Tuesday, October 28, 2025

THE REALIZATION.

Of The Self and The God.

आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर साक्षात्कार

This post about :

The Self-realization,

And ;

The God-Realization,

Is in continuation, and a sequel to the earlier post :

The Many Past Lives.

It Deals with the importance of How in The Self-Realization, God-Realization is also attained as a consequence, though in The God-Realization, one may or may not attain The Self-Realization.

Therefore, we can say

Ultimately though The God-realization may or may not turn into :

The Self-Realization,

The God-Realization is invariably such a gift one is rewarded with, and at once, as soon as The Self-Realization is attained.

The following references given in that earlier post are relevant here also :

अध्याय २

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

अध्याय ७

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिदं स महात्मा सुदुर्लभः।।१९।।

अध्याय १०

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः।

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।७।।

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।८।।

मच्चिता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं  तुष्यन्ति च रमन्ति च।।९।।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।१०।।

Though, 

The Supreme Divine, The Ultimate 

Manifests as The 

सर्वलोकमहेश्वरः,

As The One,Who

Creates, Preserves and Dissolves The Universe as His Own Manifest Form, This Universe is only but a fraction of His The Supreme and The Ultimate Aspect, as is evident from the verse 42 of Chapter 10 :

अध्याय १०

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।४२।।

I abide as this Universe also as a part of Myself -

The Supreme and Ultimate Truth.

The Creation, The Preservation and The  Dissolution are The Actions performed by this सर्वलोकमहेश्वरः  aspect of Him.

Therefore this performing of 

His Actions  is called  योगं ऐश्वरम् 

अध्याय ११.

अर्जुन उवाच -

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।

यत् त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।१।।

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया। 

त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।।२।।

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर। 

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।३।।

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।

योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम्।।४।।

श्रीभगवानुवाच -

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशो अथ सहस्रशः।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।५।।

पश्यादित्यान् वसून् रुद्रान् अश्विनौ मरुतस्तथा।

बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याऽश्चर्याणि भारत।।६।।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। 

ममदेहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि।।७।।

पश्य मे योगमैश्वरम्।।

(Chapter 11)

***




८,९,१०


Monday, October 27, 2025

The Many Past-Lives.

अध्याय २

दूरेणह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

The culmination of this doctrine is again affirmed in the following verses of the Chapter 10 :

एतां विभूतियोगं च मम यो वेत्ति तत्वतः। 

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।७।।

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। 

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।८।।

मच्चिता मद्गतप्राणाः बोधयन्तः परस्परम्। 

कथयन्तं च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।९।।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।१०।। 

This is how the two kinds of  निष्ठा; (that are synonymous with the three kinds of  श्रद्धा ) define the eligibility of a spiritual seeker 

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

सांख्ययोगेन ज्ञानीनां कर्मयोगेन योगिनाम्।।

And, 

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।

सात्विकी राजसी चैव तामसी चैव तां शृणु।।

अध्याय ७

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिदं स महात्मा सुदुर्लभः।।१९।।

अध्याय ४

श्रीभगवानुवाच -

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययः।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परंपराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एवायं ते मयाऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच -

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच -

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

अध्याय १०

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय। 

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।३७।।

(कठोपनिषद् - उशनस् वाजश्रवसः ...)

उशनस् - उशना इति वाजश्रवा इति ज्ञातव्यम् 

अध्याय ११

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा

स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः। 

आश्वासयामास च भीतमेनं

भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।।५०।।

In this way the Manifest Existence, the world of perceptions is but a part of the Supreme Self  Who enters this Manifest Existence. The same has been declared in the following verse of Chapter 10 -

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। 

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेनस्थितो जगत्।।४२।।

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Sunday, October 12, 2025

3/27, 4/13, 7/27 18/65

संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध 

अष्टभार्या

श्रीमद्भागवद्महापुराण में प्राप्त वर्णन के अनुसार ये आठ रानियाँ, जिनके नाम : सत्यभामा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रवृन्दा आदि हैं,  भगवान् श्रीकृष्ण की आठ प्रधान रानियाँ  हैं, जो आधिभौतिक रूप से अष्टधा प्रकृति के ही प्रकार हैं और भगवान् श्रीकृष्ण के आधिभौतिक स्वरूप से संयुक्त हैं। दूसरी ओर, उनका आधिदैविक स्वरूप जो पुरुषोत्तम है, चतुर्भुज है, जबकि उनकी पराप्रकृति जो कि श्रीराधा हैं, उनसे अभिन्न और उनकी नित्यसंगिनी हैं, किन्तु जगत और जीवों के परिप्रेक्ष्य में उनकी वही माया  है जिसके बारे में भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है -

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। 

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

ये आठ रानियाँ जो अष्टधा अपरा प्रकृति हैं और भगवान् श्रीकृष्ण ही एकमात्र पुरुष हैं। अध्याय १३ में वर्णित क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ यही हैं जबकि भगवान् श्रीकृष्ण ही जीव के रूप में परमात्मा का अंशविशेष हैं जो कि व्यक्ति-भाव है अर्थात् जो मानसिक जगत् या आधिदैविक तत्व है। यही तत्व पारमार्थिक दृष्टि से राधा-कृष्ण युगल है। राधा-कृष्ण के इसी रूप को पुनः पौराणिक शैली में शिव-पार्वती या सीताराम के रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है जहाँ भगवान् शिव और माता पार्वती, भगवान् श्रीराम और माता सीता परस्पर अभिन्न हैं। उनके बीच यह अभेद ही मनुष्य के मानसिक धरातल पर व्यक्ति विशेष का देवता है जिसे अध्याय ३ के निम्न श्लोक में अहंकारविमूढात्मा कहा गया है -

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति इति मन्यते।।२७।।

जब कोई मनुष्य आध्यात्मिक अभ्यास या अनुसंधान में प्रवृत्त होता है तो उसमें विद्यमान यही देवता जो स्वयं उसका ही अहंकार / ego  है, स्वयं भी प्रकृति-पुरुष युगल होता है।

 भगवान् श्रीकृष्ण की संतानें

संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध

इसी व्यक्ति भाव से युक्त अहंकार का रूप लेकर उसमें कार्य करती हैं। 

आकर्षण शक्ति स्थूल भौतिक विज्ञान में पदार्थ से सूक्ष्म रासायनिक तथा सूक्ष्मतर तन्मात्रात्मक quantum  के रूप में कार्य करती हैं। स्थूल भौतिक विज्ञान में द्रव्य के गुणधर्म  general properties of matter, सूक्ष्म भौतिक स्तर पर प्रकाश का अंधकार की ओर होनेवाला आकर्षण, चुंबकीय उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के बीच का आकर्षण तथा वैद्युत् स्तर पर धन आवेशयुक्त और ऋण आवेशयुक्त कणों के बीच का आकर्षण यह सब इसी के प्रकार और कार्य हैं। मन के स्तर पर यही आकर्षण स्त्री रूपी प्रकृति और पुरुष रूपी अहंकार के बीच होता है और आध्यात्मिक स्तर पर यही श्रीराधा और श्रीकृष्ण के बीच है।

आध्यात्मिक अभ्यास अर्थात् उपासना के केवल दो ही  शास्त्रोक्त प्रकार हो सकते हैं -

पहला है ज्ञानयोग अर्थात् सांख्यनिष्ठा और दूसरा है कर्म अर्थात् कर्मनिष्ठा। किसी भी मनुष्य यही निष्ठा जो उसका स्वभाव है उससे अभिन्न होती है -

लोके अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन कर्मिणाम्।।

जबकि इसी निष्ठा को त्रिविधा श्रद्धा भी कहा जाता है :

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।  

श्रद्धामयो अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।

अध्याय १५ के श्लोक ७ में इसी संकर्षण या आकर्षण शक्ति के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार से किया गया है :

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतो सनातनः।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

प्रद्युम्न का अर्थ है अहं-स्फुरण। आत्मा की नित्यता और अविनाशिता का बोध अव्यय होने से कभी नष्ट नहीं होता बल्कि सतत ही उसका विस्तार होता रहता है यही सगुण या निर्गुण, साकार या निराकार, द्वैत या अद्वैत ब्रह्म है, और यही भगवान् श्रीकृष्ण का अनिरुद्ध स्वरूप है।

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Friday, September 19, 2025

Catch-22

1/21, 1/22

अध्याय १

अर्जुन उवाच 

हृषीकेशं तदावाक्यमिदमाह महीपते।

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।२१।।

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे।।२२।।

अर्थ

राजा धृतराष्ट्र (महीपति) से सञ्जय कह रहे हैं :

तब अर्जुन ने हृषीकेश (भगवान् श्रीकृष्ण) से यह वाक्य कहा - हे अच्युत्! रथ को दोनों सेनाओं के मध्य इतने समय तक खड़ा रखो।

जितने समय में मैं यह देख लूँ कि युद्ध के इस उपक्रम में युद्ध करने की इच्छा रखनेवाले किसे मेरे साथ, और मुझे किसके साथ युद्ध करना है।

कैर्मया -

कैः - कः पद, कैः - 

तत् पद, अन्य पुरुष, बहुवचन, तृतीया विभक्ति

मया - 

अस्मद् पद, उत्तम पुरुष एकवचन, तृतीया विभक्ति

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Saturday, September 13, 2025

13/29, Yoga-Sutras, Ishwara,

अहिंसा

समं पश्यन्हि सर्वत्रं समवस्थितमीश्वरम्। 

न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।२९।।

अध्याय १३ के उपरोक्त श्लोक में अहिंसा की उपरोक्त परिभाषा के अनुसार अहिंसा अपरिहार्यतः योग का वह अंग है जिसका उल्लेख महर्षि पतञ्जलि ने साधनपाद के योगसूत्र ३० में किया है -

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः।।३०।।

अहिंसा के स्वरूप को तत्वतः समझने के लिए गीता से उद्धृत उपरोक्त अध्याय १३ के श्लोक २९ से इस योगसूत्र की तुलना के द्वारा की जा सकती है।

***


5/8, 5/9

नैव किञ्चित्करोमीति

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।८।।

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।९।।

दो श्लोकों में अभिव्यक्त इन पंक्तियों को क्या एक ही श्लोक में अभिव्यक्त किया जाना विचारणीय नहीं होगा? 

क्योंकि दोनों को संयुक्त रूप में देखने पर उनके पृथक् रूप में प्रतीत होने वाला उनका आंशिक तात्पर्य एकमेव  और पूर्ण जान पड़ता है। और यह भी सत्य है कि दोनों को एक दूसरे से अलग देखने पर दोनों ही अधूरे जान पड़ते हैं।

जैसे इसे अपनी रुचि और सुविधा के लिए निम्नलिखित प्रकार से भी सुनिश्चित किया जा सकता है -

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।

मुझे प्रायः इसे इसी रूप में स्मरण रखना प्रिय है।

प्रसंगवश यहाँ उल्लेखनीय है कि श्रीमद्भागवद्महापुराण के आधार पर श्री मध्वाचार्य संप्रदाय श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १३ में इस ग्रन्थ के मूलपाठ में प्रथम श्लोक को संशोधित कर एक अन्य श्लोक प्रक्षेपित किया गया है, जिसके आधार पर इस अध्याय में एक श्लोक बढ़ गया है, जिसे श्रीधर स्वामी के श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य में भी पाया जा सकता है। 

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Thursday, August 28, 2025

9/22, 18/55.

माम् / मां

9/22

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

18/55

भक्त्या मां अभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।

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उपरोक्त दोनों श्लोक इस अर्थ में अद्भुत् हैं कि दोनों में "मां" पद को उत्तम पुरुष एकवचन द्वितीया या अन्य पुरुष एकवचन द्वितीया के रूप में आत्मा / परमात्मा, दोनों के ही संबंध में भिन्न भिन्न प्रकार से ग्रहण किया जा सकता है। इससे उनकी महिमा में रंचमात्र भी कमी नहीं होती। 

आधाराधेय-संबंध

राधा का उल्लेख श्रीमद्भागवद्महापुराण में है या नहीं इस विवाद की उपेक्षा कर यदि राधा पद का तात्पर्य आधाराधेय-संबंध की विववेचना से समझने का यत्न किया जाए तो संभवतः इसे 

आधार-आधेय-संबंध

आ-धा-राधेय 

के रूप में ग्रहण किया जा सकता है जहाँ राधा और श्रीकृष्ण एक दूसरे से वैसे ही अनन्य हैं जैसा कि ऊपर अध्याय ९ से उद्धृत श्लोक २२ से विदित होता है।

वैसे भी राध् - आ उपसर्ग पूर्वक - आराधनम्, उपासना के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जब आराधना में त्रुटि होती है तो उसे अपराध कहा जाता है।

राधा-तत्व के स्वरूप का साक्षात्कार केवल नाम-जप से भी संभव है और, श्रीकृष्ण तत्व का ही पर्याय है। राधा नामक मानव-रूपी किसी स्त्री-विशेष तक उसे सीमित नहीं किया जा सकता है। राधा विशुद्ध भक्ति है न कि रूखा सूखा बौद्धिक चिन्तन। 

यह खेदजनक है कि कुछ यशस्वी और परम वैष्णव सन्त तथा भक्त भी इस विषय में पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर दूसरों को भी भ्रमित कर रहे हैं जिसका सर्वथा अनुचित लाभ लेते हुए कुछ दुष्ट और विधर्मी मतावलंबी सनातन धर्म का उपहास करते हुए सनातन धर्म को अपूरणीय क्षति पहुंचाने में संलग्न हैं।

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Saturday, August 23, 2025

16/23, 5/26, 6/31, 3/21

वर्तते

16/23

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। 

न सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।२३।।

(अध्याय १६, Chapter 16, verse 23)

5/26

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।२६।।

(अध्याय ५, Chapter 5, verse 26)

6/31

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।३१।।

(अध्याय ६, Chapter 6, verse 31)

***

अपने स्वाध्याय के समय यह प्रश्न प्रायः मन में उठता रहा है कि भाषा और व्याकरण के आधार पर, उस कसौटी से शास्त्र के तात्पर्य को ग्रहण किया जाना उचित है, या कि जैसे मातृभाषा अनायास ही सीख ली जाती है और फिर उस ज्ञान के आधार पर प्राप्त हुए संस्कार के आधार पर, उस कसौटी पर शास्त्र का पाठ करते हुए भाषा और उस  भाषा के व्याकरण की सिद्धि करते हुए शास्त्र के तात्पर्य का अनुशीलन किया जाना उचित है?

दूसरे शब्दों में,

जैसे मातृभाषा अनायास ही सीखी जाती है, क्या शास्त्र की भाषा को भी अनायास ही, व्याकरण की सहायता लिए बिना ही सीखा जाना अधिक उचित नहीं है?

व्याकरण का प्रयोजन केवल इतना है कि उससे भाषा के, और शास्त्र के अभीष्ट तात्पर्य का संप्रेषण यथासंभव त्रुटिरहित हो।

इससे यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि आगम या आगमन की प्राप्ति दो युक्तियों से की जा सकती है -

व्याकरण की सहायता लिए बिना सीधे ही, विवेक और विवेचना के माध्यम और आधार से, या फिर व्याकरण की सहायता से शास्त्र-वचनों में प्रयुक्त शब्दों के स्थानीय महत्व (कर्ता / संबोधन, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध तथा अधिष्ठान को, -- समास और संधि, उपसर्ग, सुबन्त तथा तिङ्गन्त आदि को ध्यान में रखकर आगम   को आधार के रूप में उस प्रमाण की तरह ग्रहण किया जाए जिसे पातञ्जल योगसूत्र, समाधिपाद में -

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

सूत्रों में वृत्ति के एक प्रकार-विशेष की तरह इंगित किया गया है?

प्रमाण क्या है इसे गीता के अध्याय ३ के श्लोक २१ के आधार पर भी देखा जा सकता है -

यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनाः। 

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।२१।।

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Wednesday, June 4, 2025

The Truth of Death!

क्या मृत्यु अटल सत्य है?

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यू-ट्यूब के एक वीडियो में वे महात्मा गरुड़ पुराण और अन्य ग्रन्थों के संदर्भ में विस्तार से यह विवेचना कर रहे थे कि मनुष्य की मृत्यु हो जाने के बाद वह किस लोक में जाता है, वहाँ कितने समय तक रहता है, और किस गति को प्राप्त होता है।

यह सब अत्यन्त रोचक और ज्ञानवर्धक था, इसमें संदेह नहीं, किन्तु मन में प्रश्न आया कि गीता में इस बारे में क्या कहा गया है!

श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरा अध्याय श्लोक 1 से 27 तक इस बारे में यह वर्णन किया गया है -

सञ्जय उवाच -

तं तथा कृपया आविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन।। -1

श्रीभगवानुवाच -

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।। -2

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।। - 3

अर्जुन उवाच-

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।

इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।। - 4

गुरूनहत्वा हि महानुभावान् 

श्रेयो भोक्तुमपीह लोके।

हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव 

भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।। - 5

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो

यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः

यानेव हत्वा न जिजीविषाम-

स्ते अवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।। - 6

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्ते अहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। - 7

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-

द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।

अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धम्

राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।। - 8

सञ्जय उवाच -

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।। - 9

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।। - 10

श्रीभगवानुवाच  -

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।। 11

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।। - 12

देहिनो अस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।। - 13

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदा।

आगमापायिनो अनित्या तांस्तितिक्षस्व भारत।। - 14

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदुःखसुखं धीरं सः अमृतत्वाय कल्पते।। - 15

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः

उभयोरपि दृष्टो-अन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।। - 16

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।। - 17

अन्तवन्त इमे देहाः नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।

अनाशिनो अप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।। - 18

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।। - 19

न जायते म्रियते वा कदाचिन्-

नायं भूत्वा-(अ)भविता वा भूयः।

अजो नित्यो शाश्वतो अयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। - 20

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।। - 21

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरो-अपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्ययानि संयाति नवानि देही।। - 22

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। - 23

अच्छेद्यो अयं अदाह्यो अयं अक्लेद्यो अशोष्य एव च।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलो अयं सनातनः।। - 25

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैैव शोचितुमर्हसि।। - 26

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्य-अर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। - 27

इससे स्पष्ट हो जाता है कि मृत्यु केवल मन में उठी एक कल्पना या विचार मात्र है, जिसका अस्तित्व घटना की तरह भी यदि स्वीकार किया जाए तो यह प्रश्न उठता है कि मृत्यु (नामक यह घटना) किसे प्रभावित करती है?

जिस अविनाशी आत्मा का वर्णन ऊपर किया गया है, न तो उसकी और न ही उस "देही" / चेतन तत्त्व / चेतना / मन या चित्त की ही मृत्यु हो सकती है जो पुरानी देह को पुराने और जीर्ण वस्त्रों की तरह त्यागकर नये और दूसरे शरीर को नये वस्त्रों की तरह धारण कर लेता है।

तात्पर्य यह हुआ कि यदि मृत्यु केवल कल्पना या विचार भर है जो दूसरी कल्पनाओं और विचारों की तरह आता और जाता रहता है, और इसलिए उसकी सत्यता तक यदि संदिग्ध है, तो वह "अटल" सत्य कैसे हो सकता है? क्या यह बहुत बड़ा आश्चर्य ही नहीं है कि इस झूठे तथ्य की परीक्षा किए बिना ही हर कोई ही इसे ब्रह्मवाक्य की तरह सिर-माथा झुकाकर स्वीकार कर लेता है!

इस तरह जाने अनजाने ही आत्मा के तत्त्व की उपेक्षा कर दी जाती है और लोक-परलोक, जन्म-पुनर्जन्म की उन रोचक और अन्तहीन कल्पनाओं में मन भटकता ही चला जाता है, और संशय फिर भी बने ही रहते हैं!!

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Wednesday, May 28, 2025

Content of Consciousness.

15/15

सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो

मत्तः स्मृतिः ज्ञानमपोहनं च। 

वेदैः सर्वैः अहमेव वेद्यो

वेदान्तकृत् वेदविदेव चाहम्।।१५।।

Consciousness is the content of it's own.

Emptying the consciousness (mind) of it's content takes to a silence, that is neither cultivated, nor a reaction activated due to any external stimulus / Conditioning / influences. 

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Monday, May 26, 2025

2/17, 2/62, 2/63, 7/27, 8/16,

मानसपुत्र

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।१६।।

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।१७।।

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।१६।।

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते।।६२।।

क्रोधाद्भवति सम्मोहं सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद्-बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।६३।।

वह अविनाशी जिससे और जिसमें कि समस्त अस्तित्व ओत-प्रोत है, उसे ही निरपेक्ष ब्रह्म कहा जाता है। और यह जो कहनेवाला है वह सापेक्ष ब्रह्म है। इस प्रकार उस निरपेक्ष ब्रह्म की अभिव्यक्ति सापेक्ष ब्रह्म में और सापेक्ष ब्रह्म का विलय निरपेक्ष ब्रह्म में पुनः पुनः होता रहता है।चूँकि दोनों ही स्थितियों में ब्रह्म ही वह अविनाशी तत्व है जिससे और जिसमें वह स्वयं व्याप्त है इसलिए सापेक्ष ब्रह्म को ब्रह्मा (आ-ब्रह्म) कहते हैं और इसलिए यही वह व्यक्त ब्रह्म है जिसका आगमन उस निरपेक्ष अव्यक्त ब्रह्म से, तथा फिर विलय भी पुनः उसी निरपेक्ष अव्यक्त ब्रह्म में होता रहता है। (और लगता है "अब्राहम" शायद इसी "आ-ब्रह्म" का अपभ्रंश होगा। क्योंकि यह भी तो कहा जाता है कि अब्राहम ही सबसे पहले Prophet थे!  और यदि ऐसा न हो और यह शब्द कहीं अन्यत्र से आया हो तो इसकी जानकारी मुझे नहीं है।)

ब्रह्मा शुद्ध बोध अर्थात् वह चेतना है वह बहिर्मुख चित्त-रूपी-ध्यान (attention) है जो अपने हृदयान्तर में स्थित परमात्मा से निःसृत होकर और अपने से बहिर्मुख होकर बाहर की (कल्पित) दिशा में चला गया है। इसी बहिर्मुख चेतना का नाम ब्रह्मा है जिससे चेतन जीवसृष्टि हुई, जिसमें असंख्य चेतना-युक्त वे देहधारी जन्म लेते हैं, जो जीवन व्यतीत करते हुए अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। और इन सभी चेतना-युक्त देहधारियों में (मूलतः अन्तर्मुख) चेतना के बहिर्मुख हो जाने से उन्हें स्वयं अपने आपका सबसे भिन्न एक स्वतंत्र अस्तित्व है यह आभास होने लगता है।

ब्रह्मा के मानस से उद्भूत मन-रूपी इन्हीं चार मानसपुत्रों  के नाम क्रमशः सनक्, सनन्दन, सनत् और सनत् कुमार हैं। सनक हैं बुद्धि का उन्मेष जिसे अंग्रेजी में  cynic  कहा जाता है और प्रचलित भाषा में साधारणतः उसे ही  'सनक' भी कहते हैं।

अपने शुद्ध रूप में यही 'अहं-स्फुर्णा' भी है जिसमें अपने से भिन्न किसी बाह्य वस्तु के अस्तित्व का भान तक नहीं उत्पन्न हुआ होता है। अपने शुद्ध अस्तित्व में रमण करता हुआ उसमें मग्न यही वह मन है जो कि गहरी सुषुप्ति की दशा में इस आनन्द का उपभोग किया करता है। यही है - आनन्दमय कोष। इसे ही नन्दन भी कह सकते हैं। इसी का तीसरा रूप है सनत् अर्थात् "होता हुआ"। "गच्छत्" शब्द का अर्थ जिस प्रकार से - "जाता हुआ" है, वैसे ही "सनत्" सन् धातु का "शतृ" प्रत्यय से बना रूप है। और सनत् कुमार उसका ही विकास और विस्तार है।

इसे हम "ध्यान" के बहिर्मुख होने और बाह्य विषयों के चिन्तन में संलग्न होने के अर्थ में "ध्यायन्" के "ध्यायतः" संज्ञारूप में समझ सकते हैं जिसका अर्थ है ध्यान करते हुए मनरूपी - पुंसः -पुरुष का। अर्थात् जैसे ही ध्यान या वृत्ति बहिर्मुख हो जाती है, किसी विषय के संग होते ही उससे संलग्न हो जाती है। फिर कामना उत्पन्न होती है क्योंकि तब उस आनन्द की प्रतीति होना बन्द हो जाता है जिसका उपभोग सुषुप्ति के समय हो रहा था। बाह्य विषयों में सुख की प्राप्ति होने की कल्पना और आशा ही "काम" या कामना अर्थात् इच्छा कहलाती है, और जब किसी विषय से सुख प्राप्त होने के स्थान पर दुःख प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता है तो उस विषय से द्वेष उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार, इच्छा और द्वेष काम के ही पर्याय हैं और उन दोनों की उत्पत्ति के साथ उनके इस द्वन्द्व से प्रत्येक ही जीव की बुद्धि उसके जन्म से ही मोहग्रस्त हो जाया करती है। और कोई भी जीवधारी इसका अपवाद नहीं होता है। यही सनत् कुमार हैं।

सनक, सनन्दन, सनत् और सनत् कुमार यही ब्रह्मा के चार मानसपुत्र हैं।

कामना के पूर्ण हो जाने पर दूसरी कोई कामना उठती है और कामना अपूर्ण रह जाने पर विषाद उत्पन्न होता है। विषाद ही क्रोध बन जाता है और तब बुद्धि संमोहित या अत्यन्त मोहित utterly confused) हो जाती है। ऐसी स्थिति में स्मृति गड़बड़ा जाती है, विवेक नष्ट हो जाता है और बुद्धि कार्य करना बन्द कर देती है।

यह भी कहा जाता है कि एक बार ब्रह्मा (जी) के ये चारों पुत्र कहीं जा रहे थे। रास्ता जिस वन से गुजरता था वहाँ पार्वती जी भगवान् शिव के साथ विराजित थीं। ये चारों ऊपर सिर उठाए आकाश को देखते हुए अभिमानपूर्वक चले जा रहे थे और भगवान् शिव तथा पार्वती की तरफ उन्होंने दृष्टि तक नहीं डाली। भगवान् शिव तो समाधि में डूबने थे इसलिए इन चारों पर उनका ध्यान ही नहीं गया, किन्तु माता पार्वती से भगवान् शिव की उपेक्षा देखी नहीं गयी। उन्होंने उन चारों को शाप दिया कि तुम इस तरह उद्धत होकर सिर उठाए ऊँट की तरह चले जा रहे हो, तो जाओ ऊँट ही हो जाओ! और वे चारों ऊँट हो गए। बहुत समय तक वन में चरते चरते उन्होंने पूरा वन चर लिया और संयोगवश एक बार फिर उसी स्थान पर आ पहुँचे।  माता पार्वती ने उन्हें देखा तो कौतूहलपूर्वक पूछा -

"ऊँट की तरह जीना कैसा लग रहा है?"

वे बोले -

"मजा ही मजा है, जब धरती पर घास पत्ते समाप्त हो जाते हैं तो दूसरे पशु भूख से मरने लगते हैं, किन्तु हमें तब भी खाने के लिए भरपेट मिल जाता है!"

तब माता पार्वती ने करुणा करते हुए उन्हें पुनः मनुष्य हो जाने का आशीर्वाद दे दिया।

(यह कथा अभी कुछ दिनों पहले ही पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी के किसी वीडियो में सुनी थी।) 

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Thursday, May 22, 2025

Ego and Alter-ego.

Wherefrom comes the Thought?

विचार कहाँ से आते हैं?

इस प्रश्न को सुधारकर इस रूप में पूछा जा सकता है -

विचार / संकल्प कहाँ से उठता है?

और फिर यह देखा जा सकता है कि समस्त विचार और संकल्प भी समष्टि से ही उठते और विलीन होते हैं और पुनः समष्टि में ही विलीन भी हो जाया करते हैं। मनुष्य का मन जितना ही अधिक बहिर्मुख, अव्यवस्थित और अराजक होगा विचारों और संकल्पों की शक्ति उतनी ही अधिक विभाजित हो जाएगी, और उनमें से जो विचार या संकल्प उस समय सर्वाधिक शक्तिशाली होगा वह शेष सभी को अभिभूत कर चित्त की सतह पर सबसे ऊपर उमर आएगा। विचार संकल्पयुक्त या संकल्परहित भी हो सकता है। यह इस पर निर्भर है कि मन का ध्यान किस विषय पर और कितना संलग्न है। संकल्प का अर्थ है - कामना, जबकि विचार का अर्थ है - बुद्धि की सक्रियता।

कामना का आगमन व्यक्ति की स्मृति से होता है, जबकि बुद्धि की सक्रियता एक शुद्धतः यांत्रिक गतिविधि होती है। एक कंप्यूटर भी कामनारहित होकर कार्य करता है, जबकि मनुष्य प्रायः किसी न किसी कामना से ही प्रेरित होता है और उसकी बुद्धि कामना को पूर्ण करने के लिए ही उस समय सक्रिय होती है।

इस प्रकार विचार और कामना के संयोग से ही मनुष्य के द्वारा कोई "कर्म" घटित होता है। यह जानना भी इतना भी महत्वपूर्ण और रोचक है कि केवल अज्ञान से मोहित बुद्धि में ही अहंकार नामक वस्तु को कामना और बुद्धि से संयुक्त कर "मैं चाहता हूँ" और "मैं सोचता हूँ" जैसी कल्पनाएँ चित्त में पैदा होती हैं। दूसरे शब्दों में - मनुष्य में अपने स्वयं के स्वतंत्र रूप से कामना और कर्म के कर्ता होने का भ्रम उत्पन्न होता है। और इससे भी अधिक बड़ा आश्चर्य यह कि मनुष्य का ध्यान इस पर कभी नहीं जाता है कि "अपने स्वयं" के अस्तित्व को वह किस प्रकार से, किस रूप में होने को जानता है और स्वयं के 'वह' होने का दावा करता है! स्पष्ट है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि अहंकार सदैव किसी न किसी वस्तु, विचार, कामना या विषय के संबंध में ही अस्तित्व ग्रहण कर सकता है और विषयमात्र के अभाव में सुषुप्ति या मूर्च्छा में चला जाता है। जब यह सुषुप्त नहीं होता उस समय यह जागृत या स्वप्न की स्थिति में होता है। यही व्यक्ति की अपनी स्मृति और विशिष्ट पहचान भी होती है और स्मृति और पहचान एक ही वस्तु के दो नाम ही हैं। पहचान और स्मृति दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं। स्मृति है तो ही किसी भी विषय की या 'अपने आप' की पहचान हो सकती है, और पहचान है, तो ही स्मृति हो सकती है।

इसी आधार पर विचार और संकल्प, कामना, बुद्धि और 'कर्म' को भी परिभाषित किया जा सकता है।

अब हम एक वेदमन्त्र और गीता के अध्याय ९ के एक श्लोक के संदर्भ में इसे समझें -

आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः।।

और,

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाऽहमहमौषधम्।

मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निः अहं हुतम्।।१६।।

Gita Chapter 9, verse 16,

इन दोनों उद्धरणों में "क्रतुः:" शब्द का प्रयोग है।

अब मन्त्र को इस रूप में देखें -

भद्रा क्रतवः नो यन्तु आविश्वतः।।

विश्व का अर्थ है समष्टि, सब ओर। भद्रा अर्थात् शुभ। आ उपसर्ग का प्रयोग 'संपूर्ण' के अर्थ में होता है।

"नो" या "नः" अस्मद् पद की द्वितीया विभक्ति बहुवचन। क्रतवः, क्रतु पद का प्रथमा विभक्ति बहुवचन है।

प्रथम विभक्ति  - संज्ञासूचक - Nominative Case,

द्वितीया विभक्ति  - कर्मकारक - Accusative Case,

बहुवचन - plural,

आ - उपसर्ग - Prefix - meaning - form all directions.

अस्मद् - उत्तम पुरुष - First Person,

विचार / वृत्ति - Thought,  Feeling,  emotion, sentiment, thinking, any state and / or mode of the conscious mind.

क्रतुः / संकल्प - Will, Desire, Intention.

भद्रा - भद्राः - शुभ - Auspicious / noble,

यन्तु - या - याति धातु, लोट् लकार (आज्ञार्थ), अन्य पुरुष बहुवचन रूप -

"May" - for expressing the wish :

For example such as in : 

"May God Bless you!" 

The simple meaning is :

May auspicious / noble thoughts come to us from all directions.

अहं  as in Gita Chapter 10, verse 20,

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।

अहमादिश्च मध्यश्च भूतानामन्त एव च।।२०।। 

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Thursday, May 8, 2025

THE ACTION.

2/49, 3/27, 4/13, 5/14, 5/15, 5/16, 15/15

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अध्याय २

सञ्जय उवाच 

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप। 

योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।  

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

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अध्याय ३

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।२७।।

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अध्याय ४

श्रीभगवानुवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान् अहं अव्ययम्। 

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एव मया तेऽद्य योगो प्रोक्तः पुरातनम्। 

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच :

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच :

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तानि अहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्यापि कर्तारं मां विद्धि अकर्तारमव्ययम्।।१३।।

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अध्याय ५

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः। 

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

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अध्याय १५

सर्वस्य अहं हृदि संनिविष्टो

मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। 

वेदैश्च सर्वैः अहम्  एव वेद्यो

वेदान्तकृत् वेदविदेव च अहम्।।१५।।

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अध्याय १८

यदहङ्कारमाश्रित्य  योत्स्य इति मन्यसे।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

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उपरोक्त सभी श्लोकों में दृष्टव्य है कि संस्कृत भाषा का प्रयोग इस कुशलता से किया गया है कि किसी भी अन्य भाषा में वह तात्पर्य आँखों से ओझल हो जाता है। सभी श्लोकों में अहं पद का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन में उसकी भिन्न भिन्न विभक्तियों में है जबकि क्रियापद वहाँ दिखाई नहीं देता। जैसे कि हिन्दी भाषा में :

'मैं हूँ' और 'मैं था' जैसे वाक्यों में सहायक क्रिया :

'हूँ' या 'था' से वर्तमान काल या भूतकाल का बोध होता है, संस्कृत भाषा के इन श्लोकों में इस अर्थ का द्योतक कोई शब्द ही नहीं दिखाई देता है और इसलिए इनका अनुवाद किसी दूसरी भाषा में करते ही संस्कृत श्लोक के मूल अर्थ पर ध्यान तक नहीं जा पाता। 

इस बारे में इस या दूसरे ब्लॉग्स में भी विस्तार से लिख चुका हूँ। संक्षेप में यदि इस ओर ध्यान न दिलाया जाए तो कभी यह किसी को सूझता ही नहीं कि 'अहं' पद का प्रयोग उत्तम पुरुष और अन्य पुरुष एकवचन दोनों प्रकार से ग्राह्य हो सकता है।

उदाहरण के लिए -

तानि अहं  वेद सर्वाणि 

में अहं शब्द "मैं" (अर्थात् आत्म / आत्मा) या "वह" (अर्थात् आत्म / आत्मा) के रूप में :

उत्तम पुरुष एकवचन या अन्य पुरुष एकवचन दोनों ही दृष्टियों से व्याकरण-सम्मत है।

क्योंकि "वेद" शब्द 'विद्'  धातु  के लट् लकार का यही रूप है। तात्पर्य यह कि :

अहं वेद 

का अर्थ "मैं जानता हूँ।"  तथा "आत्मा जानता है।" इन दोनों रूपों में ग्रहण किया जा सकता है। तो,  "हूँ" के साथ साथ या अतिरिक्त "है" शब्द भी पूर्णतः उपयुक्त है।

अध्याय ४ के १३वें तथा अध्याय ५ के तीनों ही श्लोकों का अभिप्राय और निहितार्थ भी यही है कि "कर्म" (तथा कर्ता एवं कर्तृत्व भी) केवल मान्यता या कल्पना हैं, और उनकी कोई पारमार्थिक सत्यता नहीं हो सकती है।

अध्याय ५ के श्लोकों में एक ही आत्मा के लिए क्रमशः "प्रभुः" और "विभु:" के प्रयोग से स्पष्ट है कि "ईश्वर" तथा "जीव" का भेद भी मानसिक कल्पना में ही संभव है, न कि वास्तविक है।

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Monday, April 28, 2025

2/50, 2/55, 3/43

अध्याय २

बुद्धियुक्तो जहाति इह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।५०।।

श्री भगवानुवाच --

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।५५।।

अध्याय ३

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।४३।।

क्या आशय है इन श्लोकों का? 

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Sunday, April 20, 2025

8/12, 8/13 मुक्ति / मोक्ष

Self-Delivery

आत्ममुक्ति

स्वेच्छा से मृत्यु का वरण 

यहाँ आवश्यकता होने पर स्वेच्छा मृत्यु का वरण कैसे किया जा सकता है इस बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ८ के श्लोक क्रमांक १२ और १३ के संदर्भ में स्पष्ट निर्देश है —

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।१२।।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।१३।।

उपरोक्त श्लोकों में इस प्रकार से स्वेच्छा मृत्यु को वरण करने की विधि स्पष्ट की गई है –

जो भी इस प्रकार से अभ्यासपूर्वक इस क्रम को अच्छी तरह से कर सकता है उसे परम गति अर्थात् मोक्ष की या ईश्वर की प्राप्ति होती है।

इसके लिए इसके प्रत्येक भाग को ठीक से समझकर उसमें दक्षता प्राप्त होने पर ही यह संभव हो पाता है। यदि पहले से पर्याप्त अभ्यास न किया गया हो तो यह संभव नहीं हो पाता।

Here Gita categorically describes that an aspirant having well-practiced the four key-instructions – namely :

1.Having withdrawn attention from the outgoing senses,

2.Having mind / consciousness / attention fixed firmly in the “heart” / sense of :

Being and Knowing,

3.Having the vital breath established in the 

मूर्ध्नि आधाय (मूर्ध्ना सप्तमी एकवचन)

प्राणम् (द्वितीया एकवचन) 

4.  व्याहरन्  contemplating about / of

ॐ इति एकाक्षरम् ब्रह्म

Thus : The single letter Brahman “Om”

5.मामनुस्मरन् – माम् अनुस्मरन्

And remembering accordingly

“I-AM” / The Self,

One who relinquishes the body,

Attains the State Supreme.

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 

उपरोक्त आलेख मेरे वर्डप्रेस ब्लॉग के उस पोस्ट से लिया गया है जहाँ मैंने अहं ब्रह्मास्मि के अध्याय 91 का पॉडकास्ट शेयर किया है। इसलिए इसे उस संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

स्वेच्छामृत्यु की अवधारणा इस भ्रम पर आधारित है कि मनुष्य अपनी मृत्यु का चुनाव और वरण करने के लिए स्वतंत्र है। प्रायः आत्महत्या को भय, कायरता से प्रेरित कृत्य समझा जाता है और सामान्य मनुष्य ही नहीं बल्कि बहुत बड़े बड़े बुद्धिजीवी और विद्वान् भी यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि प्रत्येक उस जन्म लेनेवाले प्राणी की मृत्यु - वह किस प्रकार से और आयु के किस मोड़ पर होगी, उसके जन्म लेने के समय पर ही विधाता के द्वारा सुनिश्चित हो जाती है और कोई भी आत्महत्या करने या न करने के लिए स्वतंत्र नहीं है।

फिर भी औपचारिक रूप से और प्रसंगवश श्रीमद्भगवद्गीता में योगसाधना करनेवाले मनुष्य के लिए यह निर्देश दिया गया है कि वह किस प्रकार अपने जीवन के अंतिम समय का सदुपयोग इस प्रकार से कर सकता है जिससे कि उसे मृत्यु के बाद परम गति प्राप्त हो।

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Sunday, March 23, 2025

Finding Out!

त्रिविधा भवति श्रद्धा 

पिछले पोस्ट को पब्लिश करते ही इस पर ध्यान गया कि इसी अध्याय के प्रारंभ में कहीं किसी श्लोक में :

"त्रिविधा भवति श्रद्धा"

से प्रारंभ होनेवाला कोई श्लोक है।

इसी अध्याय १७ के इस प्रथम श्लोक पर दृष्टि पड़ी -

अर्जुन उवाच --

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः। 

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्वमाहो रजस्तमः।।१।।

और इससे मुझे दिशानिर्देश प्राप्त हो गया। तात्पर्य यह कि मनुष्य की श्रद्धा भी निष्ठा के आधार पर ही सात्विक, राजसी और तामसिक इन तीनों में से किसी एक प्रकार की होती है, जिसका उल्लेख इसके तुरंत बाद के श्लोक में इस प्रकार से है -

श्रीभगवानुवाच --

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।

सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।।२।।

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।

जिसके उल्लेख से पिछले पोस्ट को प्रारंभ किया था। 

इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि यहाँ "श्रद्धा" शब्द का अर्थ "निष्ठा" / conviction समझा जा सकता है।

इसमें सन्देह नहीं कि प्रथमतः तो भौतिक जगत् में अपने अस्तित्व के भान के बाद ही अपने और अपने आसपास प्रतीत होनेवाले अस्तित्व को क्रमशः अपने शरीर के रूप में "स्वयं" तथा "स्वयं" से भिन्न "संसार" की तरह समझ लिया जाता है।

ऐसा लगता है कि अवश्य ही यह आभासी विभाजन भी उसी चेतना में उत्पन्न होता है, जो कि इन्द्रियानुभूतियों से या जिससे कि इन्द्रियानुभूतियाँ उत्पन्न होती हैं।

दूसरे शब्दों में :

शरीर में चेतना के जागृत होने पर ही इन्द्रियों का कार्य, और इन्द्रियों का कार्य प्रारंभ होने के बाद ही शरीर तथा आसपास के अस्तित्व का "भान" होता है। और ध्यान से देखें तो कहा जा सकता है कि शरीर और जगत् का भान होने से भी पहले ही इन्द्रियों का भान भी, चेतना जागृत होने पर ही संभव होता है।

इसलिए भान और चेतना उस एक ही वस्तु के द्योतक हैं, जिसमें अस्तित्व को जाना तो जाता है, किन्तु इस प्रकार से "जानना" इन्द्रियों, मन, स्मृति या बुद्धि के माध्यम से नहीं, बल्कि स्वतंत्र रूप में अस्तित्व में ही अन्तर्निहित है।

चेतना (या भान) के जागृत होने पर ही अपने या "स्वयं के" तथा अपने से अन्य प्रतीत होनेवाले उस बाह्य जगत् की भिन्नता अनुभव होती है जिसे कि चेतना (या भान) के जागृत होने से पहले नहीं जाना जाता है। अस्तित्व की नित्यता यद्यपि तब भी होती तो है किन्तु ऐसा कह पाना भी चेतना (या भान) के जागृत होने पर ही संभव है। इस प्रकार से अपने-आप या "स्वयं" को जगत् से भिन्न एक "चेतन" या "मन" के रूप में जगत् से स्वतंत्र और भिन्न सत्ता मान लिया जाता है।

यह है वह निष्ठा जिसे स्वभावजा श्रद्धा भी कह सकते हैं।चेतना (या भान) के जागृत होने से पहले की सुप्त दशा में, जिसमें अपने और अपने आसपास के किसी जगत् का भान, और इसलिए इस प्रकार का कोई विभाजन भी नहीं रह जाता, क्या "मन" नामक किसी वस्तु की स्वतंत्र सत्ता हो सकती है?

अभी हम "श्रद्धात्रयी" पर आगे विचार करें तो स्पष्ट है कि "तामसी" श्रद्धा उस स्थिति को कह सकते हैं जब चेतना (या भान) के जागृत होने पर "अपने" से भिन्न किसी जगत् की प्रतीति उत्पन्न होती है, यद्यपि "अपने" से वह किस प्रकार से भिन्न और स्वतंत्र है यह भी स्पष्ट नहीं होता। प्रत्येक ही चेतन सत्ता जो "अपने" स्वयं और अपने से भिन्न जगत् को इस प्रकार से अनुभव करती है, चेतना (या भान) के जागृत होने से पहले एक ऐसी दशा में होती है जिसमें चेतना सुषुप्तप्राय होती है। फिर भी जागृत होने पर उसका नये की तरह जन्म हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। सुषुप्त होने या जागृत होने के समय में अपने अस्तित्वमान होने के तथ्य को हर कोई अनायास जानता ही है और इस पर सन्देह उठाना तक हास्यास्पद ही है।

अपने "स्वयं" के होने के स्वाभाविक भान में ही "स्वयं" से भिन्न फिर भी अपरिहार्यतः जुड़े अर्थात् "अभिन्न" भी उस जगत् को भी वैसे ही अनायास ही नित्य और जन्म तथा मृत्यु से रहित मान लिया जाता है।

यह चेतना (या भान) का "धर्म" हुआ। 

चेतना (या भान) के जागृत होने के बाद किसी प्रकार का अभाव अनुभव होने पर उसकी पूर्ति के लिए चेष्टा होती या की जाती है। यदि उस चेष्टा से अभाव दूर हो जाता है तो उसे "सार्थक" कहा जाता है। दूसरी ओर, अभाव को दूर करने की आवश्यकता अनुभव होने और अभाव को दूर करने की चेष्टा को ही "काम" कहा जा सकता है।

इस प्रकार "अर्थ" और "काम" परस्पर जुड़े हुए हैं।

अभाव के दूर होने को ही समस्या से मुक्ति या मोक्ष कहा जा सकता है।

पुनः शारीरिक कष्ट उत्पन्न होने पर उनसे मुक्ति होने की आवश्यकता अनुभव होना और उन्हें दूर करने के उद्देश्य से की जानेवाली चेष्टा भी "कर्म" ही है।

किन्तु, और इसीलिए शरीर के जीवित रहने तक "कर्म" से "मुक्ति" हो पाना असंभव ही है।

"काम" या कामना के जागृत होने के बाद "काम" ही केवल राग, द्वेष, लोभ, भय, आशा, अपेक्षा, आशंका ही नहीं, बल्कि स्मृति के रूप में अतीत या भूत और कल्पना के रूप में अज्ञात भविष्य का सृजन कर लेता है।

और इसके बाद तुरन्त ही "जगत्" की रचना करनेवाली किसी ऐसी कल्पित अदृश्य सत्ता और उसकी शक्ति का विचार जन्म लेता है जो "स्वयं" को सदा सुरक्षित, संतुष्ट और प्रसन्न बनाए रखे।

फिर उसे "ईश्वर" या कोई दूसरा नाम दे दिया जाता है। रोचक यह भी है कि यह सब बौद्धिक ऊहापोह "मनुष्य" में ही होता है।

गीता में अध्याय ५ में इस "चेतन" सत्ता को शायद जगत् के स्वामी के रूप में तो "प्रभु" तथा असंख्य चेतन शरीरों के रूप में "विभु" कहा गया होगा, और जहाँ पर "कर्म" और  "कर्मफल" तक की अवधारणा भी सत्यता पर भी शंका की गई है। 

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः। 

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

और इसीलिए "बुद्धियोग" को "कर्मयोग" से श्रेष्ठ भी कहा गया है :

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। 

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।। 

किन्तु किसी का चित्त या मन इतना परिपक्व न हो कि वह इस सरल सत्य को ग्रहण कर सके तो वह समस्त कर्मों का अनुष्ठान निष्काम भाव से करते हुए, कर्तृत्व की भावना से युक्त रहते हुए भी उन्हें "ईश्वर" को समर्पित भी कर सकता है :

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्-ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागः त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।

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The Conviction.

श्रद्धात्रयी

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। 

श्रद्धामयः अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।

(अध्याय १७)

ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः गीता में आगे चलकर श्रद्धा को श्रद्धात्रयी के रूप में क्रमशः तामसी, राजसी और सात्विकी कहा गया हो।

मनुष्य नामक प्राणियों के अन्तःकरण में जो प्रकृतिप्रदत्त निष्ठा या ईश्वरप्रदत्त स्वाभाविक श्रद्धा होती है वह तीन प्रकार की होती है।

पहली है पशुतुल्य तामसी श्रद्धा जिसमें क्षण क्षण बदलते हुए और इस बदलते रूप में भी सतत अनुभव किए जा रहे संसार को ही एकमात्र सत्यता मान लिया जाता है और मन स्वयं को इसके केन्द्र की तरह शरीर विशेष के रूप में सुरक्षित बनाए रखने की कामना के पूर्ण होने की आशा तथा शरीर के नष्ट होने की कल्पना से आशंकित और भयभीत रहा करता है।

दूसरी है मनुष्य-तुल्य राजसी श्रद्धा जिसमें अपनी क्षमता और ज्ञान की मर्यादा को अनुभव करते हुए किसी ऐसी सत्ता की कल्पना की जाती है जो कि तुलना में असीम क्षमता और ज्ञान से संपन्न हो सकती है और उसे प्रसन्न करने की चेष्टा की जाती है जिसकी कृपा प्राप्त कर हम सदैव सुखी और संपन्न रहें। 

तीसरी है विवेकशील वह सात्विक श्रद्धा जिसमें संसार की प्रत्येक वस्तु और मनुष्य के अनित्य होने की कल्पना होने से ऐसी किसी भी वस्तु में आसक्ति न हो पाना और किसी ऐसी वस्तु की खोज ओर उसे जानने की चेष्टा जो कि अनश्वर और इसलिए नित्य हो, और जो जन्म तथा मृत्यु से रहित भी हो। और यह भी कि ...

यहीं तक यह विवेचना है।

इसे लिखना प्रारम्भ करते समय विचार यह था कि जिसे यहाँ श्रद्धा कहा है उसके स्थान पर निष्ठा शब्द का प्रयोग करूँ किन्तु मेरे पास कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है न कोई और दूसरा उपाय जिसकी सहायता से मैं सुनिश्चित रूप से जान सकूँ कि क्या गीता में निष्ठात्रयी के बारे में और कहीं कुछ कहा गया है या नहीं।

अस्तु!

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Friday, March 21, 2025

The Big Crunch

यदा संहरते चायं

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2/58

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। 

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।

यहाँ हृ - हरति / हरते

का आत्मनेपदी धातु के रूप में प्रयोग दृष्टव्य है।

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति (Manifestation) तथा प्रलय (Dissolution) इस अर्थ में सृजन और विलय है न कि निर्माण और विनाश।

यह न केवल व्यष्टि बल्कि समष्टि ब्रह्माण्ड के लिए भी सत्य है।

गीता 2/58 

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Saturday, February 22, 2025

My Only Fear.

कुम्भ के बहाने! 

What I'm Affraid of!

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ इस प्रकार से होता है -

धृतराष्ट्र उवाच -

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।

शायद इससे अधिक उपयुक्त और प्रासंगिक कोई अन्य सन्दर्भ इस ग्रन्थ को प्रारंभ करने के लिए नहीं हो सकता है। जीवन को अर्थात् पुरुषार्थ को हम जिन चार रूपों में जान सकते हैं उनमें से धर्म प्रथम है -

धर्मः वस्तुस्वभावः।

धर्म अस्तित्व का स्वभाव है इसलिए जड चेतन हर वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है जिसका अनुष्ठान अनायास हुआ करता है। जीवनरूपी सरिता के इस स्वाभाविक और सरल प्रवाह में न तो कहीं कोई कर्ता, कर्म या कर्म का उद्देश्य हो सकता है। और जैसे ही इस प्रवाह में कोई रुकावट या बाधा आती है, तो उसकी प्रतिक्रिया के रूप में कर्ता, कर्म और कर्म का कोई उद्देश्य प्रकट हो उठते हैं। ये तीनों ही चेतना की गतिविधि हैं, जिनमें चेतना ही स्वयं को इन तीनों रूपों में विभाजित कर लेती है, और कर्ता के रूप में किसी व्यक्ति-सत्ता का प्राकट्य हो जाता है, अर्थात् वह सत्ता अहं-प्रत्यय की तरह इदं प्रत्यय से पृथक् और भिन्न रूप में भासित होती है। "किसे भासित होती है?" -यह पूछना एक अतिप्रश्न होगा। क्योंकि यह  अद्वितीय चेतना ही विषय और विषयी, दृक् और दृश्य की तरह भी, दो की तरह से अस्तित्वमान और प्रतीत भी होती है।

धर्म से अर्थ की उत्पत्ति होने पर ही उस अर्थ को उद्दिष्ट के रूप में ग्रहण किया जाता है। और इसके बाद ही उस अर्थ की सिद्धि के लिए उपयुक्त प्रतीत होनेवाला समुचित और वाञ्छित कर्म किया जाता है।

"कुरु" पद, "कृ" उभयपदी धातु का युष्मद् सूचक लुट् लकार एकवचन परस्मैपदी रूप है, जबकि आत्मनेपदी  धातु की तरह यही "कुरुष्व" हो जाता है।

प्रस्तुत श्लोक में यहाँ परस्मैपदी प्रयोग है। 

किसी चेतन वस्तु में कर्तव्य की प्राप्ति उठने का भाव ही उसे कर्म करने के लिए होनेवाली प्रेरणा होता है। उसमें उठनेवाली यही भाव तत्क्षण कर्तृत्व का रूप ग्रहण कर लेता है और "मैं कर्ता हूँ" इस मूलतः त्रुटिपूर्ण कल्पना के उत्पन्न होने का कारण होता है। इस प्रकार, संपूर्ण जीवन वस्तु-मात्र के लिए "धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र" हो जाता है। "मामकाः" / "मेरे", और "पाण्डवाः" / "पाण्डु" नामक किसी दूसरे के पुत्रों के बीच तब भिन्न भिन्न उद्देश्यों की सिद्धि हेतु किया जानेवाला "कर्म" परस्पर विपरीत और विरुद्ध होने से "युद्ध" का रूप ले लेता है।

धर्म, अर्थ और काम का यह क्षेत्र तब धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र हो जाता है। और चेतन सत्ता का जीवन ऐसा ही युद्धस्थल होता है। कामना के बने रहने तक यह युद्ध सतत चलता रहता है। सतत युद्ध करता हुआ युद्ध में विजयी होने तक या मृत्यु की प्राप्ति होने तक, या युद्ध की निरर्थकता और भयावहता से पलायन कर लेने के विचार से प्रेरित होकर वह "चेतन" द्वन्द्व से ग्रस्त रहता है।

कुम्भ महापर्व शीघ्र ही संपन्न होने की ओर अग्रसर है। बहुत से भाग्यवान और पुण्यवान संगम स्नान कर चुके हैं। मुझसे भी उनकी अपेक्षा थी कि मैं भी करता या मुझे भी करना चाहिए था। मैं नहीं जानता कि मैं इस बारे में क्या कहें! कोई निश्चय कर पाने के लिए मैं स्वतंत्र हूँ भी या नहीं, या कि मैं कितना स्वतंत्र हूँ! और, क्या स्वतंत्रता आंशिक भी हो सकती है? यह भी मुझे नहीं पता है। मेरे कुम्भस्नान न कर पाने से न तो मुझे डर लगता है, और न मुझमें कोई अपराध-बोध ही उठता है, किन्तु किसी दूसरे की भावनाओं को मुझसे कहीं चोट न लग जाए इसका कुछ डर मुझे अवश्य है। और इसलिए उनका सामना कर पाने में भी! 

कुम्भस्नान कर पाना या न कर पाना तो मेरे वश में नहीं है, किन्तु धर्म-रूपी गंगा, कर्म-रूपी यमुना, और दर्शन-रूपी अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी के इस पावन संगम में स्नान करते रहना मुझे अपेक्षाकृत सरल, और मेरा और भी अधिक बड़ा सौभाग्य अनुभव होता है।

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