Sunday, March 23, 2025

Finding Out!

त्रिविधा भवति श्रद्धा 

पिछले पोस्ट को पब्लिश करते ही इस पर ध्यान गया कि इसी अध्याय के प्रारंभ में कहीं किसी श्लोक में :

"त्रिविधा भवति श्रद्धा"

से प्रारंभ होनेवाला कोई श्लोक है।

इसी अध्याय १७ के इस प्रथम श्लोक पर दृष्टि पड़ी -

अर्जुन उवाच --

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः। 

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्वमाहो रजस्तमः।।१।।

और इससे मुझे दिशानिर्देश प्राप्त हो गया। तात्पर्य यह कि मनुष्य की श्रद्धा भी निष्ठा के आधार पर ही सात्विक, राजसी और तामसिक इन तीनों में से किसी एक प्रकार की होती है, जिसका उल्लेख इसके तुरंत बाद के श्लोक में इस प्रकार से है -

श्रीभगवानुवाच --

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।

सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।।२।।

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।

जिसके उल्लेख से पिछले पोस्ट को प्रारंभ किया था। 

इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि यहाँ "श्रद्धा" शब्द का अर्थ "निष्ठा" / conviction समझा जा सकता है।

इसमें सन्देह नहीं कि प्रथमतः तो भौतिक जगत् में अपने अस्तित्व के भान के बाद ही अपने और अपने आसपास प्रतीत होनेवाले अस्तित्व को क्रमशः अपने शरीर के रूप में "स्वयं" तथा "स्वयं" से भिन्न "संसार" की तरह समझ लिया जाता है।

ऐसा लगता है कि अवश्य ही यह आभासी विभाजन भी उसी चेतना में उत्पन्न होता है, जो कि इन्द्रियानुभूतियों से या जिससे कि इन्द्रियानुभूतियाँ उत्पन्न होती हैं।

दूसरे शब्दों में :

शरीर में चेतना के जागृत होने पर ही इन्द्रियों का कार्य, और इन्द्रियों का कार्य प्रारंभ होने के बाद ही शरीर तथा आसपास के अस्तित्व का "भान" होता है। और ध्यान से देखें तो कहा जा सकता है कि शरीर और जगत् का भान होने से भी पहले ही इन्द्रियों का भान भी, चेतना जागृत होने पर ही संभव होता है।

इसलिए भान और चेतना उस एक ही वस्तु के द्योतक हैं, जिसमें अस्तित्व को जाना तो जाता है, किन्तु इस प्रकार से "जानना" इन्द्रियों, मन, स्मृति या बुद्धि के माध्यम से नहीं, बल्कि स्वतंत्र रूप में अस्तित्व में ही अन्तर्निहित है।

चेतना (या भान) के जागृत होने पर ही अपने या "स्वयं के" तथा अपने से अन्य प्रतीत होनेवाले उस बाह्य जगत् की भिन्नता अनुभव होती है जिसे कि चेतना (या भान) के जागृत होने से पहले नहीं जाना जाता है। अस्तित्व की नित्यता यद्यपि तब भी होती तो है किन्तु ऐसा कह पाना भी चेतना (या भान) के जागृत होने पर ही संभव है। इस प्रकार से अपने-आप या "स्वयं" को जगत् से भिन्न एक "चेतन" या "मन" के रूप में जगत् से स्वतंत्र और भिन्न सत्ता मान लिया जाता है।

यह है वह निष्ठा जिसे स्वभावजा श्रद्धा भी कह सकते हैं।चेतना (या भान) के जागृत होने से पहले की सुप्त दशा में, जिसमें अपने और अपने आसपास के किसी जगत् का भान, और इसलिए इस प्रकार का कोई विभाजन भी नहीं रह जाता, क्या "मन" नामक किसी वस्तु की स्वतंत्र सत्ता हो सकती है?

अभी हम "श्रद्धात्रयी" पर आगे विचार करें तो स्पष्ट है कि "तामसी" श्रद्धा उस स्थिति को कह सकते हैं जब चेतना (या भान) के जागृत होने पर "अपने" से भिन्न किसी जगत् की प्रतीति उत्पन्न होती है, यद्यपि "अपने" से वह किस प्रकार से भिन्न और स्वतंत्र है यह भी स्पष्ट नहीं होता। प्रत्येक ही चेतन सत्ता जो "अपने" स्वयं और अपने से भिन्न जगत् को इस प्रकार से अनुभव करती है, चेतना (या भान) के जागृत होने से पहले एक ऐसी दशा में होती है जिसमें चेतना सुषुप्तप्राय होती है। फिर भी जागृत होने पर उसका नये की तरह जन्म हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। सुषुप्त होने या जागृत होने के समय में अपने अस्तित्वमान होने के तथ्य को हर कोई अनायास जानता ही है और इस पर सन्देह उठाना तक हास्यास्पद ही है।

अपने "स्वयं" के होने के स्वाभाविक भान में ही "स्वयं" से भिन्न फिर भी अपरिहार्यतः जुड़े अर्थात् "अभिन्न" भी उस जगत् को भी वैसे ही अनायास ही नित्य और जन्म तथा मृत्यु से रहित मान लिया जाता है।

यह चेतना (या भान) का "धर्म" हुआ। 

चेतना (या भान) के जागृत होने के बाद किसी प्रकार का अभाव अनुभव होने पर उसकी पूर्ति के लिए चेष्टा होती या की जाती है। यदि उस चेष्टा से अभाव दूर हो जाता है तो उसे "सार्थक" कहा जाता है। दूसरी ओर, अभाव को दूर करने की आवश्यकता अनुभव होने और अभाव को दूर करने की चेष्टा को ही "काम" कहा जा सकता है।

इस प्रकार "अर्थ" और "काम" परस्पर जुड़े हुए हैं।

अभाव के दूर होने को ही समस्या से मुक्ति या मोक्ष कहा जा सकता है।

पुनः शारीरिक कष्ट उत्पन्न होने पर उनसे मुक्ति होने की आवश्यकता अनुभव होना और उन्हें दूर करने के उद्देश्य से की जानेवाली चेष्टा भी "कर्म" ही है।

किन्तु, और इसीलिए शरीर के जीवित रहने तक "कर्म" से "मुक्ति" हो पाना असंभव ही है।

"काम" या कामना के जागृत होने के बाद "काम" ही केवल राग, द्वेष, लोभ, भय, आशा, अपेक्षा, आशंका ही नहीं, बल्कि स्मृति के रूप में अतीत या भूत और कल्पना के रूप में अज्ञात भविष्य का सृजन कर लेता है।

और इसके बाद तुरन्त ही "जगत्" की रचना करनेवाली किसी ऐसी कल्पित अदृश्य सत्ता और उसकी शक्ति का विचार जन्म लेता है जो "स्वयं" को सदा सुरक्षित, संतुष्ट और प्रसन्न बनाए रखे।

फिर उसे "ईश्वर" या कोई दूसरा नाम दे दिया जाता है। रोचक यह भी है कि यह सब बौद्धिक ऊहापोह "मनुष्य" में ही होता है।

गीता में अध्याय ५ में इस "चेतन" सत्ता को शायद जगत् के स्वामी के रूप में तो "प्रभु" तथा असंख्य चेतन शरीरों के रूप में "विभु" कहा गया होगा, और जहाँ पर "कर्म" और  "कर्मफल" तक की अवधारणा भी सत्यता पर भी शंका की गई है। 

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः। 

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

और इसीलिए "बुद्धियोग" को "कर्मयोग" से श्रेष्ठ भी कहा गया है :

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। 

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।। 

किन्तु किसी का चित्त या मन इतना परिपक्व न हो कि वह इस सरल सत्य को ग्रहण कर सके तो वह समस्त कर्मों का अनुष्ठान निष्काम भाव से करते हुए, कर्तृत्व की भावना से युक्त रहते हुए भी उन्हें "ईश्वर" को समर्पित भी कर सकता है :

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्-ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागः त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।

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The Conviction.

श्रद्धात्रयी

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। 

श्रद्धामयः अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।

(अध्याय १७)

ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः गीता में आगे चलकर श्रद्धा को श्रद्धात्रयी के रूप में क्रमशः तामसी, राजसी और सात्विकी कहा गया हो।

मनुष्य नामक प्राणियों के अन्तःकरण में जो प्रकृतिप्रदत्त निष्ठा या ईश्वरप्रदत्त स्वाभाविक श्रद्धा होती है वह तीन प्रकार की होती है।

पहली है पशुतुल्य तामसी श्रद्धा जिसमें क्षण क्षण बदलते हुए और इस बदलते रूप में भी सतत अनुभव किए जा रहे संसार को ही एकमात्र सत्यता मान लिया जाता है और मन स्वयं को इसके केन्द्र की तरह शरीर विशेष के रूप में सुरक्षित बनाए रखने की कामना के पूर्ण होने की आशा तथा शरीर के नष्ट होने की कल्पना से आशंकित और भयभीत रहा करता है।

दूसरी है मनुष्य-तुल्य राजसी श्रद्धा जिसमें अपनी क्षमता और ज्ञान की मर्यादा को अनुभव करते हुए किसी ऐसी सत्ता की कल्पना की जाती है जो कि तुलना में असीम क्षमता और ज्ञान से संपन्न हो सकती है और उसे प्रसन्न करने की चेष्टा की जाती है जिसकी कृपा प्राप्त कर हम सदैव सुखी और संपन्न रहें। 

तीसरी है विवेकशील वह सात्विक श्रद्धा जिसमें संसार की प्रत्येक वस्तु और मनुष्य के अनित्य होने की कल्पना होने से ऐसी किसी भी वस्तु में आसक्ति न हो पाना और किसी ऐसी वस्तु की खोज ओर उसे जानने की चेष्टा जो कि अनश्वर और इसलिए नित्य हो, और जो जन्म तथा मृत्यु से रहित भी हो। और यह भी कि ...

यहीं तक यह विवेचना है।

इसे लिखना प्रारम्भ करते समय विचार यह था कि जिसे यहाँ श्रद्धा कहा है उसके स्थान पर निष्ठा शब्द का प्रयोग करूँ किन्तु मेरे पास कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है न कोई और दूसरा उपाय जिसकी सहायता से मैं सुनिश्चित रूप से जान सकूँ कि क्या गीता में निष्ठात्रयी के बारे में और कहीं कुछ कहा गया है या नहीं।

अस्तु!

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Friday, March 21, 2025

The Big Crunch

यदा संहरते चायं

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2/58

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। 

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।

यहाँ हृ - हरति / हरते

का आत्मनेपदी धातु के रूप में प्रयोग दृष्टव्य है।

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति (Manifestation) तथा प्रलय (Dissolution) इस अर्थ में सृजन और विलय है न कि निर्माण और विनाश।

यह न केवल व्यष्टि बल्कि समष्टि ब्रह्माण्ड के लिए भी सत्य है।

गीता 2/58 

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Saturday, February 22, 2025

My Only Fear.

कुम्भ के बहाने! 

What I'm Affraid of!

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ इस प्रकार से होता है -

धृतराष्ट्र उवाच -

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।

शायद इससे अधिक उपयुक्त और प्रासंगिक कोई अन्य सन्दर्भ इस ग्रन्थ को प्रारंभ करने के लिए नहीं हो सकता है। जीवन को अर्थात् पुरुषार्थ को हम जिन चार रूपों में जान सकते हैं उनमें से धर्म प्रथम है -

धर्मः वस्तुस्वभावः।

धर्म अस्तित्व का स्वभाव है इसलिए जड चेतन हर वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है जिसका अनुष्ठान अनायास हुआ करता है। जीवनरूपी सरिता के इस स्वाभाविक और सरल प्रवाह में न तो कहीं कोई कर्ता, कर्म या कर्म का उद्देश्य हो सकता है। और जैसे ही इस प्रवाह में कोई रुकावट या बाधा आती है, तो उसकी प्रतिक्रिया के रूप में कर्ता, कर्म और कर्म का कोई उद्देश्य प्रकट हो उठते हैं। ये तीनों ही चेतना की गतिविधि हैं, जिनमें चेतना ही स्वयं को इन तीनों रूपों में विभाजित कर लेती है, और कर्ता के रूप में किसी व्यक्ति-सत्ता का प्राकट्य हो जाता है, अर्थात् वह सत्ता अहं-प्रत्यय की तरह इदं प्रत्यय से पृथक् और भिन्न रूप में भासित होती है। "किसे भासित होती है?" -यह पूछना एक अतिप्रश्न होगा। क्योंकि यह  अद्वितीय चेतना ही विषय और विषयी, दृक् और दृश्य की तरह भी, दो की तरह से अस्तित्वमान और प्रतीत भी होती है।

धर्म से अर्थ की उत्पत्ति होने पर ही उस अर्थ को उद्दिष्ट के रूप में ग्रहण किया जाता है। और इसके बाद ही उस अर्थ की सिद्धि के लिए उपयुक्त प्रतीत होनेवाला समुचित और वाञ्छित कर्म किया जाता है।

"कुरु" पद, "कृ" उभयपदी धातु का युष्मद् सूचक लुट् लकार एकवचन परस्मैपदी रूप है, जबकि आत्मनेपदी  धातु की तरह यही "कुरुष्व" हो जाता है।

प्रस्तुत श्लोक में यहाँ परस्मैपदी प्रयोग है। 

किसी चेतन वस्तु में कर्तव्य की प्राप्ति उठने का भाव ही उसे कर्म करने के लिए होनेवाली प्रेरणा होता है। उसमें उठनेवाली यही भाव तत्क्षण कर्तृत्व का रूप ग्रहण कर लेता है और "मैं कर्ता हूँ" इस मूलतः त्रुटिपूर्ण कल्पना के उत्पन्न होने का कारण होता है। इस प्रकार, संपूर्ण जीवन वस्तु-मात्र के लिए "धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र" हो जाता है। "मामकाः" / "मेरे", और "पाण्डवाः" / "पाण्डु" नामक किसी दूसरे के पुत्रों के बीच तब भिन्न भिन्न उद्देश्यों की सिद्धि हेतु किया जानेवाला "कर्म" परस्पर विपरीत और विरुद्ध होने से "युद्ध" का रूप ले लेता है।

धर्म, अर्थ और काम का यह क्षेत्र तब धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र हो जाता है। और चेतन सत्ता का जीवन ऐसा ही युद्धस्थल होता है। कामना के बने रहने तक यह युद्ध सतत चलता रहता है। सतत युद्ध करता हुआ युद्ध में विजयी होने तक या मृत्यु की प्राप्ति होने तक, या युद्ध की निरर्थकता और भयावहता से पलायन कर लेने के विचार से प्रेरित होकर वह "चेतन" द्वन्द्व से ग्रस्त रहता है।

कुम्भ महापर्व शीघ्र ही संपन्न होने की ओर अग्रसर है। बहुत से भाग्यवान और पुण्यवान संगम स्नान कर चुके हैं। मुझसे भी उनकी अपेक्षा थी कि मैं भी करता या मुझे भी करना चाहिए था। मैं नहीं जानता कि मैं इस बारे में क्या कहें! कोई निश्चय कर पाने के लिए मैं स्वतंत्र हूँ भी या नहीं, या कि मैं कितना स्वतंत्र हूँ! और, क्या स्वतंत्रता आंशिक भी हो सकती है? यह भी मुझे नहीं पता है। मेरे कुम्भस्नान न कर पाने से न तो मुझे डर लगता है, और न मुझमें कोई अपराध-बोध ही उठता है, किन्तु किसी दूसरे की भावनाओं को मुझसे कहीं चोट न लग जाए इसका कुछ डर मुझे अवश्य है। और इसलिए उनका सामना कर पाने में भी! 

कुम्भस्नान कर पाना या न कर पाना तो मेरे वश में नहीं है, किन्तु धर्म-रूपी गंगा, कर्म-रूपी यमुना, और दर्शन-रूपी अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी के इस पावन संगम में स्नान करते रहना मुझे अपेक्षाकृत सरल, और मेरा और भी अधिक बड़ा सौभाग्य अनुभव होता है।

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