Wednesday, August 30, 2023

सरसामस्मि सागरः

अध्याय १०, श्लोक २४

पुरोधसां च मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिः।। 

सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।२४।।

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उपरोक्त श्लोक में परमात्मा की दिव्य विभूतियों की भूमिका का वर्णन है। पुरोहितों के रूप में देवताओं के पुरोहित बृहस्पति ही परमात्मा की विभूति हैं। (और इसी प्रकार से महर्षि भृगु दैत्यों के पुरोहित हैं।) सेनानियों में देवताओं की सेना के नायक स्कन्द और जलाशयों में चंचलजलयुक्त सागर की ही भूमिका है।

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क्या अध्याय १० का यह श्लोक २४ परमात्मा के अवतारों का सूचक है सकता है?

पुराणों में परमात्मा के अवतारों का वर्णन दो प्रकार से पाया जाता है। दशावतार और चौबीस अवतार।

दशावतार वस्तुतः परमात्मा की ही स्थूल प्रकृति चेतना नामक विभूति की अभिव्यक्ति के विकासक्रम का ही सूचक है, जबकि अवतार परमात्मा की सूक्ष्म प्रकृति की अभिव्यक्ति के विकास के क्रम का सूचक है। इस प्रकार परमात्मा ही स्थूल और सूक्ष्म  प्रकृति के रूप में क्रमशः साङ्ख्य के चौबीस तत्वों और दश रूपों में मत्स्य, कच्छ, वराह, नृसिंह, वामन, भार्गव अर्थात्  परशुराम, राम, कृष्ण-बलराम और कल्कि अवतारों के रूप में दशावतार की तरह अवतरित होता है।

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकाक्षरम्।।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।२५।।

अध्याय १० ग्रीक भाषा की संस्कृति और सभ्यता के उद्गम का संकेत श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोक में देखा जा सकता है। सरस अर्थात् सर् सः जो प्राकृतिक वाणी और जल के प्रवाह का द्योतक भी है वाणी को ही भाषा के आधारभूत होने के तथ्य का सूचक है। इसीलिए Phonetic / स्वनिम समानता के माध्यम से अनेक ग्रीक शब्दों की व्युत्पत्ति संस्कृत मूल से की जा सकती है। आज के मनोविज्ञान, चिकित्सा और औषधि विज्ञान ही नहीं, बल्कि भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, वनस्पति शास्त्र में भी यही पाया जाता है। प्लेटो को  The Republic लिखने की प्रेरणा भारतीय न्यायशास्त्र / न्याय दर्शन से ही मिली होगी। इस बारे में अपने किसी ब्लॉग में मैंने लिखा भी है। इस प्रकार भाषा का मूल प्राकृत ध्वनि विज्ञान और स्वरशास्त्र में है ग्रीक भाषा में इसे देखा जा सकता है। संस्कृत, जो वेद की और देवभाषा भी है, सार्वत्रिक प्राकृत भाषा के परिष्कार से आविष्कृत की गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि संस्कृत मनुष्यों की भाषा नहीं है। प्राकृत सभी को प्राप्त मातृभाषा है जिसकी लिपि ब्राह्मी, शारदा या श्रीलिपि है। श्रीलिपि को ही परिवर्तित कर  Cyril  script  का प्रारंभ हुआ, जिसका श्रेय किसी "Saint Cyril" को दिया गया और इसी आधार पर रूसी भाषा की लिपि प्रचलित हुई। जैसे जाबाल ऋषि और जिबरील / गैबरियल Gabriel में ध्वनिसाम्य है, वैसा ही ध्वनिसाम्य श्रीलिपि और  Saint / सन्त Cyril / सिरिल में हो तो यह प्रतीत होना स्वाभाविक ही है कि दुनिया कि तमाम (संस्कृत -- तं + आम्) भाषाओं का डी एन ए एक ही है। 

यह सब कितना प्रामाणिक है, इसका मेरा कोई दावा तो नहीं है, और कितनी सत्यता इसमें है, या है भी कि नहीं, इसकी परीक्षा कर भाषा के इतिहास का अध्ययन करनेवाले स्वयं ही किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। इस प्रकार ग्रीक और लैटिन भाषाएँ स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व में आई। समस्त यूरोप और अमेरिका में इन्हीं दोनों भाषाओं से अन्य सभी भाषाओं का आगमन हुआ। 

मत्स्य का उद्भव जल से होता है। जल ही नारा है अर्थात् जल का मार्ग नारायण है। परमात्मा ही नर और नारी के रूप में पुनः अवतरित होता है। स्थूल प्रकृति में पृथ्वी में शिला से उत्पन्न होनेवाले शैलज पत्थर, रत्न, खनिज आदि और सूक्ष्म प्रकृति में शैल से अभिव्यक्त होनेवाली शैलजा अर्थात् शैलपुत्री भगवती चेतना जो दुर्गा दुर्गतिनाशिनी, महिषासुरमर्दिनी हैं।

इस प्रकार दशावतार की ही नारायण, तथा नारायणी, नर और नारी रूपों में दो प्रकारों में अभिव्यक्ति होती है।

जैव संरचना की दृष्टि से भी जलोद्भिज्ज, जरायुज, अण्डज और स्वेदज जीवों की उत्पत्ति होती है, जबकि वनस्पतियों में एकबीजपत्रीय और द्विबीजपत्रीय रूपों में। यही भगवान् शिव का अर्धनारीश्वर स्वरूप है।

जल से मत्स्य की उत्पत्ति एककोषीय (unicellular) जीवन है। यह आकस्मिक और केवल संयोग नहीं है कि अंग्रेजी भाषा के शब्द जिनकी उत्पत्ति ग्रीक और लैटिन भाषा से हुई है, उन्हें सीधे ही संस्कृत से भी व्युत्पन्न किया जा सकता है।

सरसामस्मि सागरः में सरस का अर्थ सर सः अर्थात, बहने या प्रवाहित होनेवाली वस्तु है जो कि पर्याय से (imperatively) जल और वाणी हो सकती है।


जीवसृष्टि के इस रहस्य को समझ लेने पर क्या यह प्रश्न किया जा सकता है कि सनातन धर्म के वेद तथा पुराण आदि ग्रन्थ विज्ञान-सम्मत हैं या नहीं?

वस्तुतः प्रमाण के वैज्ञानिक होने के इस हठपूर्वक या प्रमादवश किए जानेवाले आग्रह में पातञ्जल योगदर्शन के इस तथ्य की अवहेलना कर दी जाती है कि वैज्ञानिक प्रमाण भी अन्य सभी वृत्तियों की ही तरह वृत्ति का ही रूप है :

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

और पुनः

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

इस सूत्र में प्रमाण के भी तीन प्रकारों का उल्लेख किया गया है। इसीलिए यह प्रश्न ही असंगत है कि सनातन धर्म के वेद पुराण आदि ग्रन्थ विज्ञान-सम्मत हैं या नहीं। 

इसलिए "क्या वेद पुराण आदि ग्रन्थ विज्ञान-सम्मत हैं?" यह पूछने की बजाय पूछा जाना तो यह चाहिए :

"क्या विज्ञान वेद-सम्मत है?"

यदि यह पूछा जाए तो यह प्रश्न अवश्य ही सम्यक् और सुसंगत भी होगा।

(यह पोस्ट केवल अध्ययन की ही दृष्टि से लिखी गई है, न कि किसी मत के पक्ष या विपक्ष में। )

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Wednesday, August 16, 2023

यदा ते मोहकलिलं...

The Compound, The Composite,

and The Conflict.

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इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

(अध्याय ७, Chapter7)

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।

(अध्याय २, Chapter 2)

All and every man is born bemused and driven by desire and delusion.

Deluded in thought one keeps trying to find a way to come out of the conflict.

Language is the instrument created by thought and the thought in its turn the language.

Language and / or Thought operate in the light of awareness. Awareness is the mind. All sentient beings are endowed with consciousness of being and being in a world perceived in consciousness.

So the individual consciousness refers to the existence of a world andthe one,  the individual who finds a world and though a part of the same, at the same time feels, it is somehow different and other from the world where one might have born and eventually may die some day.

But it hardly occurs to anyone, how one could one be one with or other than the world.

Howsoever desparatedly or frenetically one may try to resolve this conflict, one just fails. All the clues worth-hearing or heard so far give no hope nor help any as long as the conflict persists.

The ceaseless perpetual conflict is there as long as the delusion: that is the pair of desire and aversion is not overcome. Transcending the two implies the dawn of The Wisdom.

Then the question remains :

Exactly "Who" could be said to have transcended the delusion and therefore the conflict too?

A clue to the answer could be found in the following verses :

न कर्तृत्वं न कर्माणि

लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न कर्मफलसंयोगं

स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं

न चैव सुकृतं विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं

तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तदज्ञानं

येषां नाशितमात्मनः।।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं

प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

(अध्याय ५, Chapter 5)

The individual-consciousness and the Awareness of the Self are but the two aspects of the one and the same Reality.

One of them is denoted by the word  विभु  synonymous of the individual.

The other is denoted by the word प्रभु : synonymous of The God.

Who-so-ever has realized the unique and undifferentiated, essential one-ness of the two is A JnAnI / ज्ञानी, Devotee / भक्त, and a Yogi योगी.

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Friday, August 11, 2023

Dharma and Religion.

Religion, Tradition and revolution.

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This could be better understood by;

For example;

By the comparison of a Physician with a Physicist.

Religion is Practice, while Dharma is Learning and Discovery.

Physician like a Professional, Doctor, Lawyer has to "practice" something, a skill for earning his livelihood, while a  Physicist has first of all to postulate, to  think over and examine and verify the truth or falsehood about whatever he might have thought about or postulated in the beginning of his enquiry.

Another such example could be of an amateur Musician, and of a Maestro,  who Composed independently a tune, a "signature tune" of his own, where his style is at once recognized only by the experts.

With reference to Gita :

श्रेयः is the धर्म, while अभ्यास / the practice is but the skill, the Tradition, or the Religion. 

Practice is skill, expertise, while the Discovery is the Excellence.

To elaborate upon this fundamental difference between the two let us see how the word  श्रेयः  has been used as the synonym of  धर्म  in the following verses:

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।।

श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।३१।।

(अध्याय १)

गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुमपीह लोके।।

हत्वार्थ-कामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिर-प्रदिग्धान्।।५।।

(अध्याय २)

कार्पण्यदोषोपहृतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्म-सम्मूढचेताः।।

यत् श्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।७।।

(अध्याय २)

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।।

धर्माद्धि युद्धात् श्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।२१।।

(अध्याय २)

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयः अहमाप्नुयाम्।।२।।

(अध्याय ३)

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।११।।

(अध्याय ३)

श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।३५।।

(अध्याय 3)

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यत् श्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

(अध्याय ५)

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद् ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय १२)

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।।

आचरत्यात्मनः श्रेयस् ततो याति परां गतिम्।।२२।।

(अध्याय १६)

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Tuesday, August 8, 2023

द्वौ, द्वौ इमौ,

~~ 13/1, 13/2, 15/16, 16/6 ~~

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अध्याय १३

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।।

एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।१।।

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।२।।

अध्याय १५

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।। 

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।१६।।

अध्याय १६

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् आसुर एव च।।

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुर पार्थ मे शृणु।।६।।

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Thursday, August 3, 2023

न कर्तृत्वं न कर्माणि....

Sequel to the last post.

लोकस्य सृजति प्रभुः।।

Gita 5/14, 5/15, 5/16

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The Last post was about the The Clash of Civilizations / Cultures.

Samuel Huntington might be referring to clash of ideologies and the different religions founded upon those various ideologies, and not exactly between the religions as such. The ideologies being further classified as those that we know as the atheism, the monotheism, and the polytheism. Between the cultures accepting those political philosophies.

Whatever be the inspirations behind them, Gita Chapter 5 may be applicable in understanding their respective role and behavior.

Let us have a glance at these verses :

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

All ideologies follow from the sense of the self as an individual who can strive for attaining a certain ideal, without the slightest idea that all this hypothetical approach is imaginary and in the field of 'thought' only.

Thoughts govern and control the way of every intellectual who has a fascination for certain words. Though the words do not have any specific, definite or certain sense in themselves, motivated by them the intellectual spins out a philosophy and accordingly sets a goal or mission.

The stanzas referred to above narrate the same consequence of all activities that take place because and on account of any and all political ideologies, while the underlying and the steady light of the One Who remains hidden behind them and is the Cause-less cause is lost sight of, unnoticed and unseen. Call that light the Lord, The God, or by whatever name you would like to give, whether you believe or doubt if it is really there, This Cause-less Cause is Awareness of all existence and happenings.

This attribute the Awareness that is the only presiding Reality true and worth the name is verily the only ground and support of all this phenomenon, of this existence.

Through proper enquiry into this, one can sure discover and find out it and become free of all doubt and ignorance.

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Samuel P. Huntington

Clash of  Civilizations,

And The  Gita.

सैम्युअल हटिंग्टन  और 

सभ्यताओं का संघर्ष

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काल का अभ्युदय और दृश्य जगत् / संसार. 

The Emerging World-Scenario :

महाभारत युद्ध की समाप्ति होते होते धरती पर कलियुग का अवतरण हो गया। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन और समस्त संसार को आगामी काल के लिए उपदेश देते हुए अपनी शिक्षाओं का सार इन श्लोकों से स्पष्ट किया : 

With the end of 

The Mahabharata War

And the ascent of the Kaliyuga, Lord Shrikrishna Concluded His Teachings to Arjuna and the whole of the Humanity,  through the following words / stanzas :

Chapter 2, Stanza 18 :

अध्याय २, श्लोक ४९,

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

Chapter 3, Stanza 11

अध्याय ३, श्लोक ११,

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथः।।११।।

Chapter 3, Stanza 12

अध्याय ३, श्लोक १२,

श्रेयान्सस्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।१२।।

Chapter 5, Stanza 1

अध्याय ५, श्लोक १,

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यच्छ्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

Chapter 7, Stanza 12

अध्याय ७ श्लोक १२,

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।।

मत्त एव तान्विद्धि न त्वहं तेषु च मयि।।१२।।

Chapter 8, Stanza 21

अध्याय ८, श्लोक २१,

अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिम्।।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।२१।।

Chapter 9, Stanza 18

अध्याय ९, श्लोक १८,

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।।

प्रभावः प्रायः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।१८।।

chapter 9, Stanza 25

अध्याय ९, श्लोक २५,

यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति* पितृव्रताः।।

भूतानि यान्ति भूतेज्या मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।।

(*please check the correct spelling of this word by clicking the label 9/25 and viewing all posts in this blog)

Chapter 12, Stanza 12

अध्याय १२, श्लोक १२,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

Chapter 14, Stanza 18,

अध्याय १४, श्लोक १८,

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।।

जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।१८।।

Chapter 17, Stanza 4

अध्याय १७, श्लोक ४,

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।।

प्रेतान्भूतगणानंश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।

संक्षेप में :

And Finally ;

Chapter 18, Stanza 62

अध्याय १८, श्लोक ६२,

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।।

तत्प्रसादात् परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।६२।।

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The above post is with reference to the idea of :

"Clash of Civilizations"

- by Samuel Huntington.

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