Sunday, April 24, 2022

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे

।। प्रथमोप्रथमः गीतायाम् ।।

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श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का प्रथम और प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार से है :

धृतराष्ट्र उवाच --

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।। 

मामका पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।

इस प्रकार एक ओर तो यह ग्रन्थ धर्म-विषयक है ही, वहीं यह कर्म-विषयक भी है। किन्तु यहाँ क्षेत्र पद का सन्दर्भ और अर्थ प्रसंगवश अध्याय १३ के प्रथम निम्नलिखित श्लोक से भी ग्रहण किया जा सकता है। यह श्लोक इस प्रकार से है --

श्रीभगवानुवाच --

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।। 

एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।१।।

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।। 

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।२।।

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तात्पर्य यह हुआ कि यह शरीर ही क्षेत्र कहलाता है। इस प्रकार से जो जानता है, उस जाननेवाले को तत्त्वविद् क्षेत्रज्ञ कहते हैं। पुनः, सभी क्षेत्रों में अर्थात् शरीरों में विद्यमान जो क्षेत्रज्ञ है उसे भी, हे अर्जुन! तुम मुझे ही जानो।

इस प्रकार से क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के विषय का जो ज्ञान है, वह ज्ञान ही मेरे मत में वास्तविक ज्ञान है!

यह स्थूल शरीर, पाँच स्थूल महाभूतों का, प्रकृति से बना संयोग है, और यह शरीर, जड प्रकृति  (insentient) के नियमों से परिचालित होता है। इस शरीर में विद्यमान प्राण भी इसी प्रकार जड अर्थात् insentient हैं, किन्तु इस शरीर को और शरीर में विद्यमान प्राणों को जाननेवाला, और उन्हें "मेरा" कहनेवाला, इनका ज्ञाता, जड (insentient) कदापि नहीं है, बल्कि कोई चेतन (sentient) तत्व है, जो स्वयं ही स्वयं का द्योतक और प्रमाण भी है। प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में जिस धृतराष्ट्र का उल्लेख है यद्यपि अन्धा है, किन्तु उसकी स्त्री गांधारी अन्धी न होते हुए भी केवल पति की अनुगामिनी होने से अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर अन्धे की तरह रहती है।

राजा धृतराष्ट्र इस प्रकार से हर उस मनुष्य का प्रतीक है जिसमें अभी विवेक जागृत नहीं हुआ है, और जिसकी बुद्धि ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है। 

इस प्रकार जिसके शरीर और इन्द्रियाँ आदि यद्यपि अपने अपने धर्म का अनायास ही पालन करते हैं, शरीर रूपी राष्ट्र का स्वामी धृतराष्ट्र की तरह विवेकशून्य है। उसके एक सौ पुत्र हैं, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा या प्रमुख है। ये एक सौ पुत्र शरीर से संबद्ध मन के ही विभिन्न रूप हैं।

दूसरी ओर, पाण्डवों के रूप में पाँच भाई पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और जीवन में संघर्ष अर्थात् युद्ध में स्थिर, धीर रहनेवाला विवेक ही युधिष्ठिर है। बल भीम, तथा अर्जुन कुशल बुद्धि है। नकुल नेवले की तरह सतर्क, सावधान चपल चतुराई है, और सहदेव इनके साथ रहनेवाला सद्गुण है। 

यह संपूर्ण शरीर ही धर्म का क्षेत्र है जबकि समस्त कर्मेन्द्रियाँ कर्मक्षेत्र या कुरुक्षेत्र हैं। 

इस प्रकार मनुष्य का मन ही वह धर्मक्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र है, जहाँ यह युद्ध सतत चलता रहता है। 

मामका पद का प्रयोग धृतराष्ट्र द्वारा अपने पुत्रों के अर्थ में किया गया है। धृतराष्ट्र की तरह हर मनुष्य अपने आप अर्थात् अहंकार को अपने जीवन के विधाता, स्वामी, ज्ञाता और भोक्ता की तरह स्वतंत्र मानते हुए भी सतत संघर्ष और संशय से ग्रस्त है। 

पुनः यद्यपि हर मनुष्य अपने आपको इस प्रकार से एक स्वतंत्र व्यक्ति तो मानता है, फिर भी हर कोई भविष्य से अनजान और अनभिज्ञ, आशंकित होता है।

भगवान् श्रीकृष्ण पुनः इस सच्चाई की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं कि यद्यपि सभी शरीरों में विद्यमान और उनसे संबद्ध अहंकार क्षेत्रज्ञ की तरह स्वयं को एक अलग और स्वतंत्र व्यक्ति मानता है, उन सभी शरीरों / क्षेत्रों में हे अर्जुन! तुम मुझे, मुझ परमात्मा को ही सबमें विद्यमान सबका अन्तर्यामी जानो।

हे अर्जुन! इस प्रकार का क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ से संबंधित ज्ञान ही मेरे मत में वास्तविक ज्ञान है। 

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Sunday, April 17, 2022

सम्मोह, स्मृति और ध्यान

अध्याय २

ध्यायतो विषयान्पुन्सः संगस्तेषूपजायते।।

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।६२।।

क्रोधात्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।६३।।

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अध्याय ६

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्लमस्थिरम्।। 

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।

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अध्याय ७

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत।। 

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

अध्याय १८

श्रीभगवानुवाच --

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।। 

कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।। ७२।।

अर्जुन उवाच --

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा  त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।७३।।

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जब पुरुष / मनुष्य जिस भी किसी विषय का ध्यान करता है, या जब किसी विषय पर उसका ध्यान होता है तो उसका चित्त उस विषय से जुड़ जाता है। इस प्रकार किसी भी विषय से जुड़ते ही उस विषय से संबंधित कामना जन्म लेती है और उस कामना के पूर्ण न होने से, या कामना से विपरीत, अनचाहा अनुभव प्राप्त होने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध के परिणाम से सम्मोह चित्त को अभिभूत कर लेता है। सम्मोह के प्रभाव से स्मृति का भ्रंश होकर स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति के भ्रष्ट होने का तात्पर्य है, विभिन्न स्थितियों, वस्तुओं आदि को उनके वास्तविक स्वरूप से न देखकर अन्य किसी और ही कल्पना को विषय पर आरोपित कर दिया जाता है। तब मनुष्य की बुद्धि में भी विकार उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार बुद्धि के नष्ट हो जाने से मनुष्य भी नष्ट हो जाता है। 

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चञ्चल मन जहाँ जहाँ भटकता हो, वहाँ वहाँ से उसे पुनः पुनः लौटकर अपनी आत्मा के ही वश में लाया जाना आवश्यक है, (ताकि वह विषयों से संलग्न ही न हो।)

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हे परन्तप! मनुष्य-मात्र में, जन्मजात ही (सुख-प्राप्ति की) इच्छा और (दुःख प्राप्त न हो, या दुःख से भयरूपी) द्वेष की भावना  भावना विद्यमान होती है। और उन दोनों के बीच द्वन्द्व-रूपी मोह होने से निरपवाद रूप से प्रत्येक मनुष्य जन्म से ही संभ्रम-युक्त मोह से ग्रस्त होता है।

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भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा --

हे अर्जुन! मैंने तुमसे जो कुछ भी कहा, क्या एकाग्र-चित्त होकर तुमने उसका श्रवण किया? क्या तुम्हारा अज्ञान और संशय पूरी तरह से नष्ट हुआ?

अर्जुन ने कहा --

हे अच्युत! तुम्हारी कृपा के प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया और मेरी स्मृति भी दोषरहित होकर पुनः मुझे प्राप्त हो गयी। अब मेरे हृदय से सन्देह भी दूर हो गया है, इसलिए अब मैं वही करूँगा, जैसा करने के लिए तुमने मुझसे कहा है।

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Sunday, April 10, 2022

गीता में ध्यान-योग

साङ्ख्य-निष्ठा और कर्म-निष्ठा

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ज्ञान अर्थात् साङ्ख्य-ज्ञान / साङ्ख्य-योग और कर्म-योग यही दो प्रकार की निष्ठाएँ ही श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ का प्रधान विषय है। निम्न श्लोक में इसी को सूत्र-रूप में व्यक्त किया गया है :

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय १२)

यहाँ ज्ञान को साङ्ख्य ज्ञान अथवा बौद्धिक ज्ञान, दोनों के अर्थ में सन्दर्भ के अनुसार ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु ध्यान का संकेत यहाँ महर्षि पतञ्जलि-कृत योगशास्त्र के सन्दर्भ में लिया जाना, अधिक सार्थक तथा समीचीन होगा। क्योंकि किसी भी ध्यान के अभ्यास में ध्याता (अर्थात् विषयी / subject), ध्येय (अर्थात् विषय / object) और दोनों के एक-दूसरे से संबंधित होने में, ध्यान ( -विषय और विषयी का संयोग / attention) भी एक कारक (factor) तो होता ही है। इसीलिए पतञ्जलि महर्षि ने इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय (समाधिपाद) के प्रारंभ में ही योग को परिभाषित करते हुए :

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।

का उल्लेख किया है।

तृतीय अध्याय में :

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।३।।

के पश्चात् धारणा, ध्यान तथा समाधि तीनों के एकत्र होने को संयम कहा है :

त्रयमेकत्र संयमः।।४।।

तज्जयात् प्रज्ञालोकः।।५।।

(उपरोक्त सूत्र ५ को श्रीमद्भगवद्गीता के  श्लोकों 2/54, 2/55, 2/56, 2/57, 2/58, और 2/61 के संदर्भ में ग्रहण किया जाना प्रासंगिक होगा।) 

तस्य भूमिषु विनियोगः।।६।।

इस प्रकार की भूमिका के बाद चित्त की वृत्ति पर होनेवाले तीनों प्रकारों के परिणामों - क्रमशः निरोध-परिणाम, समाधि-परिणाम तथा एकाग्रता-परिणाम के चित्त पर होनेवाले प्रभाव को स्पष्ट किया गया है। इन प्रभावों से ही पुनः चित्त के धर्म, लक्षण और अवस्था परिणामों की व्याख्या की गई है :

एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्था परिणामा व्याख्याताः।।१३।।

उपरोक्त विवरण यहाँ इस संबंध में महत्वपूर्ण है कि जब भक्ति (रूपी कर्म) के माध्यम से इष्ट के स्वरूप की मानसिक प्रतिमा पर ध्यान एकाग्र किया जाता है उस समय भी चित्त पर (जानते हुए या अनजाने ही) उक्त परिणाम होते हैं।

पातञ्जल योगसूत्र में साधनपाद में कहा गया है :

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

इसी दृष्टा का वर्णन समाधिपाद में :

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।।३।।

के द्वारा किया गया है। 

सैद्धान्तिक विवेचना की दृष्टि से यह सब उपयोगी है, किन्तु यह फल तो अभ्यास से ही सिद्ध होता है, केवल कठिन और दुरूह शब्दावलि से परिचित होने मात्र से नहीं।

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Saturday, April 9, 2022

कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग

अभ्यास-योग

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वैसे तो इन दो प्रकार की निष्ठाओं के अनुसार मनुष्य ज्ञान-मार्ग और कर्म-मार्ग में से किसी एक का ही अधिकारी हो सकता है, किन्तु कोई बिरला ही इस बारे में जागरूक होता है। यह जानने से पहले प्रायः सभी मनुष्य संसार में निरंतर सुख पाते रहना एवं कष्टों से बचते रहना ही चाहते हैं। जब तक मनुष्य यह नहीं देख पाता कि सुख और दुःख परिस्थितियों और समय के साथ साथ अपना रंग-रूप बदलते रहते हैं तब तक मनुष्य सदैव सुखी रहने और दुःख से बचे रहने की लालसा से ग्रस्त रहता है। किन्तु जब उसे दुःख से बचने का कोई रास्ता दिखाई देना बन्द हो जाता है, तब वह या तो किसी भगवान, ईश्वर, देवता आदि की शरण लेता है, या संसार तब उसे सतत बदलते दिखाई देनेवाले दुःख का ही दूसरा नाम प्रतीत होता है। इस स्थिति में भी भगवान, ईश्वर या देवता कौन / क्या है, यद्यपि इसकी भी उसे कल्पना, ज्ञान और इसका कोई महत्व तक नहीं होता, फिर भी वह केवल आशा-अपेक्षा और संभावना की दृष्टि से वह ऐसे किसी इष्ट में विश्वास करना चाहता है, -न कि उसे ऐसा कोई विश्वास वस्तुतः होता है, किन्तु  फिर भी ऐसे विश्वास से उसे मनोवैज्ञानिक रूप से कुछ सान्त्वना मिलती हुई भी प्रतीत हो सकती है। या फिर आसपास के दूसरों लोगों के संपर्क से भी वह ऐसी किसी आस्था को जाने या अनजाने ग्रहण कर लेता है, जो कि उसकी एक धारणा ही होती है, न कि यथार्थ वस्तुस्थिति। 

फिर भी दोनों ही स्थितियों में उसे संसार से भय लगने लगता है, या वैराग्य ही हो जाता है। यह वैराग्य उस विराग से बहुत अलग प्रकार का होता है, जिसमें मन एक विषय से ऊब जाने से किसी दूसरे विषय की ओर आकर्षित होने लगता है।

तब मनुष्य यद्यपि नित्य सुख और अनित्य सुख के भेद को तो समझ लेता है, किन्तु फिर भी उसे यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि नित्य और अनित्य जिसे कहा जाता है, वह (तत्व) वस्तुतः क्या है?

इस प्रकार परिपक्व मन, बुद्धि वाला, धैर्यशील तथा वैराग्य-युक्त कोई बिरला ही उस नित्य तत्व की खोज में प्रवृत्त होता है और उसे ठीक ठीक जानकर आत्मा, ब्रह्म, ईश्वर, चेतन, चैतन्य-मात्र,  चेतना, भान, बोध या निजता आदि का नाम देता है। या यह भी संभव है कि तब वह उसे कोई नाम ही न दे, और मौन रहते हुए वाणी का प्रयोग केवल व्यावहारिक रूप से बहुत आवश्यक होने पर ही करे।

किसी भी स्थिति में मनुष्य को प्रारंभ में कोई न कोई अभ्यास तो करना ही होता है :

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्याच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय१२)

यहाँ 'ज्ञान' का तात्पर्य केवल सापेक्ष, बौद्धिक, या साङ्ख्य-ज्ञान (निरपेक्ष) के अर्थ में भी ग्रहण किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि ध्यान के अभ्यास में ध्याता, ध्येय और ध्यान की गतिविधि रूपी त्रिपुटी होती है, किन्तु निरपेक्ष अर्थात् साङ्ख्य ज्ञान में इस त्रिपुटी का विलय हो जाता है। 

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Friday, April 8, 2022

सफलता के मंत्र-मूल

सफलता / असफलता

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श्रीमद्भगवद्गीता ग्रंथ का प्रारंभ अर्जुन की विषण्ण मनःस्थिति से होता है, और प्रथम अध्याय का आरंभ :

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।। 

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।

इस श्लोक से। 

यह इसी का द्योतक है कि शरीर, मन, बुद्धि रूपी धर्मों के क्षेत्र में पृथक् पृथक् किन्तु व्यवहार रूपी कर्म / आचरण के क्षेत्र में एक दूसरे से भिन्न भिन्न, फिर भी एक साथ विद्यमान कुरुवंश के उन  वंशजों ने क्या किया। क्योंकि शरीर, मन, बुद्धि एवं चेतना सभी अपने अपने विशिष्ट धर्मों को त्याग नहीं सकते जबकि कर्म एक ऐसी वस्तु है जो घटना के रूप में काल-स्थान के अन्तर्गत घटित होनेवाला तथ्य है, किन्तु भिन्न भिन्न शरीरों में अवस्थित विभिन्न मनुष्य उसे भिन्न भिन्न प्रकार से परिभाषित और ग्रहण करते हैं।  इस प्रकार धर्म एक काल-स्थान निरपेक्ष सत्य है, जबकि कर्म एक निष्कर्ष है जो धारणा / धृति के रूप में मनुष्य के स्वभाव की आधारभूत वास्तविकता।

यह स्वभाव गुण-कर्म का संयोग है और यही चार मूल वर्णों का कारण है। उल्लेखनीय है कि ये चार वर्ण यद्यपि जन्म के अर्थ में जातिवाचक हैं किन्तु सामाजिक भेद की उस भावना के अर्थ में मनुष्यों का वर्गीकरण नहीं करते जैसा कि जाति शब्द से समझा जाता है। जाति पुनः मूल वर्ण का लक्षण हो सकता है, या फिर इन गुण-कर्मों के विभिन्न अनुपात में संयुक्त होने का परिणाम भी हो सकता है। इसलिए कोई भी मनुष्य जो किसी भी जाति में क्यों न पैदा हुआ हो, अपने स्वभाव / गुण-कर्म के अनुसार ही किसी कार्य को करने में प्रवृत्त होता है, प्रवृति ही से प्राप्त उसके संस्कारों से उसमें किसी कार्य को करने के लिए इच्छा-अनिच्छा, रुचि-अरुचि, संकल्प-विकल्प आदि उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से उसमें कर्म करने की भावना का उद्भव होता है और तब उसमें अज्ञान और प्रमादवश अपने आपके एक स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी होने की भावना के रूप में अहंवृत्ति का जन्म होता है। चेतना (consciousness) की अपनी भूमिका इस पूरे क्रम में केवल उस अविकारी (immutable) आधारभूत अधिष्ठान (underlying principle) की होती है जो प्रवृत्ति के कार्य में कोई हस्तक्षेप नहीं करती । किन्तु प्रवृत्ति से संलग्न अज्ञान और प्रमाद ही इस स्वतंत्र प्रतीत होनेवाले कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता एवं स्वामी में ही अपने आपके स्वयं के एक स्वतंत्र व्यक्ति होने का आभास पैदा करते हैं। यहीं से कर्म की अवधारणा पैदा होती है, जो बुद्धि को आवरित कर लेती है। 

ऐसे स्वतंत्र कर्ता और प्रतीत होने वाले कर्म की अवधारणा की सत्यता की परीक्षा करने पर स्पष्ट हो जाता है कि केवल चेतना ही अस्तित्वमान एकमात्र वास्तविकता है। 

यह हुई साङ्ख्य अर्थात् ज्ञाननिष्ठा जिसका वर्णन अध्याय २ के अन्तर्गत किया गया है।

जब मनुष्य इस प्रकार की परीक्षा करने में असमर्थ होता है, तो उसमें किंकर्तव्यविमूढता की भावना उत्पन्न होती है, और वह यह भी नहीं देख पाता, कि क्या वास्तव में वह कर्म करने या न करने के लिए स्वतंत्र है भी या नहीं?

किन्तु इस स्थिति में भी उसमें कर्म किए जाने की आवश्यकता का आग्रह तो होता ही है। इसे ही कर्मयोग अर्थात् ज्ञाननिष्ठा भी कहा जाता है। चूँकि दोनों ही प्रकार की निष्ठा से अंततः एक ही फल प्राप्त होता है, इसलिए अध्यात्म के तत्व के जिज्ञासु मनुष्य को चाहिए, कि पहले अपने में विद्यमान स्वाभाविक निष्ठा इनमें से कौन सी है इसे ठीक ठीक समझ ले। 

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Friday, April 1, 2022

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य

...निबन्धायासुरी मता।। 

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पुरुषोत्तमयोग नामक अध्याय १५ का उपसंहार निम्न दो श्लोकों से किया गया है :

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।। 

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।।१९।।

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।।

एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।२०।।

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संसारमोक्षाय दैवी प्रकृतिः --

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यास्तपमार्जवम्।।१।।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।।

दयाभूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।२।।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।।

भवन्ति सम्पदं दैवमभिजातस्य भारत।।३।।

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निबन्धायासुरी च राक्षसी --

दम्भो दर्पोऽतिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।४।।

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।।

मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।५।।

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द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।। 

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु।।६।।

(अध्याय १६)

किसी भी मनुष्य को अपनी दैवी प्रकृति और आसुरी प्रकृति के अनुसार ही क्रमशः दैवी और आसुरी सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं।

इसी प्रकार दैवी प्रकृति से संपन्न ही किसी मनुष्य की निष्ठा भी दो प्रकारों में से किसी एक ही प्रकार की होती है।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

(अध्याय ३)

इसलिए यद्यपि तप, दान, ज्ञान, यज्ञ आदि विभिन्न कर्म क्रमशः सात्त्विक, राजस या तामस होने पर भी, अपनी अपनी दैवी या आसुरी संपदाओं और निष्ठा के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं। एक ही मनुष्य में स्वभाव अर्थात् प्रकृति से ही ज्ञाननिष्ठा अर्थात् साङ्ख्य की ज्ञान-रूपी सहजनिष्ठा अथवा कर्मनिष्ठा -- निष्काम कर्म, भक्ति, ईश्वर-प्रणिधान आदि में से प्रधान रूप से एक ही निष्ठा विद्यमान होती है।

अपनी निष्ठा और अधिकार के अनुसार कोई भी मनुष्य निष्काम कर्मयोग अथवा साङ्ख्य-ज्ञान का अवलंबन लेकर परम श्रेयस् की प्राप्ति कर सकता है।

जिनमें ज्ञाननिष्ठा प्रधान और कर्मनिष्ठा गौण होती है, परमार्थ के ऐसे जिज्ञासुओं की बुद्धि तो ईश्वर, ब्रह्म, तत्त्व,धर्म, सत्य अथवा आत्मा को जानने की प्रवृत्ति से प्रेरित होती है, परन्तु जिनमें यह संकल्प विद्यमान होता है कि मैं कर्ता, भोक्ता, स्वामी और ज्ञाता आदि के रूप में जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसा हुआ जीव हूँ, वे भी अनुमान से भी उस परमेश्वर की कल्पना कर सकते हैं जो इस समस्त जगत् का संचालन करता है, और उस कल्पित ईश्वर के स्वरूप का आश्रय लेकर अंततः उसके यथार्थ स्वरूप को भी जानकर उससे तादात्म्य रूपी सायुज्य, सामीप्य, सान्निध्य तथा सारूप्य प्राप्त कर सकते हैं। जिन्हें यह अभ्यास भी कठिन जान पड़ता है, उनके लिए गीता से यह निर्देश प्राप्त होता है :

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।१०।।

अथैतदप्यशक्त्योऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।।

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।११।।

क्योंकि --

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासात्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय १२)

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