Saturday, March 16, 2024

संबंध और द्वन्द्व

पिछले पोस्ट के क्रम में --

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पिछले पोस्ट में हमने देखा कि किस प्रकार संबंध ही क्लेश है। थोड़ा सावधानी से देखें तो क्या यह पर्याप्त है? 

क्या संबंध और द्वन्द्व, विषय और विषयों का चिन्तन, अपेक्षा और चिन्तन / विचार ही क्लेश नहीं है? अपेक्षा से विचार होता है और विचार से अपेक्षा। विषयों का विचार चित्त को कल्पना या स्मृति में खींच लाता है। कल्पना भविष्य की या / और स्मृति अतीत की। दोनों ही तत्काल ही चित्त को वर्तमान के निर्विचार "जो है" से विच्छिन्न और देते हैं। विचार और विचारकर्ता भी विचार के ही दो भिन्न प्रतीत होनेवाले रूप होते हैं। विचार है तो विचारकर्ता है और विचारकर्ता है तो विचार है। दोनों कल्पना हैं न कि "जो है"!

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Friday, March 15, 2024

युज् और युध्

2/9, 18/59,

अध्याय 2 और अध्याय 18 के उपरोक्त श्लोक क्रमशः इस प्रकार से हैं --

सञ्जय उवाच 

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।।

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।

तथा,

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।

तात्पर्य यह कि जन्म होते ही प्रत्येक ही प्राणी शरीर के रूप में अपने आप को मान लेता है, और तब तत्काल ही विभिन्न विषयों से सुख या दुःख प्राप्त होगा इस भावना से उसका चित्त आविष्ट होने से वह उन विषयों की इच्छा और उनसे द्वेष आदि उसके हृदय में उत्पन्न हो जाते हैं।

यद्यपि उसके चित्त / बुद्धि में अपने अस्तित्व का भान तो होता है किन्तु उस भान से ही अपने स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता, स्वामी एवं ज्ञानवान होने की भावना उत्पन्न होकर उसकी बुद्धि को भ्रमित कर देती है। शरीर के जन्म से प्रारम्भ होनेवाले इस क्रम को उसका व्यक्तिगत "प्रारब्ध" कहा जाता है।

इसी प्रारब्ध को संक्षेप में जैसा कि अध्याय ३ के निम्न श्लोक में कहा गया है,

-- "अहङ्कारविमूढात्मा" कहा जाता है --

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

मनुष्य इस प्रकार से प्रकृति से संचालित उपकरण बना रहकर प्रारब्ध के अनुसार अहङ्कार के आश्रित हुआ  सुखी या दुःखी हुआ करता है। 

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

उपरोक्त दोनों श्लोकों में युज् और युध् दोनों ही धातुओं का प्रयोग दृष्टव्य है।

व्यक्तिगत प्रारब्ध और भाग्य क्या है इसे समझने के लिए इन दोनों धातुओं का प्रयोजन जानना उपयोगी है। 

संबंधमात्र द्वन्द्व है। और द्वन्द्व की स्थिति में इन दोनों का ही का महत्व है। युज् का अर्थ है युक्ति, संबंधित होना। युध् का अर्थ है अपने स्वरूप से विपरीत से संबंध होना। संबंधमात्र निर्विशेष चेतना का संग, जड विषय से होने पर होता है।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।।

संगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोपजायते।।

क्रोधात्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृति विभ्रमः।।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

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नायं लोकोऽस्ति

4/31, 4/40

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यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।। 

नायं लोकोऽस्त्यज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।।३१।।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

-- (अध्याय ४)

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Monday, December 18, 2023

धृतराष्ट्र उवाच

अध्याय १

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ दुर्योधन और उसके भाइयों आदि कौरवों के पिता धृतराष्ट्र के इस प्रश्न से होता है, जिसे वे सञ्जय से पूछते हैं --

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवाः।।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।

सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य बदल जाने से कैसे एक ही विचार या मत का तात्पर्य बदल जाता है और कैसे तब विवाद की स्थिति जन्म लेती है, यह इसका एक उदाहरण है।

ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो जो तात्पर्य प्रतीत होता है, उसे ग्रहण कर पाना बहुत सरल है। राजा दुर्योधन के पिता धृतराष्ट्र सञ्जय से प्रश्न करते हैं कि धर्म के विषय में और कर्म के विषय में, उस उस क्षेत्र में मेरे और मेरे भाई पाण्डु के पुत्रों ने एकत्र होकर क्या किया?

इस श्लोक का यह सरल ऐतिहासिक तात्पर्य हुआ। 

इसे ही दूसरे तरीके से समझें तो इसे राजनीतिक प्रश्न के रूप में भी देखा जा सकता है। राज् - राजति, राजते, राज्यते, राजा, राज्य और राष्ट्र सभी इसी एक ही धातु "राज्" से बने भिन्न भिन्न शब्द हैं, जिनका तात्पर्य भिन्न भिन्न हो सकता है किन्तु सभी परस्पर संबद्ध हैं।

राष्ट्र का अर्थ है संपूर्ण पृथ्वी, जिसमें अनेक राजा राज्य करते हैं और सभी स्वतंत्र होते हैं। जब उनमें से कोई एक सम्पूर्ण पृथ्वी अर्थात् समूचा राष्ट्र को अपने ही अधिकार में रखना चाहता है और अपने विरोधी राजा को सुई की नोंक के बराबर भूमि भी नहीं देना चाहता है तो अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए दूसरे राजा के लिए युद्ध करने का ही एकमात्र विकल्प होता है।

धृतराष्ट्र का परोक्ष रूप से तात्पर्य हुआ अंधी दिशाहीन स्वार्थपरक राजनीति, और उस राजनीति का एकमात्र आधार और आश्रय है - मामकाः या  "मेरा, मेरी और मेरे"। और उस राजनीति की सबसे बड़ी सन्तान है अपने तय लक्ष्य को पाने के लिए घोर और दुर्धर्ष युद्ध करने की प्रबल अभिलाषा, जो कि दुर्योधन है। युद्ध धर्म नहीं, कर्म है, क्योंकि वह किसी भी प्रकार से किसी न किसी कर्म को करने की प्रेरणा प्रदान देता है। इस प्रकार युद्धक्षेत्र, धर्मक्षेत्र ही न रहकर कुरुक्षेत्र का रूप ग्रहण कर लेता है।

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Monday, October 30, 2023

Appearance and The Reality.

अहं मम  और माम् 

I, MY and ME.

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

यह जो है माया यह (तीन) गुणों से युक्त प्रकृति / प्रतीति / 'प्रत्यय' का ही नाम है न कि तत्वतः अस्तित्व विद्यमान कोई वस्तु हो सकती है। इसका निवारण और इसलिए इसका निवारण भी कर पाना अत्यन्त ही कठिन है। और किन्तु वे ही, जो कि मुझ नित्य अस्तित्वमान परमात्मा की प्राप्ति करने की अभीप्सा और अभिलाषा से प्रेरित होकर मुझे जानने की चेष्टा / अभ्यास करते हैं इसका निवारण और निराकरण कर पाते हैं, इसे पार कर तर जाते हैं।

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Transcending this माया / mAYA, that is प्रकृति / Prakriti (and consists of three गुणाः / attributes) is extremely difficult and only those Who-so-ever follow ME can transcend this माया / mAyA.

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अहं / अहम् -  संज्ञा / उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम प्रथम विभक्ति आत्मा / परमात्मा - नित्य अविकारी विद्यमान वस्तु ।

Nominative Case noun / pronoun. 

मम :

- अहं / अहम् संज्ञा / सर्वनाम पद - मैं  I, noun the self or Self.

Relative / possessive Case -- of or own. Indicating "my", it's always changing while I / Self is ever so immutable / unchanging. 

संबंधसूचक षष्ठी विभक्ति - मेरा, मेरी, मेरे जो कि सदैव विकार से ग्रस्त प्रतीति ही होती है और यही माया है। Appearance - what looks true for the moment only.

Time and Space too are appearances and as such always changing. Time is though fixed in the now, but keeps on changing with reference to imagined future or in the memory of the past.

Knowing and Understanding this one can see how time is either Real as in the now or appearance / Unreal as in the sense of past and future.

This Time therefore because of it is given an assumed reality through the thought only. Thought and Time both appear with reference to each other.

According to the aphorisms of the Patanjala Yoga Darshana, Thought is vRtti and memory too is vRitti only.

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#Presently, just unable to find out the location, number and the Chapter of the verse!

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Friday, October 27, 2023

तस्याहं निग्रहं मन्ये

Chapter 6,

Verse 34, 35

अध्याय ६,

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।३४।।

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असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।३५।।

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उपरोक्त दोनों श्लोकों में ध्यान दिए जाने योग्य महत्वपूर्ण बिन्दु यह है - अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से प्रश्न पूछते हैं : हे कृष्ण! मन चञ्चल, हठी, अत्यन्त बलवान् और दृढ है। मैं मानता हूँ कि उसका निग्रह करना उसी तरह अत्यन्त कठिन है जैसे कि बहती हुई वायु को रोक सकना।

भगवान् श्रीकृष्ण उत्तर देते हुए कहते हैं :

हे महाबाहो अर्जुन! इसमें संशय नहीं है कि मन चञ्चल है और उसका निग्रह कर सकना कठिन भी है। किन्तु हे कौन्तेय! अभ्यास और वैराग्य से तो (अवश्य ही) उसका निग्रह किया जाता है।

यहाँ अर्जुन असावधानी से 'मन' और अपने आपको दो भिन्न वस्तुएँ मानकर यह प्रश्न पूछते हैं। "अहं मन्ये" -इस वाक्यांश से यही प्रतीत होता है। भगवान् श्रीकृष्ण इसका उत्तर देते हुए "अहं" पद का प्रयोग किए बिना ही अर्जुन से कहते हैं : "हे कौन्तेय! मन अवश्य ही चञ्चल है, और उसका निग्रह कर पाना बहुत कठिन है, फिर भी अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से उसका निग्रह किया जाता है।

यहाँ यह विचारणीय है कि क्या प्रश्नकर्ता अर्जुन का 'मन' उस प्रश्नकर्ता (अर्जुन) से पृथक् कोई भिन्न और अन्य / इतर वस्तु है, या स्वयं 'मन' ही अपने आपको "मैं" और 'मन' में विभाजित कर लेता है?

भगवान् श्रीकृष्ण फिर भी इस काल्पनिक प्रश्न का उत्तर देकर अर्जुन की समस्या का समाधान / निराकरण कर देते हैं।

अर्जुन के विषय में कुछ कहने से पहले यह समझ लिया जाना जरूरी है कि क्या हम सभी के साथ ऐसा ही नहीं होता है? कभी तो हम कहते हैं : "मैं प्रसन्न हूँ।" और कभी कहते हैं "मन प्रसन्न है।" ऐसी स्थिति में ध्यान इस ओर नहीं जाता कि जिसे "मैं" कहा जा रहा है, और जिसे "मन" कहा जा रहा है, क्या वह "मैं" और वह 'मन' एक ही वस्तु है, या दोनों दो भिन्न वस्तुएँ हैं! 

स्पष्ट है कि जो सतत परिवर्तित हो रहा है, कभी प्रसन्न तो कभी खिन्न हो रहा है वह 'मन' है, जबकि इस 'मन' को, अपरिवर्तित रहते हुए "जो" जानता है वह "मैं"। 

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Monday, October 23, 2023

यह जो है 'कर्ता'

The Sense of Doer-ship.

कर्तृत्व की भावना

अध्याय १८,

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसो।।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।२८।।

18/28,

मोहित बुद्धि से ग्रस्त होने के कारण इच्छा और द्वेष से प्रेरित जो 'मन' कर्तृत्व-भावना से युक्त होता है, उस 'मन' में ही संकल्प का जन्म होता है। 

अतः संकल्पमात्र वास्तविकता के अज्ञान का ही परिणाम है। 'वास्तविकता' न तो विषयी-रूपी ज्ञाता ही है, और न विषय-रूपी ज्ञेय, या इस प्रकार का विषयपरक द्वैतयुक्त ज्ञान ही है। इस प्रकार के विषय-परक द्वैतयुक्त ज्ञान में ही आत्माभास अर्थात् मैं विषयी हूँ और कर्म करनेवाला स्वतंत्र कर्ता, और उस (अवधारणा रूपी कल्पित) कर्म के फल का भोक्ता भी मैं ही हूँ, इस प्रकार के संकल्प का जन्म होता है। इस प्रकार से कर्म, कर्तृत्व और कर्मफल और कर्मफल का भोग करनेवाले का ज्ञान जिसे है, वह भी मैं ही हूँ -- संकल्प के जन्म के ही साथ ऐसी मिथ्या प्रतीति पैदा हो जाती है। 

चूँकि यह सब अपने / आत्मा के वास्तविक स्वरूप की अनभिज्ञता या आत्मा के स्वरूप  को न जानने का ही परिणाम होता है, इसलिए ऐसे 'मन' को ही अज्ञ कहा जाता है। चूँकि ऐसा मन विषय-विषयी की सत्यता-बुद्धि पर आश्रित होता है इसलिए वह सत्य पर आश्रित नहीं होता। जबकि श्रद्धा का अर्थ है सत्य पर आश्रित होना।

ऐसे ही 'मन' में स्मृति-रूपी अतीत और कल्पना के रूप में भविष्य का आभास उत्पन्न होता है और अपने स्वयं के स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता और ज्ञाता होने की भावना भी विद्यमान होती है इसलिए अपने कार्य में सफल होने या असफल होने की दुविधा या संशय भी होता ही है।

ऐसे ही 'मन' में अर्थात् "मैं स्वतन्त्र कर्ता, भोक्ता और ज्ञाता तथा स्वामी भी हूँ" यह बुद्धि उत्पन्न होती है। इस प्रकार की बुद्धि से ग्रस्त 'मन' अर्थात् इस संशयात्मा का विनाश अवश्यंभावी होता है :

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

(अध्याय ४) 4/40,

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Monday, October 9, 2023

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः.

Long Lasting Wars. 

अध्याय १८,

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकः अलसो।।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।२८।।

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The sense / idea of "doer-ship" / thinking that I am independently the one who performs an action is the assumption because of that  such a man is called kind of tAmasaH / तामसः.

In simple words, such a man is caught in the thought, assumes and identifies oneself the whole, sole and the only cause of achieving the desired goal.

This makes one अयुक्तः / unfit for the Yoga, प्राकृतः / instrumental, स्तब्धः / stupefied, शठः / stubborn, नैष्कृतिकः / indolent, अलसः / idle, विषादी / sad,  दीर्घसूत्री /  with the tendency of  postponement / procrastination.

The present situation of war between Islam and Jew in the West Asia or the Middle East, is typical example of this verse.

It's really funny that each one of the three Abrahmic Religions have been engaged in this war aimed at annihilating "the other".

The unending war where only something on the part of the Unknown, Unidentified and Invisible Cause ordaining and controlling it may possibly end.

Only the time will tell if it is the ultimate, the final end for the whole human civilization.

If and Who-So-Ever might be The Lord of your choice, Pray to Him!

And if you don't believe in the existence of any such a Lord / Savior, be prepared to meet the extinction of the mankind from the earth. For, who knows if somewhere in the universe, there is another earth to be lived at! 

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Wednesday, September 27, 2023

The Thinking.

Thinking, Thought and Thinker.

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निर्विषय चेतना  / The consciousness devoid of object is ever so in the same way is also devoid of the विषयी / subject as well.

Wherever / यत्र through the sense-organs / ज्ञानेन्द्रिय, there is contact / सङ्गः between this pure consciousness associated with a living being (person - विषयी / पुरुष / पुंसः) with an object / विषय, the person as the Thinker / विषयी and the object / विषय as the World appear together at the same time.

Memory creates the illusion आभास / प्रत्यय that the निर्विषय चेतना / pure consciousness where this division takes place is the Thinker, and still the memory persists in the background as a Thought.

I-sense, as the Timeless Reality remains unaffected throughout.

A Practicing Yogi tries to exclude vRitti / Thought either by removing all the 5 kinds of vRitti, or attention fixed on one specific - a mantra or any such object of meditation.

The practice of removing all vRitti  वृत्ति  is called वृत्तिनिरोधः / vRitti-nirodhaH.

The practice of fixing the attention on a specific vRitti वृत्ति is called the एकाग्रता / ekAGratA.

Abidance in a specific vRitti for a long time is called समाधि / samAdhi.

The perfection संयम / samyama of Yoga is the state of the mind when the above,

विवेकवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।  

निरोध-परिणामः / the nirodha-pariNama,

एकाग्रता परिणामः / the ekAgratA-pariNama

and

the समाधि-परिणाम / samAdhi-pariNama are combined in one whole.

Maharshi Patanjali has described how this संयम / samyama is further applied in different ways so as to attain any occult or mystic power : सिद्धि / a siddhi.

This is the Yoga of कर्म / Karma.

However, the Way of  साँख्य / sAmkhya is the one where through inquiry into the Core Reality is attempted.

Where one through this enquiry, that begins with the question :

What is that abides for ever and what is that not so?

नित्य क्या है और अनित्य क्या है?

A sincere and earnest seeker soon or later on discovers and comes onto the realization that the दृक् / consciousness alone might be the origin, foundation and the very first, the prime source of and from where arises the appearance - the दृश्य प्रपञ्च Phenomenal Existence.

Accordingly the two spiritual paths are available for all and every sincere and earnest seeker / aspirant.

But in effect both the above two kind of seekers attain the same Realization at the end of their practice.

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2/59 

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य योगिनः।।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।

(अध्याय 2, Chapter 2, verse 59)

Wednesday, August 30, 2023

सरसामस्मि सागरः

अध्याय १०, श्लोक २४

पुरोधसां च मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिः।। 

सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।२४।।

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उपरोक्त श्लोक में परमात्मा की दिव्य विभूतियों की भूमिका का वर्णन है। पुरोहितों के रूप में देवताओं के पुरोहित बृहस्पति ही परमात्मा की विभूति हैं। (और इसी प्रकार से महर्षि भृगु दैत्यों के पुरोहित हैं।) सेनानियों में देवताओं की सेना के नायक स्कन्द और जलाशयों में चंचलजलयुक्त सागर की ही भूमिका है।

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क्या अध्याय १० का यह श्लोक २४ परमात्मा के अवतारों का सूचक है सकता है?

पुराणों में परमात्मा के अवतारों का वर्णन दो प्रकार से पाया जाता है। दशावतार और चौबीस अवतार।

दशावतार वस्तुतः परमात्मा की ही स्थूल प्रकृति चेतना नामक विभूति की अभिव्यक्ति के विकासक्रम का ही सूचक है, जबकि अवतार परमात्मा की सूक्ष्म प्रकृति की अभिव्यक्ति के विकास के क्रम का सूचक है। इस प्रकार परमात्मा ही स्थूल और सूक्ष्म  प्रकृति के रूप में क्रमशः साङ्ख्य के चौबीस तत्वों और दश रूपों में मत्स्य, कच्छ, वराह, नृसिंह, वामन, भार्गव अर्थात्  परशुराम, राम, कृष्ण-बलराम और कल्कि अवतारों के रूप में दशावतार की तरह अवतरित होता है।

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकाक्षरम्।।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।२५।।

अध्याय १० ग्रीक भाषा की संस्कृति और सभ्यता के उद्गम का संकेत श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोक में देखा जा सकता है। सरस अर्थात् सर् सः जो प्राकृतिक वाणी और जल के प्रवाह का द्योतक भी है वाणी को ही भाषा के आधारभूत होने के तथ्य का सूचक है। इसीलिए Phonetic / स्वनिम समानता के माध्यम से अनेक ग्रीक शब्दों की व्युत्पत्ति संस्कृत मूल से की जा सकती है। आज के मनोविज्ञान, चिकित्सा और औषधि विज्ञान ही नहीं, बल्कि भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, वनस्पति शास्त्र में भी यही पाया जाता है। प्लेटो को  The Republic लिखने की प्रेरणा भारतीय न्यायशास्त्र / न्याय दर्शन से ही मिली होगी। इस बारे में अपने किसी ब्लॉग में मैंने लिखा भी है। इस प्रकार भाषा का मूल प्राकृत ध्वनि विज्ञान और स्वरशास्त्र में है ग्रीक भाषा में इसे देखा जा सकता है। संस्कृत, जो वेद की और देवभाषा भी है, सार्वत्रिक प्राकृत भाषा के परिष्कार से आविष्कृत की गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि संस्कृत मनुष्यों की भाषा नहीं है। प्राकृत सभी को प्राप्त मातृभाषा है जिसकी लिपि ब्राह्मी, शारदा या श्रीलिपि है। श्रीलिपि को ही परिवर्तित कर  Cyril  script  का प्रारंभ हुआ, जिसका श्रेय किसी "Saint Cyril" को दिया गया और इसी आधार पर रूसी भाषा की लिपि प्रचलित हुई। जैसे जाबाल ऋषि और जिबरील / गैबरियल Gabriel में ध्वनिसाम्य है, वैसा ही ध्वनिसाम्य श्रीलिपि और  Saint / सन्त Cyril / सिरिल में हो तो यह प्रतीत होना स्वाभाविक ही है कि दुनिया कि तमाम (संस्कृत -- तं + आम्) भाषाओं का डी एन ए एक ही है। 

यह सब कितना प्रामाणिक है, इसका मेरा कोई दावा तो नहीं है, और कितनी सत्यता इसमें है, या है भी कि नहीं, इसकी परीक्षा कर भाषा के इतिहास का अध्ययन करनेवाले स्वयं ही किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। इस प्रकार ग्रीक और लैटिन भाषाएँ स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व में आई। समस्त यूरोप और अमेरिका में इन्हीं दोनों भाषाओं से अन्य सभी भाषाओं का आगमन हुआ। 

मत्स्य का उद्भव जल से होता है। जल ही नारा है अर्थात् जल का मार्ग नारायण है। परमात्मा ही नर और नारी के रूप में पुनः अवतरित होता है। स्थूल प्रकृति में पृथ्वी में शिला से उत्पन्न होनेवाले शैलज पत्थर, रत्न, खनिज आदि और सूक्ष्म प्रकृति में शैल से अभिव्यक्त होनेवाली शैलजा अर्थात् शैलपुत्री भगवती चेतना जो दुर्गा दुर्गतिनाशिनी, महिषासुरमर्दिनी हैं।

इस प्रकार दशावतार की ही नारायण, तथा नारायणी, नर और नारी रूपों में दो प्रकारों में अभिव्यक्ति होती है।

जैव संरचना की दृष्टि से भी जलोद्भिज्ज, जरायुज, अण्डज और स्वेदज जीवों की उत्पत्ति होती है, जबकि वनस्पतियों में एकबीजपत्रीय और द्विबीजपत्रीय रूपों में। यही भगवान् शिव का अर्धनारीश्वर स्वरूप है।

जल से मत्स्य की उत्पत्ति एककोषीय (unicellular) जीवन है। यह आकस्मिक और केवल संयोग नहीं है कि अंग्रेजी भाषा के शब्द जिनकी उत्पत्ति ग्रीक और लैटिन भाषा से हुई है, उन्हें सीधे ही संस्कृत से भी व्युत्पन्न किया जा सकता है।

सरसामस्मि सागरः में सरस का अर्थ सर सः अर्थात, बहने या प्रवाहित होनेवाली वस्तु है जो कि पर्याय से (imperatively) जल और वाणी हो सकती है।


जीवसृष्टि के इस रहस्य को समझ लेने पर क्या यह प्रश्न किया जा सकता है कि सनातन धर्म के वेद तथा पुराण आदि ग्रन्थ विज्ञान-सम्मत हैं या नहीं?

वस्तुतः प्रमाण के वैज्ञानिक होने के इस हठपूर्वक या प्रमादवश किए जानेवाले आग्रह में पातञ्जल योगदर्शन के इस तथ्य की अवहेलना कर दी जाती है कि वैज्ञानिक प्रमाण भी अन्य सभी वृत्तियों की ही तरह वृत्ति का ही रूप है :

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

और पुनः

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

इस सूत्र में प्रमाण के भी तीन प्रकारों का उल्लेख किया गया है। इसीलिए यह प्रश्न ही असंगत है कि सनातन धर्म के वेद पुराण आदि ग्रन्थ विज्ञान-सम्मत हैं या नहीं। 

इसलिए "क्या वेद पुराण आदि ग्रन्थ विज्ञान-सम्मत हैं?" यह पूछने की बजाय पूछा जाना तो यह चाहिए :

"क्या विज्ञान वेद-सम्मत है?"

यदि यह पूछा जाए तो यह प्रश्न अवश्य ही सम्यक् और सुसंगत भी होगा।

(यह पोस्ट केवल अध्ययन की ही दृष्टि से लिखी गई है, न कि किसी मत के पक्ष या विपक्ष में। )

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