभाषा के अनुसार अहिंसा अपरिहार्यतः योग का वह अंग है जिसका उल्लेख महर्षि पतञ्जलि ने साधनपाद के योगसूत्र ३० में किया है -

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः।।३०।।

अहिंसा के स्वरूप को तत्वतः समझने के लिए गीता से उद्धृत उपरोक्त अध्याय १३ के श्लोक २९ से इस योगसूत्र की तुलना के द्वारा की जा सकती है।

***


5/8, 5/9

नैव किञ्चित्करोमीति

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।८।।

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।९।।

दो श्लोकों में अभिव्यक्त इन पंक्तियों को क्या एक ही श्लोक में अभिव्यक्त किया जाना विचारणीय नहीं होगा? 

क्योंकि दोनों को संयुक्त रूप में देखने पर उनके पृथक् रूप में प्रतीत होने वाला उनका आंशिक तात्पर्य एकमेव  और पूर्ण जान पड़ता है। और यह भी सत्य है कि दोनों को एक दूसरे से अलग देखने पर दोनों ही अधूरे जान पड़ते हैं।

जैसे इसे अपनी रुचि और सुविधा के लिए निम्नलिखित प्रकार से भी सुनिश्चित किया जा सकता है -

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।

मुझे प्रायः इसे इसी रूप में स्मरण रखना प्रिय है।

प्रसंगवश यहाँ उल्लेखनीय है कि श्रीमद्भागवद्महापुराण के आधार पर श्री मध्वाचार्य संप्रदाय श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १३ में इस ग्रन्थ के मूलपाठ में प्रथम श्लोक को संशोधित कर एक अन्य श्लोक प्रक्षेपित किया गया है, जिसके आधार पर इस अध्याय में एक श्लोक बढ़ गया है, जिसे श्रीधर स्वामी के श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य में भी पाया जा सकता है। 

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Thursday, August 28, 2025

9/22, 18/55.

माम् / मां

9/22

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

18/55

भक्त्या मां अभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।

***

उपरोक्त दोनों श्लोक इस अर्थ में अद्भुत् हैं कि दोनों में "मां" पद को उत्तम पुरुष एकवचन द्वितीया या अन्य पुरुष एकवचन द्वितीया के रूप में आत्मा / परमात्मा, दोनों के ही संबंध में भिन्न भिन्न प्रकार से ग्रहण किया जा सकता है। इससे उनकी महिमा में रंचमात्र भी कमी नहीं होती। 

आधाराधेय-संबंध

राधा का उल्लेख श्रीमद्भागवद्महापुराण में है या नहीं इस विवाद की उपेक्षा कर यदि राधा पद का तात्पर्य आधाराधेय-संबंध की विववेचना से समझने का यत्न किया जाए तो संभवतः इसे 

आधार-आधेय-संबंध

आ-धा-राधेय 

के रूप में ग्रहण किया जा सकता है जहाँ राधा और श्रीकृष्ण एक दूसरे से वैसे ही अनन्य हैं जैसा कि ऊपर अध्याय ९ से उद्धृत श्लोक २२ से विदित होता है।

वैसे भी राध् - आ उपसर्ग पूर्वक - आराधनम्, उपासना के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जब आराधना में त्रुटि होती है तो उसे अपराध कहा जाता है।

राधा-तत्व के स्वरूप का साक्षात्कार केवल नाम-जप से भी संभव है और, श्रीकृष्ण तत्व का ही पर्याय है। राधा नामक मानव-रूपी किसी स्त्री-विशेष तक उसे सीमित नहीं किया जा सकता है। राधा विशुद्ध भक्ति है न कि रूखा सूखा बौद्धिक चिन्तन। 

यह खेदजनक है कि कुछ यशस्वी और परम वैष्णव सन्त तथा भक्त भी इस विषय में पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर दूसरों को भी भ्रमित कर रहे हैं जिसका सर्वथा अनुचित लाभ लेते हुए कुछ दुष्ट और विधर्मी मतावलंबी सनातन धर्म का उपहास करते हुए सनातन धर्म को अपूरणीय क्षति पहुंचाने में संलग्न हैं।

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Saturday, August 23, 2025

16/23, 5/26, 6/31, 3/21

वर्तते

16/23

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। 

न सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।२३।।

(अध्याय १६, Chapter 16, verse 23)

5/26

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।२६।।

(अध्याय ५, Chapter 5, verse 26)

6/31

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।३१।।

(अध्याय ६, Chapter 6, verse 31)

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अपने स्वाध्याय के समय यह प्रश्न प्रायः मन में उठता रहा है कि भाषा और व्याकरण के आधार पर, उस कसौटी से शास्त्र के तात्पर्य को ग्रहण किया जाना उचित है, या कि जैसे मातृभाषा अनायास ही सीख ली जाती है और फिर उस ज्ञान के आधार पर प्राप्त हुए संस्कार के आधार पर, उस कसौटी पर शास्त्र का पाठ करते हुए भाषा और उस  भाषा के व्याकरण की सिद्धि करते हुए शास्त्र के तात्पर्य का अनुशीलन किया जाना उचित है?

दूसरे शब्दों में,

जैसे मातृभाषा अनायास ही सीखी जाती है, क्या शास्त्र की भाषा को भी अनायास ही, व्याकरण की सहायता लिए बिना ही सीखा जाना अधिक उचित नहीं है?

व्याकरण का प्रयोजन केवल इतना है कि उससे भाषा के, और शास्त्र के अभीष्ट तात्पर्य का संप्रेषण यथासंभव त्रुटिरहित हो।

इससे यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि आगम या आगमन की प्राप्ति दो युक्तियों से की जा सकती है -

व्याकरण की सहायता लिए बिना सीधे ही, विवेक और विवेचना के माध्यम और आधार से, या फिर व्याकरण की सहायता से शास्त्र-वचनों में प्रयुक्त शब्दों के स्थानीय महत्व (कर्ता / संबोधन, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध तथा अधिष्ठान को, -- समास और संधि, उपसर्ग, सुबन्त तथा तिङ्गन्त आदि को ध्यान में रखकर आगम   को आधार के रूप में उस प्रमाण की तरह ग्रहण किया जाए जिसे पातञ्जल योगसूत्र, समाधिपाद में -

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

सूत्रों में वृत्ति के एक प्रकार-विशेष की तरह इंगित किया गया है?

प्रमाण क्या है इसे गीता के अध्याय ३ के श्लोक २१ के आधार पर भी देखा जा सकता है -

यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनाः। 

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।२१।।

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Wednesday, June 4, 2025

The Truth of Death!

क्या मृत्यु अटल सत्य है?

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यू-ट्यूब के एक वीडियो में वे महात्मा गरुड़ पुराण और अन्य ग्रन्थों के संदर्भ में विस्तार से यह विवेचना कर रहे थे कि मनुष्य की मृत्यु हो जाने के बाद वह किस लोक में जाता है, वहाँ कितने समय तक रहता है, और किस गति को प्राप्त होता है।

यह सब अत्यन्त रोचक और ज्ञानवर्धक था, इसमें संदेह नहीं, किन्तु मन में प्रश्न आया कि गीता में इस बारे में क्या कहा गया है!

श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरा अध्याय श्लोक 1 से 27 तक इस बारे में यह वर्णन किया गया है -

सञ्जय उवाच -

तं तथा कृपया आविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन।। -1

श्रीभगवानुवाच -

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।। -2

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।। - 3

अर्जुन उवाच-

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।

इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।। - 4

गुरूनहत्वा हि महानुभावान् 

श्रेयो भोक्तुमपीह लोके।

हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव 

भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।। - 5

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो

यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः

यानेव हत्वा न जिजीविषाम-

स्ते अवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।। - 6

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्ते अहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। - 7

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-

द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।

अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धम्

राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।। - 8

सञ्जय उवाच -

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।। - 9

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।। - 10

श्रीभगवानुवाच  -

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।। 11

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।। - 12

देहिनो अस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।। - 13

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदा।

आगमापायिनो अनित्या तांस्तितिक्षस्व भारत।। - 14

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदुःखसुखं धीरं सः अमृतत्वाय कल्पते।। - 15

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः

उभयोरपि दृष्टो-अन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।। - 16

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।। - 17

अन्तवन्त इमे देहाः नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।

अनाशिनो अप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।। - 18

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।। - 19

न जायते म्रियते वा कदाचिन्-

नायं भूत्वा-(अ)भविता वा भूयः।

अजो नित्यो शाश्वतो अयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। - 20

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।। - 21

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरो-अपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्ययानि संयाति नवानि देही।। - 22

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। - 23

अच्छेद्यो अयं अदाह्यो अयं अक्लेद्यो अशोष्य एव च।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलो अयं सनातनः।। - 25

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैैव शोचितुमर्हसि।। - 26

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्य-अर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। - 27

इससे स्पष्ट हो जाता है कि मृत्यु केवल मन में उठी एक कल्पना या विचार मात्र है, जिसका अस्तित्व घटना की तरह भी यदि स्वीकार किया जाए तो यह प्रश्न उठता है कि मृत्यु (नामक यह घटना) किसे प्रभावित करती है?

जिस अविनाशी आत्मा का वर्णन ऊपर किया गया है, न तो उसकी और न ही उस "देही" / चेतन तत्त्व / चेतना / मन या चित्त की ही मृत्यु हो सकती है जो पुरानी देह को पुराने और जीर्ण वस्त्रों की तरह त्यागकर नये और दूसरे शरीर को नये वस्त्रों की तरह धारण कर लेता है।

तात्पर्य यह हुआ कि यदि मृत्यु केवल कल्पना या विचार भर है जो दूसरी कल्पनाओं और विचारों की तरह आता और जाता रहता है, और इसलिए उसकी सत्यता तक यदि संदिग्ध है, तो वह "अटल" सत्य कैसे हो सकता है? क्या यह बहुत बड़ा आश्चर्य ही नहीं है कि इस झूठे तथ्य की परीक्षा किए बिना ही हर कोई ही इसे ब्रह्मवाक्य की तरह सिर-माथा झुकाकर स्वीकार कर लेता है!

इस तरह जाने अनजाने ही आत्मा के तत्त्व की उपेक्षा कर दी जाती है और लोक-परलोक, जन्म-पुनर्जन्म की उन रोचक और अन्तहीन कल्पनाओं में मन भटकता ही चला जाता है, और संशय फिर भी बने ही रहते हैं!!

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